लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी ने एक बार फिर एक बेहद गंभीर और जरूरी मुद्दे को अपनी बेवजह की जुमलेबाजी में गंवा दिया है। उन्होंने भोपाल में कांग्रेस के ‘संगठन सृजन अभियान’ के कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए यह जुमला बोला कि, ‘अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक फोन किया और नरेंदर जी सरेंडर हो गए’। यह सुनने में बहुत अच्छा लग रहा है कि, ‘नरेंदर जी सरेंडर हो गए’। इसमें नरेंदर और सरेंडर की तुक भी बैठती है। लेकिन इस जुमलेबाजी का नुकसान यह हुआ है कि ऑपरेशन सिंदूर की सारी बहस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर शिफ्ट हो गई। अब इस बात की चर्चा नहीं हो रही है कि भारत की सेना जब युद्ध जीत रही थी तो सीजफायर क्यों हुआ? यह सवाल नहीं पूछा जा रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप की सीजफायर कराने में क्या भूमिका रही और क्या उन्होंने व्यापार और टैरिफ को सीजफायर के लिए इस्तेमाल किया था? अब चर्चा इस बात पर हो रही है कि नरेंद्र मोदी डरपोक हैं या साहसी और भाजपा की सरकार ने सरेंडर किया या कांग्रेस की सरकारें सरेंडर करती रही हैं? राहुल गांधी ने सीजफायर की बहस को इस तरफ मोड़ दिया कि, ‘बीजेपी-आरएसएस के लोगों को हम जानते हैं, थोड़ा दबाव डालो, थोड़ा धक्का दो तो वे भाग जाते हैं’।
राहुल गांधी की इस जुमलेबाजी के बाद से कांग्रेस के सारे प्रवक्ता उनका बचाव करने में जुटे हैं। सबकी मजबूरी है कि वे ऐसा करें। इसी तरह सभी प्रवक्ताओं को एक समय ‘चौकीदार चोर है’ के जुमले का बचाव करना पड़ा था। राहुल गांधी ने 2018 के कई राज्यों के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में इसे मुद्दा बनाया था। तब वे हर सभा में ‘चौकीदार चोर है’ के नारे लगवाते थे। उनका समर्थन करने वाला सोशल मीडिया का इकोसिस्टम इसे लेकर गाने लिख रहा था और चौकीदार व चोर के अनुप्रास पर लहालोट हो रहा था। लेकिन यह नारा कांग्रेस को ले डूबा। इस अनुप्रास वाली जुमलेबाजी के चक्कर में कांग्रेस और राहुल गांधी ने राफेल लड़ाकू विमान की कई गुना ज्यादा कीमत पर खरीद का मुद्दा गंवा दिया। राफेल खरीद का मुद्दा इस दिशा में मुड़ गया कि नरेंद्र मोदी ईमानदार हैं या बेईमान? यह बहस आगे बढ़ कर इसमें तब्दील हो गई कि कांग्रेस पार्टी के लंबे शासन में कितने घोटाले हुए हैं। देश के ज्यादातर लोगों ने इस आरोप को स्वीकार नहीं किया कि ‘चौकीदार चोर है’ और मजबूर होकर कांग्रेस व राहुल गांधी को यह नारा और राफेल का मुद्दा दोनों छोड़ना पड़ा।
इसके बाद राहुल गांधी अंबानी-अडानी के मुद्दे पर आए। उन्होंने इन दो कारोबारियों का नाम लेकर कहना शुरू किया कि सरकार इनके लिए और कुछ अन्य चुनिंदा कारोबारियों के लिए काम करती है। संसद में बहस के दौरान स्पीकर ने दोनों के नाम लेने से रोका तो राहुल गांधी ने ‘डबल ए’ का जुमला गढ़ा। वे पिछले सात आठ साल से इन दोनों कारोबारियों का नाम लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमले कर रहे हैं और एक के बाद एक चुनाव हार रहे हैं। दो कारोबारियों के नाम लेकर उन्होंने क्रोनी कैपिटलिज्म और देश में बढ़ती आर्थिक विषमता के बहुत बड़े मुद्दे को गंवा दिया। आर्थिक विषमता और देश की संपत्ति चुनिंदा कारोबारियों को सौंप देने का बड़ा मुद्दा इस बहस में तब्दील हो गया कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंबानी और अडानी के लिए काम करते हैं? इसके बाद दूसरी समस्या यह हुई कि एक तरफ राहुल गांधी अंबानी-अडानी को क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रतीक बना रहे थे और दूसरी ओर उनकी पार्टी की राज्य सरकारें उनके साथ हजारों करोड़ रुपए के निवेश के करार कर रहे थीं। सो, लोगों ने उनके जुमले पर यकीन नहीं किया। राहुल और कांग्रेस लोगों की आय कम होने, अमीर व गरीब की खाई बढ़ने, गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई की बजाय दो कारोबारियों के अमीर बनते जाने को राजनीतिक मुद्दा बनाते रहे और उसमें भी निजी तौर पर प्रधानमंत्री को टारगेट किया, जिसका उलटा असर हुआ। राहुल गांधी बीच में ‘मोहब्बत की दुकान’ का जुमला भी बोलते थे। आजकल नहीं बोलते हैं।
इससे भी पहले याद करें कि कैसे 2002 के दंगों के बाद नरेंद्र मोदी के लिए ‘मौत का सौदागर’ का जुमला गढ़ा गया। सोनिया गांधी ने यह जुमला बोला था। वह जुमला नरेंद्र मोदी पर तो नहीं चिपका लेकिन वह कांग्रेस की नियति बन गया। कांग्रेस आज तक उस जुमले से पीछा नहीं छुड़ा पाई है। उस एक जुमले ने नरेंद्र मोदी को पूरे देश में हिंदू हृदय सम्राट बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई। कांग्रेस ने जिस दिन यह जुमला बोला उसी दिन उसने तय कर दिया कि भाजपा में वाजपेयी, आडवाणी और जोशी का युग खत्म होगा तो नरेंद्र मोदी कमान संभालेंगे। सो, कह सकते हैं कि इस किस्म की जुमलेबाजी राहुल गांधी को विरासत में मिली है। यह भी कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी कांग्रेस के और खास कर सोनिया व राहुल गांधी की नियति से जुड़ गए हैं। हर बार ये दोनों किसी न किसी रूप में नरेंद्र मोदी पर निजी हमला करते हैं। जाने अनजाने में ये दोनों गहन गंभीर मुद्दे को मोदी के साथ निजी लड़ाई में तब्दील कर देते हैं। जहां मोदी का नाम लेने की भी जरुरत नहीं है वहां भी उनको बहस के केंद्र में ला देते हैं। कांग्रेस और सोनिया व राहुल गांधी की देखादेखी दूसरी विपक्षी पार्टियां भी नरेंद्र मोदी को निशाना बनाती हैं। हालांकि प्रादेशिक पार्टियों को इसका फायदा राज्यों में मिल जाता है लेकिन कांग्रेस अपना मुद्दा और चुनाव दोनों गंवा देती है।
सोचें, पिछले 11 साल में कितने मुद्दे देश के सामने आए। राफेल लड़ाकू विमान तीन गुना खरीदने के मुद्दे से लेकर भूमि अधिग्रहण, किसान आंदोलन, नोटबंदी, जीएसटी, पेगासस, आर्थिक विषमता, पेट्रोलियम उत्पादों व अन्य वस्तुओं की महंगाई और कोरोना के कुप्रबंधन से लेकर पाकिस्तान के साथ सैन्य संघर्ष के सीजफायर व कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता तक दर्जनों बड़े मुद्दे आए लेकिन क्या कांग्रेस और राहुल गांधी सरकार को प्रभावी तरीके से कठघरे में खड़ा करके इन मुद्दों के आधार पर उसकी राजनीतिक पूंजी का नुकसान कर पाए? इनमें से भूमि अधिग्रहण और किसान आंदोलन दो ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर सरकार पीछे हटी और उसने अपना फैसला बदला। ये दो मुद्दे ऐसे थे, जिनमें किसानों ने आंदोलन की कमान संभाली और राजनीतिक दलों ने भी इसे किसान बनाम मोदी नहीं बनने दिया। बाकी हर मुद्दे को राहुल निजी तौर पर मोदी से जोड़ते हैं।
कह सकते हैं कि मोदी भी निजी तौर पर सोनिया व राहुल पर या नेहरू-गांधी परिवार पर हमला करते हैं। लेकिन इन हमलों के पीछे दशकों से नेहरू-गांधी परिवार को लेकर किए गए प्रचार या दुष्प्रचार का बल है। आजादी के बाद से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, भारतीय जनसंघ व फिर भाजपा और समाजवादी व कम्युनिस्ट पार्टियों ने देश की तमाम समस्याओं के लिए नेहरू-गांधी परिवार को जिम्मेदार ठहराया है। इसलिए मोदी को उसमें बहुत कुछ नहीं करना पड़ा। वे हर समस्या के लिए नेहरू-गांधी परिवार को जिम्मेदार ठहराते हैं तो लोग उस पर यकीन करते हैं और जब मोदी कहते हैं कि वे सब चीजें ठीक कर रहे हैं तो लोग उस पर भी यकीन करते हैं। इसलिए अगर कांग्रेस मोदी की बजाय उन मुद्दों को टारगेट करे, जिनको ठीक करने का वे दावा कर रहे हैं और लोगों को यकीन दिलाए कि हालात ठीक होने की बजाय बिगड़ रहे हैं तो वह ज्यादा कारगर साबित हो सकता है। राहुल गांधी को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि कांग्रेस ने ही मोदी को हिंदू हृदय सम्राट बनाया है और इस वजह से वे अपनी कई कमियों और विफलताओं के बावजूद बहुसंख्यक हिंदुओं एक बड़े तबके में स्वीकार्य हैं। समाज का जो विभाजन है वह उनकी बड़ी ताकत है। इसलिए मोदी पर निजी हमला कभी फलदायी नहीं हो सकता है। देश के जरूरी मुद्दों की राजनीति या वैकल्पिक राजनीतिक विमर्श के निर्माण से ही विपक्ष की राजनीति सफल हो सकती है।