Sunday

01-06-2025 Vol 19

सियासी मध्यायु की बिगुल ध्वनि

1825 Views

महाराष्ट्र की 288 और झारखंड की 81 सीटों के लिए चुनावों का ऐलान अक्टूबर के पहले सप्ताह में हो जाएगा और अगले बरस की शुरुआत होते ही दिल्ली के 70 विधानसभा क्षेत्र भी मत-कुरुक्षेत्र के हवाले हो जाएंगे। यानी देश भर के 4123 विधानसभा क्षेत्रों का 15 फ़ीसदी हिस्सा संसद का अगला बजट सत्र आरंभ होने के पहले मौजूदा राजनीतिक हालात पर अपनी राय ज़ाहिर कर चुका होगा।

अगले पांच महीनों में पांच प्रदेशों के 619 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव होंगें हरियाणा और जम्मू-कश्मीर की 90-90 सीटों के लिए मतदान की समय सारिणी का ऐलान निर्वाचन आयोग ने कर दिया है। महाराष्ट्र की 288 और झारखंड की 81 सीटों के लिए चुनावों का ऐलान अक्टूबर के पहले सप्ताह में हो जाएगा और अगले बरस की शुरुआत होते ही दिल्ली के 70 विधानसभा क्षेत्र भी मत-कुरुक्षेत्र के हवाले हो जाएंगे। यानी देश भर के 4123 विधानसभा क्षेत्रों का 15 फ़ीसदी हिस्सा संसद का अगला बजट सत्र आरंभ होने के पहले मौजूदा राजनीतिक हालात पर अपनी राय ज़ाहिर कर चुका होगा।

पांच महीनों में चुनावों में जाने वाले पांच राज्यों में रहने वाले तक़रीबन सवा बारह करोड़ मतदाताओं की मंशा जब सामने आएगी तो वह स्थानीयता की चाशनी में ही लिपटी हुई नहीं होगी। उस के पीछे से राष्ट्रीय मसलों पर सुक़ून-बेचैनी की झलक भी झांक रही होगी। विधानसभा चुनावों के नतीजे अगड़ों-पिछड़ों, जातीय-उपजातीय, क्रीमी-अक्रीमी परत, दलित-महादलित और जनजातियों-उपजनजातियों की गुत्थियों से जूझ कर तो हमारे सामने आएंगे ही; वे देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक-सांस्कृतिक अवस्था और वैश्विक मसलों पर सफलता-असफलता की लहरों से गुजर कर भी अपनी ठोस उपस्थिति दर्ज़ करा रहे होंगे।

पांचों विधानसभाओं के परिणाम प्रादेशिक स्तर पर तो कइयों का राजनीतिक भविष्य पलटेंगे-उलटेंगे ही, पर एक तरह से वे नरेंद्र भाई मोदी के सियासी मुस्तक़बिल की दीर्घजीविता तय करने वाले भी होंगे। 2025 की फरवरी का मध्य आते-आते यह साफ़ हो जाएगा कि नरेंद्र भाई अपने तीसरे कार्यकाल के पांच साल पूरे कर पाएंगे या नहीं और भारतीय जनता पार्टी आगे के सफ़र के लिए ‘मोशा’-कंधों का सहारा लेने को तैयार है या नहीं?

इस वक़्त पांच प्रदेशों की सिर्फ़ 26 प्रतिशत विधानसभा सीटें भाजपा के पास हैं। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन है। हरियाणा में भाजपा के पास 42, महाराष्ट्र में 102, झारखंड में 24 और दिल्ली में 7 सीटें हैं। इस बार भाजपा की ज़मीनी स्थिति और भी ख़स्ताहाल है। वह पांच राज्यों की 18 फ़ीसदी से ज़्यादा सीटें जीतने की हालत में कतई नहीं है। यानी उसे 8 प्रतिशत सीटों का नुक़्सान तो कम-से-कम होने ही वाला है। इन चुनावों में उस की जीत का सकल-आंकड़ा अभी तो 110 की संख्या पार करता नज़र नहीं आ रहा है। इस का मतलब यह हुआ कि उसे पांच प्रदेशों की विधानसभाओं में 65 सीटों का नुक़्सान होगा।

नरेंद्र भाई और अमित भाई शाह का वश चलता तो वे जम्मू-कश्मीर में चुनाव शायद अब भी नहीं कराते। यह तो सुप्रीम कोर्ट का हुक़्म था कि वहां विधानसभा चुनाव 30 सितंबर तक कराए जाएं। बावजूद इस के कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन करते वक़्त इस बात का ख़्याल पूरी मुस्तैदी से रखा गया कि आने वाले चुनावों में भाजपा की जीत का रास्ता लगातार आसान होता जाए, आप देखेंगे कि इस चुनाव में वहां भाजपा दो अंकों की संख्या भी मुश्क़िल से छू पाएगी। यह तब है, जब नए बनाए गए 7 विधानसभा क्षेत्रों में से 6 जम्मू में हैं और सिर्फ़ एक कश्मीर में। जम्मू-कश्मीर की 90 में से 9 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित भी की गई हैं।

जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों में 2002 में भाजपा महज़ एक सीट जीत पाई थी। 2008 में उसे 11 और 2014 में 25 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। मगर इस बार वह 10 का आंकड़ा भी छू ले तो बड़ी बात होगी। अभी-अभी हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा और उस के सहयोगी दलों को 30 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई है, लेकिन यह सहयोगी दलों की उपलब्धि है, भाजपा की नहीं। भाजपा की हालत तो यह है कि कश्मीर के इलाके में ख़ुद का एक भी उम्मीदवार लोकसभा चुनाव में उतारने की उसे हिम्मत ही नहीं हुई थी। कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी इस लोकसभा चुनाव में विधानसभा की 46 सीटों पर आगे रही हैं। सो, फ़ारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती और कांग्रेस मिल कर जम्मू-कश्मीर में अपनी जीत का देवदारी-कीर्तिमान का़यम करने की स्थिति में हैं। गुलाम नबी आज़ाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रसिव आज़ाद पार्टी ने भी इस ताल में अपनी ताल मिला दी तो चिनार के पेड़ों का रंग और सुखऱ्रू हो जाएगा।

हरियाणा में तो भाजपा इस वक़्त अपने सब से निचले पायदान पर है। उस के सहयोगी दल ‘चूर-चूर नान’ बन कर बिखर रहे हैं। हरियाणा के नए-नवेले मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी का कद ऐसा है नहीं कि उन के बूते भाजपा की नैया पार लग जाए। पांच महीने पहले विदा किए गए मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ऐसी कोई राजनीतिक खटपट करने में सक्षम नहीं हैं कि भाजपा को टेका दे दें। होते तो हटाए ही क्यों जाते? रह गए नरेंद्र भाई मोदी तो उन्हें ले कर ही तो हरियाणा कभी से भीतर ही भीतर खदबदा रहा था। ऐसा न होता तो लोकसभा चुनाव में हरियाणा में भाजपा आधी क्यों रह जाती? इसलिए वैसे तो विधानसभा के चुनाव में उस का आकार पहले से चौथाई ही होता दिखाई दे रहा है, मगर किसी भी हालत में 22 सीटों से ज़्यादा पर तो वह जीत हासिल नहीं कर पाएगी। बस, राहुल गांधी कांग्रेस के भीतर जागीरदारी प्रथा पर अंकुश लगाने और हरियाणा में हर हाल में अनुशासन बनाए रखने की गांठ बांध लें।

महाराष्ट्र में भाजपा सफाए की तरफ़ बढ़ रही है। उस के संगी-साथी रही-सही कसर भी पूरी कर डालेंगे। वहां अभी भाजपा की 102 और उस के सहयोगियों की 100 सीटें हैं। यानी कुल 202 विधानसभा क्षेत्रों पर उन का कब्जा है। नवंबर के विधानसभा चुनाव में यह तादाद अगर 60 के आंकड़े को पार कर जाएगी तो सियासी हैरत की बात होगी। महाराष्ट्र का वाटरलू नरेंद्र भाई को उन की ज़िंदगी का सब से बड़ा झटका देता दिखाई दे रहा है। देवेंद्र फडनवीस, एकनाथ शिंदे और अजित पवार की साख पर जो बट्टा लग चुका है, उसे अरब सागर की लहरें पछीटे खा-खा कर भी नहीं धो पा रही हैं।

झारखंड की 81 में से अभी 24 सीटें भाजपा के पास हैं। उन के अपने आप बढ़ने के दूर-दूर तक ज़रा से भी आसार होते तो ‘मोशा’ का बहेलिया-जाल चंपई सोरेन को समेटने सरसराता हुआ निकलता ही क्यों? यह तो दांव यूं उलटा पड़ गया कि ऐन मौके पर भाजपा के पितृ-संगठन की एक अर्थवान टोली सक्रिय हो गई और उस ने चेताया कि अगर चंपई से गलबहियां कीं तो झारखंड में भी महाराष्ट्र की तरह उलटे बांस लद जाएंगे। बाल-बाल बची भाजपा फिर भी झारखंड में ख़ुद को 10-12 सीटों पर ही लटका पाएगी।

दिल्ली भी भाजपा के लिए दूर है। लोकसभा में सातों सीटों पर जीत की तरन्नुम में गुम भाजपा के लिए विधानसभा के चुनाव गुदगुदा गद्दा साबित होने वाले नहीं हैं। सरकार बनाने के लिए उसे विधानसभा में अभी की अपनी तादाद को पांच गुना से भी थोड़ा अधिक करना होगा। यह मुमक़िन नहीं है। किसी को दिखाई न दे रही हो तो यह उस की बदनसीबी है, मगर दिल्ली की धरती इस वक़्त आम आदमी पार्टी के ज़लज़ले से वाबस्ता है। कांग्रेस और अरविंद केजरीवाल ईमानदारी से मिल कर लड़े तो चुनाव नतीजे अजूबा ले कर आएंगे। आपसी समझ-बूझ के साथ अलग-अलग लड़े तो भी चमत्कार होगा।

सो, पांच प्रदेशों से आ रहे संकेतों में मुझे तो नरेंद्र भाई की सियासी मध्यायु की बिगुल-ध्वनि सुनाई दे रही है। जिन्हें नहीं दे रही हो, वे थोड़ा इंतज़ार कर लें।

पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *