जब-जब धर्म की हानि होती है, अवतार होते हैं। इस बार अवतार स्वयं धर्म की हानि करने के लिए आए हैं। उन्हें एक नए धर्म की स्थापना करनी है। उस धर्म में दया का नहीं, दमन का बोलबाला है। करुणा का नहीं, कमीनगी का दौरदौरा है। क्षमा का नहीं, क्षुद्रता का प्राधान्य है। जब ‘सब के साथ’ का नहीं, ‘जिसे, जो करना है, कर ले’ का टोना-टोटका इस्तेमाल हो रहा हो तो वही होता है, जो आज भारतमाता के आंगन में हो रहा है।
सियासत के चिराग़ की लौ बुझने के पहले पूरे ज़ोर से लपलपा रही है। बिहार से घबराए नरेंद्र भाई मोदी ने अपना सब-कुछ दांव पर लगा दिया है। बेरोज़गारी नहीं, महंगाई नहीं, वोट-चोरी नहीं; मां को गाली बिहार के आगामी चुनाव के लिए उन का सब से बड़ा मुद्दा है। राहुल गांधी की वोट-अधिकार यात्रा के दौरान तेजस्वी यादव और राहुल के स्वागत के लिए बनाए मंच से किसी पिकअप वैन ड्राइवर ने कथित तौर पर ऐसा नारा लगाया, जिस से प्रधानमंत्री जी की स्वर्गीय माता जी के प्रति अपमान ध्वनित होता था।
उस वक़्त न राहुल उस मंच पर थे, न तेजस्वी और न कांग्रेस-राष्ट्रीय जनता दल का कोई और ज़िम्मेदार नेता। मगर, नरेंद्र भाई को तो बस मौक़ा चाहिए। परदेस से लौटते ही नरेंद्र भाई ने बिहार के राज्य जीविका निधि साख सहकारी संघ का वीडियो कांफ्रेंस के ज़रिए शुभारंभ किया तो पचास मिनट के अपने भाषण में से पहले तीस मिनट ‘मां को गाली’ के लिए समर्पित कर दिए। वे भूल ही गए कि अवसर बिहार की ग्रामीण महिलाओं को सस्ते ब्याज पर डिजिटल माध्यम से कर्ज़ मुहैया कराने वाली एक संस्था के उद्घाटन का है और भले ही इस काम के लिए महज़ 105 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है, मगर बिहार में विधानसभा के नवंबर में होने वाले चुनावों के मद्देनज़र यह पहल भी कुछ तो अहमियत रखती ही है तो पहले उस की बात करें।
लेकिन नरेंद्र भाई जानते हैं कि कर्ज़-वर्ज़ मिलना तो चलता रहेगा, मां के अपमान का बहाना ले कर बिहार में अपने चुनावी विरोधियों पर हमला बोलने का इस से बेहतर सुयोग फिर नहीं मिलने वाला। सो, उन्होंने पांच दिन से ऊंघ रहे कथित ‘गाली-कांड’ की नींद उड़ाने में अपनी पूरी प्रतिभा झोंक डाली। बार-बार कहा कि यह बिहार की महिलाओं का अपमान है। मगर यह नहीं बताया कि यह अपमान सिर्फ़ बिहार की महिलाओं का ही क्यों है? बाकी देश की महिलाओं का सम्मान क्या इस से बढ़ गया है? क्या ऐसी घटना से, अगर वे सचमुच हुई है तो, महज़ उन प्रदेशों की महिलाओं का अपमान होता है, जहां चुनाव होने वाले हों?
नरेंद्र भाई ने सोचा होगा कि उन का दुखड़ा सुनने के बाद अब बिहार के मतदाता उन की झोली वोटों से भर देंगे। मगर यह बांस उलटे बरेली की तरफ़ लद गया। बिहार के कोने-कोने में लोग नरेंद्र भाई के उन पुराने वीडियो को लटूम-लटूम कर अपने मोबाइल पर देखने में मशगूल हो गए, जिन में उन्होंने पता नहीं किस-किस की मां के लिए पता नहीं क्या-क्या कहा था। तरह-तरह के सवाल उठने लगे। लोग पूछने लगे कि सम्मान क्या सिर्फ़ प्रधानमंत्री जी की मां का ही होता है? अपमान तो किसी की भी मां का नहीं होना चाहिए। नरेंद्र भाई की मां के सम्मान की रक्षा के लिए किया गया बिहार-बंद का आह्वान भी इस चक्कर में तार-तार हो गया। लाठी-डंडों के बावजूद लोग अपना कारोबार एक दिन के लिए भी बंद करने को तैयार नहीं हुए।
मैं मानता हूं कि जिस ने भी नरेंद्र भाई की स्वर्गीय माता जी के लिए अवमानना भरे शब्दों का इस्तेमाल किया है, उसे बख्शा नहीं जाना चाहिए। मगर मैं यह भी मानता हूं कि इस प्रसंग को राहुल-तेजस्वी या कांग्रेस-राजद के इशारे पर हुआ बताने के अतिरेकी रुख की भी भर्त्सना होनी चाहिए। मुझे लगता है कि किसी एक मंच पर कथित तौर पर घटी एक बेहद अशिष्ट घटना से प्रधानमंत्री जी की आदरणीय माता जी का सम्मान जितना कम नहीं हुआ, उस से ज़्यादा तो इस मसले का राजनीतिकरण करने से हो गया। अपनी मां के लिए ऐसा जनमत-संग्रह कराने की क्या ज़रूरत थी, जिस का परिणाम घटना की एकमत-भर्त्सना के बजाय आप के स्वयं के पुराने आचरण के बारे में उठे प्रश्नों की शक़्ल में निकले? यही हुआ न? लोगों ने एकमत से कहा कि प्रधानमंत्री जी की माता जी के लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल ग़लत है, लेकिन उतने ही एकमत से पूछा कि प्रधानमंत्री जी ने समय-समय पर दूसरों की माताओं के लिए जिस तरह के शब्दों का उपयोग किया, उस का क्या? तो ऐसा पत्थर फेंकने की ज़रूरत ही क्या थी कि छींटे उड़ कर आप के चेहरे पर ही चिपक जाएं?
पर नरेंद्र भाई अगर हर तिल को ताड़ न बनाएं तो फिर काहे के नरेंद्र भाई? उन्हें हर बात का बतंगड़ बनाने में जितना आनंद आता है, उतना किसी बात में नहीं। अब सोचिए कि भारत के प्रधानमंत्री बिहार की सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक पूर्णतः शासकीय कार्यक्रम को संबोधित कर रहे हैं और उस मंच से ‘मेरी मां को गाली दे दी- मेरी मां को गाली दे दी’ का आलाप कर रहे हैं। एक सरकारी उद्घाटन समारोह के मंच से अपने विरोधी राजनीतिक दलों और उन के नेताओं पर निजी हमले कर रहे हैं। राजकीय चबूतरे पर खड़े हैं, मगर घनघोर चुनावी भाषण दे रहे हैं। सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के इस मर्यादाहीन चाल-चलन की निर्लज्ज ताईद जिन्हें करनी हो, करें, मेरा मन तो मुझे इस की इजाज़त नहीं देता।
असली मुद्दा यह है कि अब से 10-15 साल पहले तक हमारे सार्वजनिक विमर्श में ऐसी फूहड़ता क्यों नहीं थी और इस एक-डेढ़ दशक में ऐसा क्या हुआ है कि हम अपसंस्कारों की सब से निचली पायदान पर लुढ़क आए हैं? वे कौन से तत्व हैं, वे कौन सी शक्तियां हैं, वह कौन सा सोच है, जिस ने हमारे समाज में इतना ज़हर घोल दिया है? सोचने की बात यह है कि वे कौन हैं, जिन्होंने इस प्रवृत्ति को शह देने का काम किया है? वे कौन हैं, जिन्होंने हमारी सामाजिक ज़िंदगियों में इस लीचड़ता को बढ़ावा दिया है? आप निस्पृह-भाव से देखेंगे तो आप को पता चल जाएगा कि आज के इस बेहद घटिया माहौल के लिए कौन ज़िम्मेदार हैं?
‘यथा प्रजा-तथा राजा’ के दिन गए। अब प्रजा को कौन पूछ रहा है? आजकल ‘यथा राजा-तथा प्रजा’ के दिन हैं। प्रधान-खरबूजे को देख कर उसी डलिया में रखे बाक़ी खरबूजे अगर अपना रंग बदल रहे हैं तो इस में उन का क्या दोष? कुसूरवार तो ज़िल्ल-ए-सुब्हानी हैं। मगर अपनी ख़ामियां देखने को उन का जन्म थोड़े ही हुआ है। उन का अवतरण बाक़ी सब को दुरुस्त करने के लिए हुआ है। जब-जब धर्म की हानि होती है, अवतार होते हैं। इस बार अवतार स्वयं धर्म की हानि करने के लिए आए हैं। उन्हें एक नए धर्म की स्थापना करनी है। उस धर्म में दया का नहीं, दमन का बोलबाला है। करुणा का नहीं, कमीनगी का दौरदौरा है। क्षमा का नहीं, क्षुद्रता का प्राधान्य है। जब ‘सब के साथ’ का नहीं, ‘जिसे, जो करना है, कर ले’ का टोना-टोटका इस्तेमाल हो रहा हो तो वही होता है, जो आज भारतमाता के आंगन में हो रहा है।
नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः। मां की छाया से बढ़ कर कोई छाया नहीं, मां के सहारे से बढ़ कर कोई सहारा नहीं। मैं समझता था कि हमारे शास्त्रों में लिखी यह बात हमारी सनातन संस्कृति के बीज-मंत्र को अपने में समाए हुए है। मुझे नहीं मालूम था कि मां का सहारा ले कर सियासी सीढ़ियां चढ़ने की तृष्णा में सराबोर शक़्लों से भी इस जीवन में रू-ब-रू होना पड़ेगा। प्रभु रक्षा करें!