नरेंद्र मोदी सरकार भले यह सोचती रही हो कि उसने अमेरिका के साथ सहभागिता का संबंध बना लिया है और ऐसा भारत के हो रहे उदय के कारण हुआ है, मगर अमेरिकी शासकों की निगाह में भारत की अहमियत चीन के खिलाफ एक मोहरे से अधिक नहीं रही है। अब ट्रंप संभवतः यह मानने लगे हैं कि आर्थिक रूप से अगर उन्होंने ‘अमेरिका को फिर से महान’ बना दिया, तो चीन को घेरने की उनके देश को जरूरत ही नहीं रह जाएगी। इसलिए ट्रंप भारत से कोई रियायत करने के मूड में नहीं हैं।
वैसे तो यह भारत के पूरे प्रभु वर्ग का हाल है, मगर विशेष रूप से भारत सरकार perplexed (यानी पशोपेश हाल में) है- वह ये सोच कर हैरत में है कि उसने तो अमेरिका के मनमाफिक सब कुछ किया, फिर भी डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन उससे क्यों खफ़ा हो गया! विदेश मंत्री एस। जयशंकर अपनी हाल की मास्को यात्रा के दौरान जो बोल गए, वैसा अक्सर गहरा सदमा लगने की बदहवासी में ही होता है। तब उन्हें शायद ख्याल नहीं रहा कि उनके बगल में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव बैठे हुए हैं और मौका प्रेस वार्ता का है, जहां कही गई बातें दुनिया भर में पहुंचेंगी। और तब सभी अपने-अपने ढंग से उनकी बातों का मतलब निकालेंगे।
जयशंकर ने जो कहा, उस पर ध्यान दीजिएः
“हम रूस से सबसे ज्यादा तेल खरीदने वाला देश नहीं हैं, यह चीन है।
हम रूस से सबसे ज्यादा एलएनजी (लिक्विफाइड नेचुरल गैस) खरीदने वाला देश भी नहीं हैं, यह संभवतः यूरोपियन यूनियन है।
हम वह देश नहीं है, जिसका 2022 के बाद से रूस से व्यापार सबसे ज्यादा बढ़ा हो, मेरे ख्याल से ऐसा सबसे ज्यादा दक्षिण के कुछ देशों का हुआ है।
हम वो देश हैं, जिसके बारे में पिछले कुछ साल से अमेरिकी कह रहे थे कि हमें विश्व ऊर्जा बाजार को स्थिर बनाए रखने के लिए सब कुछ करना चाहिए, जिसमें रूस से तेल खरीदना भी शामिल है।
प्रसंगवश, हम तेल अमेरिका से भी खरीदते हैं और उसकी मात्रा बढ़ी है।
इसलिए, अगर ईमानदारी से कहूं, तो जिस तर्क का आपने उल्लेख किया, उसको लेकर मैं बेहद हैरत में (very perplexed) हूं।”
(https://x.com/ANI/status/1958479183434129613)
सवाल पूछने वाले पत्रकार ने उस तर्क का जिक्र किया था, जो भारत पर 25 फीसदी अतिरिक्त टैरिफ लगाने के पक्ष में अमेरिकी अधिकारी दे रहे हैं। यह आयात शुल्क रूस से सस्ता तेल खरीदने के कारण लगाया गया है।
बहरहाल, जयशंकर के जवाब से यह राज़ खुला कि यूक्रेन युद्ध के बाद रूस से कच्चे तेल की खरीदारी करने के निर्णय पर भारत सरकार इसलिए आगे बढ़ती रही, क्योंकि इसके लिए उसे अमेरिका प्रोत्साहित कर रहा था। यानी यह अपनी “रणनीतिक स्वायत्तता” (strategic autonomy) से प्रेरित निर्णय नहीं था। यह बात लावरोव और सारी दुनिया ने सुनी। सबने सुना कि भारत किसी और की रणनीति के मुताबिक चल रहा था, अपने राष्ट्र हित में नहीं!
नरेंद्र मोदी सरकार का दावा रहा है कि वह वैश्विक मामलों में “रणनीतिक स्वायत्तता” से चलती है और उसकी नीति multi-alignment यानी सबसे संबंध रखते हुए देश का हित साधने की है।
अब strategic autonomy और multi-alignment जैसे दावों के साथ-साथ देश के सधे हित की कहानी भी सवालों के कठघरे में है। यह तो आम तजुर्बा है कि रूस से खरीदे जा रहे सस्ते तेल से भारत के आम उपभोक्ताओं को कोई लाभ नहीं हुआ। जानकार यह जानते थे कि उसका लाभ देश के कुछ कॉरपोरेट घरानों ने उठाया, जिन्होंने रूस से खरीदे गए सस्ते कच्चा तेल को रिफाइन्ड कर विश्व बाजार में महंगे दाम पर बेचा। अब वही बात अमेरिका वाणिज्य मंत्री स्कॉट बेसेंट ने कही है।
बेसेंट ने कहा- ‘यूक्रेन युद्ध के पहले भारत की कुल तेल खरीदारी का एक फीसदी से भी कम हिस्सा रूस से आता था। अब यह 42 प्रतिशत है। इस तरीके से भारत के कुछ सबसे धनी घरानों ने सस्ते रूसी तेल को खरीदने के बाद उसे बेच कर 16 बिलियन डॉलर की रकम कमाई है। यह अवसरवादी तरीका अस्वीकार्य है।’
(https://x.com/SecScottBessent/status/1957827395496407120)।
दरअसल, ट्रंप प्रशासन ने यह संकेत देने में कोई हिचक नहीं दिखाई है कि अब अमेरिका की रणनीतिक प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। अतः चीन या पाकिस्तान के प्रति भारत की क्या सोच है, इसकी उसे कोई परवाह नहीं है। ऐसा ही संदेश उसने भारत के लिए नए राजदूत का एलान करते हुए दिया, जब कहा गया कि सर्जियो गोर भारत में राजदूत होने के साथ-साथ दक्षिण एवं मध्य एशिया के लिए विशेष अमेरिकी दूत भी होंगे। यानी अमेरिकी योजना में भारत इतना महत्त्वपूर्ण देश नहीं है कि वहां एक पूर्णकालिक राजदूत की नियुक्ति की जरूरत ट्रंप प्रशासन समझे। अब भारत को उन देशों के समूह के साथ रख दिया गया है, जिनमें पाकिस्तान भी है।
अमेरिका के अनेक विश्लेषक ट्रंप प्रशासन की इस नीति की आलोचना कर रहे हैं। लेकिन ऐसा करते हुए वे उस बात को भी खुल कर कहने लगे हैं, जिसे अब तक दबी-छिपी जुबान में कहा जाता था। यानी यह कि अमेरिका की निगाह में भारत का महत्त्व चीन को घेरने की उसकी रणनीति के साथ जुड़ा रहा है। इस रणनीति में भारत की एक भूमिका है। ट्रंप प्रशासन के आलोचकों का कहना है कि भारत को नाराज कर अमेरिका अपनी चीन विरोधी रणनीति का एक महत्त्वपूर्ण asset गंवा रहा है।
तो यह साफ है कि नरेंद्र मोदी सरकार भले यह सोचती रही हो कि उसने अमेरिका के साथ सहभागिता का संबंध बना लिया है और ऐसा भारत के हो रहे उदय के कारण हुआ है, मगर अमेरिकी शासकों की निगाह में भारत की अहमियत चीन के खिलाफ एक मोहरे से अधिक नहीं रही है। अब बदलाव यह आया है कि ट्रंप संभवतः यह मानने लगे हैं कि आर्थिक रूप से अगर उन्होंने ‘अमेरिका को फिर से महान’ बना दिया, तो चीन को घेरने की उनके देश को जरूरत ही नहीं रह जाएगी। या अमेरिका खुद ऐसा करने में सक्षम हो जाएगा। इसलिए ट्रंप भारत से कोई रियायत करने के मूड में नहीं हैं। उनकी प्राथमिकता तमाम देशों के साथ-साथ भारत के बाजार और सभी संसाधनों तक अमेरिकी कंपनियों की निर्बाध पहुंच बनवाना है। चूंकि भारत सरकार इसके लिए अब तक राजी नहीं हुई है, तो ट्रंप प्रशासन तमाम तरह के डंडे भारत पर बरसा रहा है।
अमेरिकी नेताओं का यह कहना भी अजीब है कि रूस के प्रति ट्रंप प्रशासन की सख्ती को दिखाने के लिए वे भारत पर अतिरिक्त टैरिफ (जिसे ह्वाइट हाउस की प्रवक्ता प्रतिबंध कह चुकी हैं) लगा रहे हैं। जबकि भारत से ज्यादा रूसी तेल खरीदने वाले चीन का वे अमेरिकी नेता ही बचाव करते नजर आते हैं। मसलन,
– स्कॉट बेसेंट कह चुके हैं कि यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद चीन ने रूस से तेल की खरीदारी उतनी नहीं बढ़ाई, जितनी भारत ने बढ़ाई है। बल्कि चीन तो अलग-अलग स्रोतों से तेल खरीदने की ओर बढ़ा है।
– अमेरिकी उप-राष्ट्रपति जेडी वान्स का ध्यान जब इस और दिलाया गया कि चीन भारत से अधिक तेल रूस से खरीदता है, तो उनका जवाब था कि चीन से अमेरिका का रिश्ता जटिल है। उन्होंने कहा कि चीन पर सख्त कदम का असर बहुत से दूसरे मामलों पर भी पड़ सकता है।
– ट्रंप के वरिष्ठ आर्थिक सलाहकार पीटर नेवारो ने तो यहां तक कह दिया कि अगर अमेरिका ने रूसी तेल की खरीदारी के मुद्दे को लेकर चीन पर टैरिफ लगाया, तो उसका नुकसान अमेरिका को भी हो सकता है।
(After India, Trump ‘thinking about’ tariffs on China over Russian oil imports: JD Vance – India Today)
इन बयानों का क्या अर्थ है? यही कि अमेरिका चीन को निशाना बनाने से डरता है, क्योंकि चीन उसे क्षति पहुंचाने की स्थिति में है। मगर भारत के बारे में उसकी राय है कि भारत ऐसा करने में सक्षम नहीं है। इसलिए उसने रूस पर सख्ती दिखाने के लिए भारत पर टैरिफ लगाया है!
इस घटनाक्रम ने अमेरिका- अथवा साझा पश्चिम- की निगाह में भारत को लेकर क्या सोच है, उसे सिरे से उजागर कर दिया है। इससे भारतीय प्रभु वर्ग का perplexed यानी अचंभित होना लाजिमी है। आखिर दशकों से भारतीय प्रभु वर्ग ने यह खामख्याली पाली कि पश्चिम उन्हें उनकी कामयाबियों की वजह से अहमियत देने पर मजबूर हुआ है और अब वे विश्व इलीट का हिस्सा हैं। एस। जयशंकर इस सोच का प्रतिनिधि चेहरा बने। उन्होंने मोदी सरकार की विदेश नीति को इस समझ पर आधारित किया। मगर ट्रंप ने एक झटके से ऐसे सारे भ्रम तोड़ दिए हैं।
तो अब सवाल आ खड़ा हुआ है कि क्या किया जाए? इस सवाल का सही उत्तर तभी ढूंढा जा सकता है, जब भारत सरकार, थिंक टैंक्स, बुद्धिजीवी वर्ग और मीडिया में नई परिस्थितियों की रोशनी में आत्म-मंथन हो। अपनी आर्थिक-सैनिक ताकत, सॉफ्ट पॉवर और नैतिक प्राथमिकताओं पर विचार-विमर्श किया जाए। उस आधार पर यह तय किया जाए कि दो गुटों में बंटती दुनिया में क्या यह जरूरी है कि भारत किसी एक के अधिक करीब जाए? या बेहतर विकल्प यह होगा कि अपने को वैश्विक शक्ति के रूप में पेश करने से पहले भारत अपनी आंतरिक शक्ति के निर्माण पर ध्यान दे?
दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में इस तरह के किसी आत्म-निरीक्षण का संकेत नहीं है। उलटे अमेरिका को यह दिखाने के लिए कि हमारे पास और भी विकल्प हैं, भारत ने अचानक चीन और रूस से निकटता बनानी शुरू कर दी है। ऐसा किसी सोच या रणनीति के तहत हो रहा है, ऐसा मानने की कोई ठोस वजह फिलहाल उपलब्ध नहीं है। अगर वैसा होता, तो सर्गेई लावरोव की उपस्थिति में जयशंकर वैसी बातें नहीं कहते, जो उन्होंने मास्को में कहीं। क्या उन बातों से लावरोव ने यह संदेश ग्रहण नहीं किया होगा कि रूस से रिश्ता भारत की प्राथमिकता नहीं है, बल्कि अमेरिका से ठुकराए जाने के बाद वह अपने रिश्तों का टैक्टिकल एडजस्टमेंट (फौरी समयोजन) कर रहा है?
चीन के सोशल मीडिया पर तो भारत के रुख परिवर्तन को ‘अवसरवादी’ बताया ही गया है। इसके बावजूद चीन सरकार ने भारत के प्रति उत्साह दिखाया है, तो उसे सिर्फ इस रूप में समझा जा सकता है कि वह बड़ी तस्वीर को ध्यान में रख रही है। उसकी निगाह में बड़ी तस्वीर अमेरिका से तीखी हो रही उसकी प्रतिस्पर्धा है। इसमें अमेरिकी खेमे में आई हर कमजोरी उसके लिए फायदे की बात है। चीन की निगाह में भारत-अमेरिका संबंधों का प्रेरक कारण चीन विरोध पर दोनों की सहमति थी। फिलहाल उस संबंध में दरार पड़ रही है, तो बड़ी तस्वीर में इससे चीन का फौरी मकसद सधता है। इसलिए दरार चौड़ी करने की प्रक्रिया में सहायक बनना उसकी स्वाभाविक प्राथमिकता होगी।
मगर मुद्दा यह है कि इससे भारत को क्या लाभ होगा? तात्कालिक तौर पर यह लाभ हो सकता है कि चीन के रेयर अर्थ खनिजों, उर्वरक, मैग्नेट आदि महत्वपूर्ण औदयोगिक इनपुट्स के निर्यात रोकने से भारत में जो दिक्कतें आई थीं, उससे राहत मिल सकती है। भारत में अधिक चीनी निवेश आ सकता है और भारतीय कंपनियों के लिए चीनी विशेषज्ञों की सेवाएं फिर प्राप्त हो सकती हैँ। इस दौर में चीन से लगी सीमा पर सैन्य दबाव घट सकता है। मगर ये तमाम राहतें फौरी हैं।
इससे उस व्यापक रणनीतिक समीकरणों में कोई बदलाव नहीं आएगा, जिसका प्रतीकात्मक नजारा हाल में देखने को मिला, जब चीन के विदेश मंत्री वांग यी “सद्भावपूर्ण” भारत यात्रा पूरी करने के तुरंत बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान गए। वहां जो बातें हुईं, अभी हाल तक उसको लेकर भारत में खूब शोर होता था। मगर अब भारत के प्रमुख अखबारों की संपादकीय टिप्पणियों में सलाह दी जाने लगी है कि भारत को ऐसी बातों को लेकर परेशान नहीं होना चाहिए! (Self-interest as foreign policy)।
फिर यह भी गौरतलब है कि चीन के सप्लाई चेन से जुड़ कर भारतीय उद्योग जगत भले कई तात्कालिक समस्याओं से राहत पा जाए, लेकिन उससे भारत की उत्पादन शृंखला संबंधी कमजोरियां कायम रहेंगी, जो दीर्घकाल में नुकसान का सौदा बन सकती हैं। मुद्दा यह है कि क्या भारत विश्व व्यवस्था, सुरक्षा और विकास के बारे में चीन के नजरिए में खुद को ढालने को तैयार है? अगर ऐसा नहीं है, तो फिर देर-सबेर कभी भी चीन से टकराव की स्थिति लौटेगी। वांग यी की यात्रा के दौरान ताइवान को लेकर भारत ने क्या कहा, उस मुद्दे पर जिस तरह का चीन का बयान आया, उसके संकेत को समझा जाना चाहिए।
इसीलिए यह आवश्यक है कि भारत अपनी ताकत तैयार करे। उसे अमेरिका या चीन के पीछे भागने की जरूरत नहीं है। विश्व मंच पर किसी देश की छवि उसके अपने हार्ड एवं सॉफ्ट पॉवर से बनती है। जो देश ऐसी ताकत नहीं बना पाते, वे ही इस या उस महाशक्ति का पिछलग्गू बनने के लिए अभिशप्त होते हैं। भारत ने अमेरिकी धुरी से जुड़ कर बड़ी ताकत बनने का भ्रम पालने का अंजाम अब देख लिया है। उससे प्रभु वर्ग फिलहाल perplexed है। जबकि उसे बदहवास होने की जरूरत नहीं है। जरूरत विकास संबंधी ठोस समझ विकसित करने की है। ऐसा नहीं किया गया, तो यह याद रखना चाहिए कि बार-बार perplexed होने की नौबत आती रहेगी।


