जो सल्तनत की हर अन्यायी नीति के कसीदे पढ़ने को अपनी तीर्थयात्रा समझ रहे हैं, उन्हें कौन बताए कि जनतंत्र के चौथे स्तंभ को वे किस कदर कलंकित कर रहे हैं? सुल्तान के गुनाह अपनी जगह। मगर सुल्तान से भी बड़े गुनाहगार वे हैं, जो रायसीना पर्वत के इशारे पर सुल्तान के गुनाहों का दिन-रात महिमामंडन कर रहे हैं। उन के पापों की चश्मदीद सूर्य की पहली किरण जिस दिन नए सूरज के गर्भ से निकलेगी, वह दिन क़यामत का होगा। कहते हैं, क़यामत के दिन सब के पापों का हिसाब होता है। तब तक चित्रगुप्त अपने बहीखाते में सब का हिसाब लिख रहे हैं।
सूर्य की पहली किरण के साथ ही रायसीना पर्वत के एक कमरे से देश भर के मीडिया संस्थानों की दिशा में उन संचार तरंगों का बहाव शुरू हो जाता है, जो उस दिन के अखिल विमर्श की शक़्ल तय करती हैं। एक बटन दबता है और सुल्तानी मंशा टीवी चैनलों और अख़बारों के दफ़्तरों में जा पसरती है। संवाद संप्रेषण के सारे महारथी हुकूमत की उस दिन की ख़्वाहिश का आटा अपने-अपने नमक-मिर्च-मसालों के साथ गूंथने में जुट जाते हैं।
सब एक-दूसरे से बढ़िया पेशबंदी करने के लिए हाड़तोड़-दिमागतोड़ मेहनत करते हैं। रात का चांद निकलते-निकलते रायसीना पर्वत का वही कमरा सभी के कार्य-संपादन का आकलन कर अलग-अलग सितारे उन की पगड़ी में जड़ता है। अगली सुबह फिर सूर्य की पहली किरण उगती है। अगली रात फिर चांद निकलता है। पिछले 11 बरस से हर रोज़ यह खेल बिला नागा चल रहा है।
हर रात घड़ी की सुइयां जब आपस में चुंबन लेती है, रायसीना पर्वत के इसी कमरे में वह सूची भी आकार लेती है, जिस में उस दिन की धारा के विपरीत अपनी तैराकी का हुनर दिखाने वालों के नाम-पते होते हैं। इस श्याम-सूची में दर्ज़ धारावाहिक-कसूरवारों को रेखांकित और नवजात हुक़्मउदूलियों को चिह्नित किया जाता है।
दोनों श्रेणियों के इनकलाबियों को निगाहबंदी के अलग-अलग क़ैदख़ानों में स्थानांतरित कर दिया जाता है। फिर उन पर साम-दाम-दंड-भेद के चाणक्यी प्रयोग किए जाते हैं। साथ-साथ यह अध्ययन होता रहता है कि उन का आचरण स्थिर है या उस में कोई बदलाव आ रहा है? और, अगर बदलाव आ रहा है तो वह सकारात्मक है या नकारात्मक? यह समीक्षा मीडिया मुगलों और उन के कारकूनों का भविष्य तय करती है।
मीडिया की गिरावट और सत्ता के चरणों में समर्पण की दास्तान
आज ख़बरों और बहसों का विषय वक़्फ़ होगा, आज मुर्शिदाबाद होगा, आज नेशनल हेरल्ड होगा, आज सुप्रीम कोर्ट होगा, आज राष्ट्रपति की गरिमा का झरना बहेगा और आज ज़िल्ल-ए-सुब्हानी के पराक्रम की लहरें उफ़ान लेंगी। आज शेयर बाज़ार के धड़ाम से गिरने पर कोई बात नहीं होगी, आज ट्रंप-टैरिफ से भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर को कालीन के नीचे सरकाना है, आज स्टार्टप, स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया की सामने आ गई नाकामियों को कुएं में फेंकना है।
आज यह करना है, कल यह करना है, परसों यह करना है। क्यों करना है, मत पूछिए। बस, करते रहिए। आप का काम करना है। हमारा काम आप को बताना है कि आप को आज क्या करना है। करते-करते आप की जड़मति एक दिन इतनी सुजान हो जाएगी कि आप हमारा चाहा अपने आप करते रहेंगे।
11 साल के अभ्यास से बहुतों की यह समझ परिष्कृत हो भी चुकी है कि क्या करना है। अब रायसीना पर्वत को उन्हें यह बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती है कि आज क्या करना है। सूर्य की पहली किरण के साथ वे ख़ुद ही पूरे ज़ोरशोर से अपने काम पर लग जाते हैं। अब तो वे रायसीना पर्वत तक को यह मशवरा देने की योग्यता हासिल कर चुके हैं कि आज क्या करना-कराना ठीक रहेगा।
चाय से भी ज़्यादा गर्म केतलियां जब ख़ुद-ब-ख़ुद मौजूद हैं तो रायसीना पर्वत को बहुत मगज़पच्ची क्या करनी? मीडिया मंचों के नट-नटनियां जब अपने आप ही ज़ोर-ज़ोर से ठुमके लगा कर अपनी कमर तोड़ रहे हों तो आधी झंझट तो वैसे ही ख़त्म। बचे-खुचे बुद्धिहीन तन चुटकी बजाते ही कतार में खड़े हो ही जाते हैं।
पहले किसी बाज़ीगर का इतना कारगर तमाशा देखने को कहां मिलता था? बड़े-बड़े आए और चले गए, मगर हाथ की ऐसी सफाई क्या आप ने पहले कभी देखी थी? एक-से-एक सूरमा आए और चले गए, मगर ऐसी सम्मोहन कला क्या आप ने पहले किसी में देखी थी? तो अब हुआ क्या है? क्या जंबू द्वीप के भरत-खंड पर उन सब से बड़ा कलाकार राज कर रहा है? क्या वह अब तक का सब से महान लोक-नायक है? या दरअसल हमारा लोक पहले से बहुत बौना हो गया है? मुझे लगता है कि दस-ग्यारह साल से भारतीय जन-मन छुटभैयेपन की इतनी रपटीली ढलान पर लुढ़क रहा है कि उसे हर चीज़ बेहद लहीम-शहीम, दिव्य और भव्य नज़र आने लगी है।
अपनी कृशकाय सोच के सामने उसे सब-कुछ महाकाय लगने लगा है। वह औसतहीन व्यक्तित्वों में भी अपने आराध्य के दर्शन करने लगा है। सिर पर पड़ी हर तरह की मूसलों ने एक ऐसा तुच्छता-भाव जन-मन में भर दिया है कि भारतवासियों का एक बड़ा वर्ग संकरे गलियारों में भी अपने को विराटता के अहसास से सराबोर महसूस करने लगा है।
समाचार संप्रेषण का हमारा संसार आजकल सोच-विचार के बेहद ठिगने लग्गूभग्गुओं के चंगुल में चला गया है। क्या अब से एक दशक पहले आप यह कल्पना भी कर सकते थे कि कलमवीर कहे जाने वाले पुरोधा किसी सत्ता व्यवस्था के सामने इस तरह गिलगिल करते खड़े मिलेंगे? हुकूमत के आगे दुम-हिलाई के ऐसे दृष्य दस बरस पहले अलभ्य थे। मीडिया की दुनिया में तरह-तरह के प्राणियों की मौजूदगी हमेशा रही है। मगर जैसी सांगठनिक, जैसी व्यापक और जैसी घिनौनी शक़्ल उस की आज है, साढ़े चार दशक के अपने पत्रकारीय जीवन में मैं ने तो कभी नहीं देखी।
हमारे दौर के मीडिया जगत में ऐसे लोग इक्कादुक्का ही हुआ करते थे, जिन के लिए दल्ला-वल्ला जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा सके। मगर मौजूदा अमृतकाल के मीडिया मंच पर तो, लगता है जैसे, भड़वाई की डाल-डाल पर पात-पात बनने की होड़ लगी है।
ऐसे में काहे के तो समाचार, काहे के विचार और काहे का विमर्श? समाज को ज़बह करने वाले क़साइयों की करतूतों का नतीजा है कि धु्रवीकरण की लगातार तेज़ होती जा रही धार ने मीडिया-समाज को दो स्पष्ट धड़ों में बांट दिया है। दोनों धड़े एक-दूसरे के खि़लाफ़ अपशब्दों के अग्निबाण बरसा रहे हैं। जो सही-ग़लत की परवाह किए बिना सुल्तान के चरण पखार रहे हैं, वे भारतमाता के भाल पर कलंक हैं। जो सल्तनत की हर अन्यायी नीति के कसीदे पढ़ने को अपनी तीर्थयात्रा समझ रहे हैं, उन्हें कौन बताए कि जनतंत्र के चौथे स्तंभ को वे किस कदर कलंकित कर रहे हैं? सुल्तान के गुनाह अपनी जगह।
मगर सुल्तान से भी बड़े गुनाहगार वे हैं, जो रायसीना पर्वत के इशारे पर सुल्तान के गुनाहों का दिन-रात महिमामंडन कर रहे हैं। उन के पापों की चश्मदीद सूर्य की पहली किरण जिस दिन नए सूरज के गर्भ से निकलेगी, वह दिन क़यामत का होगा। कहते हैं, क़यामत के दिन सब के पापों का हिसाब होता है। तब तक चित्रगुप्त अपने बहीखाते में सब का हिसाब लिख रहे हैं।
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