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‘कांतारा चैप्टर 1’: शिल्प और सिनेमाई साधना की गाथा

पिछले लगभग एक दशक से दक्षिण की फ़िल्मों ने भारतीय कहानी कहने की परंपरा को नए आयाम दिए हैं। आज के ‘सिने-सोहबत’ में हाल ही में आई फ़िल्म ‘कांतारा चैप्टर 1’ के माध्यम से उस तत्व की भी पड़ताल करते हैं। मेरे ख़्याल से वो बात है अपनी कहानी में ‘कन्विक्शन’ की। दक्षिण की फिल्मों में अपनी कहानियों को लेकर जिस तरह का विश्वास दिखता है वो अद्वितीय है। साथ ही अपनी कहानियों के मर्म के साथ उन्हें कैनवास पर उतारने की उनकी तकनीकी दक्षता।

निर्देशक और अभिनेता रिषभ शेट्टी ने इस फिल्म से यह सिद्ध कर दिया है कि जब विषय में आस्था और शिल्प में अनुशासन एक साथ जुड़ते हैं, तो सिनेमा साधना का रूप ले लेता है। ‘कांतारा चैप्टर 1’ अपने आप में एक प्रिक्वल है, जो हमें उस युग में ले जाती है जब देवता और मनुष्य के बीच संवाद प्रत्यक्ष हुआ करते थे। फिल्म की कहानी एक ऐसे राजा से शुरू होती है, जो अपने राज्य के प्रति समर्पित तो है, परंतु धीरे-धीरे सत्ता का अहंकार उसे अंधा कर देता है। देवता की भूमि, उनके भक्त और राजसत्ता के टकराव से शुरू होती यह कहानी, श्रद्धा और शाप, आस्था और लालच, संतुलन और अहंकार के संघर्ष में परिवर्तित हो जाती है। कहानी का मूल भाव यही है कि जब मनुष्य प्रकृति और दिव्यता के संतुलन को भंग करता है, तब सृष्टि स्वयं उसे दंड देती है।

रिषभ शेट्टी का नाम आज उस फिल्मकार के रूप में जाना जाता है, जो लोककथा, आध्यात्म और सिनेमा की तकनीक को अद्भुत संतुलन में प्रस्तुत करते हैं। उनकी फिल्मों में किसी ट्रेंड या ग्लैमर की चकाचौंध नहीं, बल्कि अपने मूल्यों के प्रति गहरी निष्ठा दिखाई देती है। ‘कांतारा चैप्टर 1’ इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। इस फ़िल्म में हर फ्रेम एक प्रार्थना की तरह प्रतीत होता है। रिषभ का कैमरा सिर्फ दृश्य नहीं रचता, बल्कि संस्कृति को जीवंत करता है।

जंगलों की हरियाली, अग्नि की आभा, और नृत्य के माध्यम से उठती भक्ति की लहर, यह सब मिलकर दर्शक को एक अलौकिक संसार में ले जाती है। उनकी निर्देशन शैली यह सिखाती है कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि संवेदना की साधना भी हो सकता है। मुख्य भूमिका में स्वयं रिषभ शेट्टी हैं और कहना होगा कि उन्होंने इस किरदार को केवल निभाया नहीं, बख़ूबी जिया है। उनके चेहरे के भाव, आंखों की चमक और संवादों का ठहराव इस बात का प्रमाण हैं कि यह प्रदर्शन आत्मा से उपजा है। कई दृश्यों में तो वे देवता और मानव के बीच की रेखा मिटा देते हैं और दर्शक के सामने सिर्फ ‘ऊर्जा’ बचती है, जो भीतर तक झकझोर देती है। उनका यह रूप भारतीय सिनेमा में दुर्लभ है, जहां कलाकार अपनी श्रद्धा को अभिनय का माध्यम बना लेता है।

फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती है इसका महिला प्रधान किरदार, जिसे निभाया है रुक्मिणी वसंत ने। उनकी उपस्थिति फिल्म के भावनात्मक संतुलन को संभालती है। जहां रिषभ शेट्टी का पात्र आग की तरह प्रखर है, वहीं रुक्मिणी जल की तरह शांत और गहरी हैं। उनका किरदार धरती और देवत्व के बीच की कड़ी बनता है।

वे श्रद्धा, प्रेम और प्रकृति के प्रति संवेदना की प्रतीक हैं। उनकी अदाकारी में बनावटीपन नहीं, बल्कि सादगी की सुंदरता है। हर दृश्य में वे यह साबित करती हैं कि स्त्री इस कथा में सिर्फ प्रेमिका या दर्शक नहीं, बल्कि दिव्यता की संवाहक शक्ति हैं। रुक्मिणी की आंखों में एक आंतरिक संवाद है, जो शब्दों से नहीं, भावनाओं से व्यक्त होता है। उनका यह प्रदर्शन न सिर्फ कहानी को गहराई देता है, बल्कि फिल्म के आध्यात्मिक आयाम को और भी मजबूत करता है।

संगीतकार अजनीश लोकनाथ ने इस बार भी फिल्म की आत्मा को सुरों में बांधा है। ढोल, नगाड़े, और लोक वाद्यों का संगम दर्शक को उसी लोकभूमि में पहुंचा देता है जहां यह कथा जन्मी है। विशेष रूप से क्लाइमेक्स में संगीत, कैमरा और अभिनय का संगम एक दिव्य अनुभव रचता है। कुछ क्षण तो ऐसे भी आ जाते हैं जब दर्शक कुछ पल के लिए सांस लेना भूल जाता है। साउंड अरेंजमेंट भी ऐसा कि  भारतीय लोकसंगीत और आधुनिक तकनीक के बीच एक अद्भुत सेतु बनाता है।

फिल्म की सिनेमैटोग्राफी अत्यंत प्रभावशाली है। हर फ्रेम प्रकृति के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। रंगों का चुनाव, प्रकाश की तीव्रता और कैमरे की गति, सभी फिल्म के आध्यात्मिक मूड को गहराई से प्रकट करते हैं। यहां प्रकृति सिर्फ पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि एक जीवंत चरित्र है। मिट्टी, जल, अग्नि, और आकाश, सभी का प्रतीकात्मक प्रयोग रिषभ शेट्टी के सौंदर्यबोध को दर्शाता है।

‘कांतारा चैप्टर 1’ के माध्यम से यह एक बार फिर स्पष्ट हुआ है कि दक्षिण भारतीय सिनेमा की असली ताकत उसका विश्वास और सच्चाई के प्रति समर्पण है। यहां के फिल्मकार अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं, वे कहानी को बाजार की शर्तों पर नहीं, बल्कि आत्मा की जरूरतों पर रचते हैं। रिषभ शेट्टी उसी परंपरा के अग्रणी हैं। उनके भीतर वह निडरता है जो कहानियों को पौराणिक होने से पहले मानवीय बनाती है। वे सिनेमा को न तो उपदेश का माध्यम बनाते हैं, न ही शुद्ध मनोरंजन का, बल्कि इसे अंतर्दर्शन का साधन बना देते हैं। उनकी यह दृढ़ता और आस्था ही फिल्म की असली शक्ति है।

फिल्म यह प्रश्न उठाती है कि क्या मनुष्य अपनी जड़ों से कटकर सच में आगे बढ़ सकता है? क्या विकास और श्रद्धा साथ साथ चल सकते हैं? ‘कांतारा चैप्टर 1’ इन प्रश्नों के उत्तर किसी संवाद से नहीं, बल्कि अपने अनुभव से देती है।

यह हमें याद दिलाती है कि प्रकृति, देवत्व और मानवता एक ही धागे से बंधे हैं। जब भी यह धागा टूटता है, तब संतुलन बिगड़ता है।

‘कांतारा चैप्टर 1’ भारतीय सिनेमा की उस दुर्लभ फिल्म है जो न केवल मनोरंजन करती है, बल्कि आत्मा को छू जाती है। यह श्रद्धा, परंपरा और आधुनिक फिल्म निर्माण का ऐसा संगम है जो लंबे समय तक याद रखा जाएगा।

रिषभ शेट्टी और उनकी टीम ने यह सिद्ध कर दिया है कि सिनेमा की सच्ची भव्यता तकनीक में नहीं, विश्वास में निहित होती है। साथ ही रुक्मिणी वसंत ने यह दिखाया है कि स्त्री की उपस्थिति जब संवेदना से भरी हो, तो वह किसी भी कथा को दिव्यता में रूपांतरित कर सकती है। अगर आप पौराणिक लोककथाओं पर बनी एक भव्य फ़िल्म देखना चाहते हों तो ‘कांतारा चैप्टर 1’ आपके लिए एक सटीक फ़िल्म है। नज़दीक़ी सिनेमाघर में है। देख लीजिएगा।   (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़” के होस्ट हैं।)

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