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जरूरी है इस्लाम के ‘जिहाद’ और ‘जुल्म’ को जानना

उर्दू

जिहाद हिंसक और अहिंसक दोनों तरह का हो सकता है। परन्तु हिंसा, मौखिक और शारीरिक दोनों ही उस का प्रमुख औजार रहा है। बिना जिहाद और हिंसा के मुहम्मद पूरी तरह विफल रहते हुए गुजर गये होते। मुहम्मद का सब से बड़ा आविष्कार जिहाद था। यही बाद में, मदीना से उन के सफल होने का कारण था।

मौलाना मदनी का जिहाद

जिहाद का सिद्धांत राजनीतिक इस्लाम की बुनियाद है। यह मानवता को दो हिस्से में बाँटकर देखता है — इस्लाम मानने वाले, और नहीं मानने वाले। इसी से उस सिद्धांत की दोहरी नैतिकता बनती है। यानी, हर बात में दो तरह के पैमाने रखना। मुस्लिम के साथ एक व्यवहार, और काफिरों के साथ दूसरा। इसी से ‘दारुल-इस्लाम’ (जहाँ मुस्लिमों का शासन है) और ‘दारुल-हरब’ (जहाँ गैर-मुस्लिमों का शासन है) की धारणा बनी है।

यह दोहरी नैतिकता राजनीतिक इस्लाम के तीनों मूल स्त्रोत, यानी कुरान, हदीस, और सीरा में असंख्य बार दुहरा कर बताई गई है। मुहम्मद ने यहूदियों को कहा था कि सारी दुनिया केवल मुसलमानों के लिए है। इसलिए, यहूदी अपनी जान बचाने को इस्लाम कबूल करें। मुहम्मद के शब्द थे: ‘‘तुम सुरक्षित रहोगे, अगर इस्लाम कबूल कर लो। यह पूरी दुनिया अल्लाह की और मेरी है।’’ (सहीह बुखारी, 4:53:392)।

यह दावा ही राजनीतिक इस्लाम है: सारी दुनिया केवल अल्लाह और मुसलमानों के लिए। जो इसे न माने और श्रीकृष्ण या भगवती की प्रतिमा-पूजा करे, अथवा गौतम बुद्ध या गुरु नानक की भक्ति करे — वह ‘बुतपरस्ती’ और ‘शिर्क’ का ‘जुल्म’ कर रहा है। उस ‘जुल्म’ को खत्म करने, और ‘पूरी दुनिया अल्लाह और मुहम्मद की’ बना देने की गतिविधि जिहाद है।

सो, तमाम गैर-मुस्लिम इलाके ‘दारुल-हरब’ यानी युद्ध की जगह है। वह ‘पवित्र युद्ध’ लड़ना जिहाद है, जिस का घोषित लक्ष्य है: सारी दुनिया को इस्लामी बनाना। इसीलिए मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों का मिल कर रहना खारिज है। वैसा होना केवल तात्कालिक लाचारी, सो सदैव अस्थायी है। यह लाचारी ही शान्ति में दिखाई पड़ती है। चाहे वह दीर्घकालिक क्यों न रहे। परन्तु जिहाद तब भी क्रियाशील रहता है। क्योंकि जिहाद केवल हिंसा नहीं है।

इतिहास को झुठलाने की माँग; सड़क, हवाई जहाज में जगह घेर नमाज पढ़ना; मस्जिद के सामने से रामनवमी जुलूस निकालने पर आपत्ति; या स्वीमिंग-पूल में मुस्लिमों के लिए अलग स्थान सुरक्षित करने की माँग; राष्ट्र-गान गाने से इन्कार; किसी मुस्लिम का गैर-मुस्लिम से विवाह की स्थिति में उसे मुस्लिम बनने के लिए मजबूर करना; होटल, रेस्टोरेंट में हलाल भोजन की माँग करना; राष्ट्रीय कानूनों को उपेक्षित कर इस्लामी ‘पर्सनल लॉ’ और शरीयत से मामले तय करने की माँग करना; आदि — इस तरह क्रमशः पूरे समाज पर शरीयत लादने, थोपने जाने तक, जिहाद के असंख्य शान्तिपूर्ण रूप हैं। जिन का उद्देश्य वही है जो सीरियल-बम ब्लास्ट का। यानी, इस्लाम को फैलाना और दूसरों को हटाना। क्रमश: और एकाएक, जब जैसे जितना संभव हो।

इस प्रकार, जिहाद एक सर्वमुखी सतत युद्ध है। इस का शाब्दिक अर्थ है, संघर्ष या प्रयास। इस्लाम में दो प्रकार के जिहाद बताए गए हैं – ‘छोटा’ और ‘बड़ा’। बड़ा जिहाद है आत्म-सुधार। जैसे, लोभ नियंत्रित करना, धूम्रपान छोड़ देना, आदि। लेकिन, ‘बड़ा जिहाद’ किसी प्रमाणिक हदीस (मुहम्मद के कथन) में शायद ही मिलता है। सहीह बुखारी में जिहाद संबंधी लगभग दो प्रतिशत हदीस कुछ कामों को जिहाद के बराबर बताते हैं। किन्तु बाकी अनठानबे प्रतिशत हदीस हथियारबंद हिंसा से संबंधित हैं।

मुहम्मद की जीवनी और कुरान में भी ‘जिहाद’ शब्द का प्रयोग लगभग सभी उल्लेखों में हथियारबंद लड़ाई के रूप में है। कुरान (9:111) के अनुसार जिहाद का अर्थ है: ‘अल्लाह के काम’ के लिए ‘कत्ल करना और कत्ल होना’। एकाध अपवाद छोड़ सभी आयतें यही कहती हैं। कुरान का पूरा 9वाँ अध्याय जिहाद पर केंद्रित है। उस का शीर्षक ‘अल-बारा’ भी युद्ध-घोषणा अर्थ में है। वह युद्ध मूर्तिपूजकों और अन्य धर्म मानने वालों के विरुद्ध है। उस की 9:5, 9:29‌, 9:41, 9:73, 9:123, आदि आयतें आक्रामक युद्ध के आवाहन हैं।‌ कुरान के दूसरे अध्याय में भी अनेक आयतें ऐसी है। इन आयतों के अर्थ में किसी संदेह की गुंजाइश नहीं। यह गैर-मुस्लिमों को अधीन करने और उन्हें मुस्लिम बनने या अपमानित होकर जजिया देने के लिए मजबूर करने के खुले आवाहन हैं। पूरे अध्याय में ‘हथियारबंद लड़ाई’ और ‘जिहाद’ समानार्थी जैसे दिखते हैं। यही सदियों के इस्लामी इतिहास से भी स्थापित है। अतः ‘इस्लामी जिहाद’ या ‘जैशे मुहम्मद’ जैसे संगठनों के कामों को जिहाद से अलग करके दिखाना असंभव है।

वस्तुतः हथियारबंद जिहाद ने ही इस्लाम को सदियों से सारी सफलता दी है। भारत के विगत हजार वर्ष में इसे असंख्य बार होता देख सकते हैं। मुहम्मद बिन कासिम के सिंध पर हमले से लेकर से लेकर मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’, पाकिस्तान बनने और कश्मीर से हिन्दुओं के सफाए तक – यदि कोई शब्द और कर्म समान मिलता है तो वह है: ‘जिहाद’ और हिंसा।

इस्लामी इतिहास भी दिखाता है कि इस्लाम की राजनीति पूरी तरह जिहाद पर आधारित है। जिहाद हिंसक और अहिंसक दोनों तरह का हो सकता है। परन्तु हिंसा, मौखिक और शारीरिक दोनों ही उस का प्रमुख औजार रहा है। बिना जिहाद और हिंसा के मुहम्मद पूरी तरह विफल रहते हुए गुजर गये होते।

मुहम्मद का सब से बड़ा आविष्कार जिहाद था। यही बाद में, मदीना से उन के सफल होने का कारण था। उस से पहले मक्का में रहते हुए उन्होंने दस वर्ष तक केवल अपनी बातों का प्रचार किया तो विफल रहे थे। उन दस वर्ष में उन्हें मात्र डेढ़ सौ अनुयायी मिले। पर जब उन्होंने हथियारबंद दस्ता बनाकर व्यापारी कारवाँओं पर हमले शुरु किए, उन से लूटा माल अपने अनुयायियों को बाँटना शुरू किया — तभी उन के अनुयायियों में वृद्धि होने लगी। यही इस्लाम के विस्तार का आरंभ था‌। अगले वर्षों में उन्होंने इसे बारं-बार अपनी कार्रवाइयों और संदेशों (कुरान की आयतों) से पुष्ट किया। यह सब मुहम्मद की जीवनी में शीशे की तरह साफ झलकता है।

जिहाद के सिद्धांत का व्यवस्थित निरुपण और व्यवहार तीनों मूल इस्लामी किताबों में है। कुरान राजनीतिक इस्लाम का अधिकार-पत्र (मेनिफेस्टो) और दृष्टिकोण (विजन) जैसा है। सीरा इस्लाम की जीत की रणनीति (स्ट्रेटेजिक मैनुअल) देती है। हदीस जिहाद करने की तफसीलें, छोटे-बड़े तकनीकी उपायों की निर्देशिका (टैक्टिकल मैनुअल) जैसा है। यह तीनों किताबें कुल मिलाकर आधे से अधिक केवल काफिरों पर केंद्रित है। सो, काफिरों को हराने, मिटाने की गतिविधि ही जिहाद है, जो हिंसक और अहिंसक, सीधे और छल-कपट के साथ, दोनों रूपों में चल सकती है।

लेकिन जिन काफिरों को आत्मरक्षा की फिक्र करनी चाहिए वे उलटे मुसलमानों की ‘असुरक्षा’, आदि की बात करके अपने ही विरुद्ध जिहाद को बल पँहुचाते हैं। हर ऐसे बयान पर कह उठते हैं, ‘यह मौलाना लोगों को बाँटता है।’ या ‘यह सच्चा जिहाद नहीं है’। यह काफिरों के बीच सब से प्रचलित वैचारिक फैशन है। इस्लाम से संबंधित अप्रिय बातों की अनदेखी करना। जैसे, हाल में एक बड़े आर.एस.एस. नेता ने कहा कि ‘दंगों को तूल नहीं देना चाहिए’। यानी, जिहाद द्वारा कश्मीर की तरह जगह-जगह मुहल्ले, कॉलोनियों से हिन्दुओं का सफाया और विस्थापन होता रहे, तो उसे ‘तूल’ नहीं देना चाहिए!

वस्तुतः ‘यह सच्चा जिहाद नहीं’ वाली तर्क-प्रणाली का विकास काफिरों की एकहरी नैतिकता, शान्ति की चाह, और इस्लाम के प्रति अज्ञान का उपयोग करके किया गया है। इसलिए कहता है कि कुरान में दिखती ‘बुरी बातें’ उस की गलत व्याख्या हैं। मदनी को गलत, मगर जिहाद को सही कहना उसी का रूप है। भाजपा नेता अभी यही कर रहे हैं। किन्तु सब को समझ लेना होगा कि इस्लाम उस एक चीज – हिंसा, धमकी, शिकायत, हुज्जत – को कभी नहीं छोड़ेगा, जिस से उसे आज तक सारी सफलता मिली!

राजनीतिक इस्लाम की सारी सफलता सब से समर्पण की माँग, दोहरी नैतिकता, और हिंसा पर आधारित है। बेचारा काफिर जो बदलना चाहता है वह यही चीज है – हिंसा, दबाव, धमकी, हुज्जत, और राजनीति। जबकि काफिर से समर्पण की माँग करना और हिंसा करना, मारने-मरने के लिए तैयार रहना, यही इस्लाम की सफलता का गुर रहा है।

अतः हिंसा, दबाव, हुज्जत, और माँगें कभी नहीं रुकने वाली, क्योंकि वह चौदह सदियों से काम कर रही हैं। भारत में ही मदनी का बयान और उस पर तमाम हिन्दू नेताओं की प्रतिक्रिया या चुप्पी देख लीजिए। सुप्रीम कोर्ट पर धौंस, और जिहाद की ठसक दिखाने वाले मदनी के बयान पर सब की चुप्पी क्या है? किसी हिन्दू ‘पप्पू’ पर शेर बनने वाले भाजपा नेता राष्ट्रगान को ठेंगा दिखाने, और जिहाद की ‘पवित्रता’ की धमकी देने वाले मौलाना पर भीगी बिल्ली बन जाते हैं!

ऐसे अयाने रुख से जिहाद को प्रोत्साहन मिलता रहता है। भारत में सर्वोच्च से नीचे तक, शिक्षा की संपूर्ण पाठ्य सामग्री दिखाती है कि राजनीतिक इस्लाम के बारे में मोटी बातें भी नहीं पढ़ाई जातीं। यहाँ विगत हजार साल में जिहाद द्वारा बहाए गया खून और आँसुओं का कोई उल्लेख नहीं होता। वह पूरा इतिहास गायब रखा जाता है जिस में, एक आकलन के अनुसार आज तक कम से कम बारह करोड़ हिन्दुओं (काफिरों) का खात्मा किया गया। नोट करें: उस विराट् उत्पीड़न की कोई मौलाना कभी जिम्मेदारी नहीं लेते, न उन भयावह तथ्यों को मानते हैं। जबकि यह सब तफसीलें मुस्लिम तारीखनवीसों की लिखी तारीख में ही विस्तार से दर्ज हैं।

इस प्रकार, जिहाद के सिद्धांत और इतिहास से नई पीढ़ियों को पूरी तरह अनजान रख कर हिन्दू नेता उन्हें आसान शिकार बनने के लिए छोड़ते रहे हैं। किसी तरह शान्ति की अपनी लालसा में राजनीतिक इस्लाम की भूख बढ़ाते जाते हैं। आखिर, हिन्दू नेताओं ने इसी लालसा से मार्च 1947 में देश का विभाजन स्वीकार किया था। तब क्या परिणाम हुआ? यही कि इस्लाम और भी प्रबल, तीनतरफा शक्तिशाली होकर अंदर-बाहर से चोट करने लगा।

सो, काफिरों को यदि बचना है, तो अपनी गफलत खत्म करनी होगी। उन की मुख्य बाधा है: इस्लाम के बारे में अज्ञान। उसी का उपयोग करके इस्लाम बढ़ता गया है। अतः काफिरों को इस्लामी सिद्धांत एवं इतिहास को जानना होगा। क्या मदनी की ‘पवित्र’ शिकायत के बाद हिन्दू कर्णधार इस विषय को शिक्षा में स्थान देंगे? ताकि कम से कम इतिहास, राजनीति और साहित्य के विद्यार्थी इस्लाम के तीनों मूल‌ स्त्रोतों से ‘जिहाद’ और ‘जुल्म’ के बारे में सही जानकारी पा सकें? (समाप्त- इसका पहला भाग सोमवार को प्रकाशित हुआ था)

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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