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जेल जो जाए वह तो नहीं रहे पद पर

गंभीर आरोप से लांछित होकर जेल जाने पर संबंधित मंत्री-मुख्यमंत्री का अपने पद से त्यागपत्र देना राजनीतिक शुचिता के लिए महत्वपूर्ण है। यह प्रशासनिक विश्वसनीयता के लिए भी जरूरी है। जेल विभिन्न श्रेणी के पुलिस पदाधिकारियों के अधीन होता है। जब कोई नेता जेल में होते हुए मंत्रिपद पर बना रहे और सरकार चलाता रहे, तब वह किस नैतिक आधार पर अधिकारियों का मार्गदर्शन कर सकता है?

हाल में मोदी सरकार ने संसद में एक महत्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत किया। इसके प्रावधानों के अनुसार यदि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री 30 दिन से अधिक समय तक जेल में रहते हैं, तो उन्हें पद छोड़ना अनिवार्य होगा। विपक्ष इसे राजनीतिक साजिश बताकर विरोध कर रहा है और आशंका जता रहा है कि इसका दुरुपयोग हो सकता है। किंतु प्रश्न यह है कि दुनिया में ऐसे कौन-सा कानून या संवैधानिक संस्था है, जिसके दुरुपयोग की संभावना से पूर्णतः इनकार किया जा सके? महिलाओं के प्रति अपराध एक गंभीर सामाजिक वास्तविकता है। परंतु दहेज उत्पीड़न अथवा यौन-शोषण से संबंधित कानूनों के दुरुपयोग की शिकायतें भी समय-समय पर सामने आती रहती हैं। पुलिस को मिले अधिकारों का भी निर्दोष नागरिकों के खिलाफ बेजा इस्तेमाल होता है। क्या केवल ऐसे उदाहरणों के आधार पर इन कानूनों और संस्थाओं को समाप्त या निष्प्रभावी करना उचित होगा?

आखिर 130वें संविधान संशोधन की जरूरत क्यों पड़ी? ऐसा इसलिए, क्योंकि भारतीय राजनीति में कई नेताओं का आचरण पिछले दशकों की तुलना में निचले स्तर पर आ चुका है। संविधान-निर्माताओं ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि गंभीर अपराधों के आरोपी मंत्री-मुख्यमंत्री जेल जाने के बाद भी बेशर्मी से कुर्सी से चिपके रहेंगे और सलाखों के पीछे से सरकार चलाएंगे। इस रूग्ण मानसिकता ने राजनीति में प्रवेश तब किया, जब पिछले साल दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के कर्ताधर्ता अरविंद केजरीवाल शराब घोटाले में गिरफ्तार हुए।

वे पूरे 156 दिन जेल में रहे, लेकिन पद नहीं छोड़ा और सीमित अधिकारों के साथ जेल से सरकार चलाते रहे। यही हाल उनके अन्य मंत्रिमंडलीय सहयोगी मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन का भी रहा, जो वित्तीय गड़बड़ियों के आरोप में कई महीने जेल में रहे। विडंबना देखिए— अपनी शुरुआती राजनीति में केवल आरोप लगाने पर दूसरों से इस्तीफा मांगने वाले केजरीवाल, जिन्हें अपने कई झूठे आरोपों के लिए बाद में माफी तक मांगनी पड़ी— वे खुद गिरफ्तारी के पांच महीने बाद तक मुख्यमंत्री पद से चिपके रहे।

मुझे वह दौर याद आता है, जब राजनीति में शुचिता-नैतिकता का महत्व था। 1990 के दशक में विपक्ष में रहते हुए जैन हवाला मामले में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम आया। उन्होंने 1996 में लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देकर ऐलान किया कि निर्दोष साबित होने तक संसद नहीं जाएंगे। जब अदालत ने उन्हें बेदाग पाया, तब उन्होंने 1998 से चुनावी राजनीति में वापसी की। इसी तरह देश के मौजूदा गृहमंत्री अमित शाह ने भी गुजरात के गृहमंत्री रहते हुए एक मामले में गिरफ्तारी (2010) से पहले मंत्रिपद त्याग दिया और निर्दोष साबित होने तक किसी पद को स्वीकार नहीं किया। लेकिन दूसरी ओर, केजरीवाल आज भी निर्लज्जता के साथ यह कहने में संकोच नहीं करते कि उन्होंने जेल से सरकार चलाई।

केजरीवाल का कुतर्क है कि अगर वे तब इस्तीफा दे देते, तो पार्टी टूट सकती थी या सरकार गिर सकती थी। लेकिन यह दलील भी खोखली साबित होती है। उदाहरण के लिए, जनवरी 2024 में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भूमि घोटाले में गिरफ्तार हुए। उन्होंने इस कार्रवाई से पहले ही पद छोड़कर चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री बना दिया। जेल से बाहर आने के कुछ दिन बाद वे फिर से मुख्यमंत्री बने और उसी साल चुनाव जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल किया।

इसी तरह 1997 में चारा घोटाले में आरोपी बनने के बाद आरजेडी मुखिया लालू प्रसाद यादव ने बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंप दी और 2000 के विधानसभा चुनाव में फिर से जीत दर्ज की। इसके उलट, केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन की ‘जेल-सरकार’ की जिद और उनकी कथनी-करनी में भारी अंतर ने इस वर्ष दिल्ली विधानसभा चुनाव में न सिर्फ उनकी हार सुनिश्चित की, बल्कि उनकी पार्टी की नाव भी डुबो दी।

इसी हालिया संविधान 130वां संशोधन विधेयक पर कांग्रेस का विरोध काफी दिलचस्प है। जैसे आज प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्रियों को पद से हटाने का कोई सीधा संवैधानिक प्रावधान नहीं है, वैसे ही 2013 से पहले तक सांसदों-विधायकों को दोषसिद्धि के बाद तत्काल अयोग्य ठहराने का भी कोई स्पष्ट नियम मौजूद नहीं था। यह व्यवस्था सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2013 के एक ऐतिहासिक फैसले— लिली थॉमस बनाम भारत संघ— के बाद अस्तित्व में आई। इसमें न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की उस धारा 8(4) को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जो दोषी ठहराए गए सांसदों-विधायकों को सजा मिलने के बावजूद उन्हें जनप्रतिनिधि बने रहने और तीन महीने के भीतर पुनर्विचार दायर करने की सुविधा देती थी। अदालत ने इसे रद्द करते हुए फैसला दिया कि दोषसिद्धि के साथ ही सदस्यता स्वतः समाप्त मानी जाएगी।

तब तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार इस अदालती फैसले की काट में एक अध्यादेश ले आई, ताकि दोषी जनप्रतिनिधियों की सदस्यता बचाई जा सके। लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेता और वर्तमान में लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी ने उस अध्यादेश को “बकवास” कहकर “कूड़ेदान” में फेंकने लायक बता दिया। नतीजा यह हुआ कि यूपीए सरकार अपमानित होकर अपना अध्यादेश वापस लेने पर मजबूर हो गई। विडंबना देखिए, इसी अलोकतांत्रिक घटनाक्रम की वजह से जब साल 2023 में मानहानि के एक मामले में निचली अदालत से राहुल दोषी ठहराए गए, तब उनकी लोकसभा सदस्यता तुरंत समाप्त हो गई। बाद में ऊपरी अदालत से राहत मिलने के बाद ही उनकी सदस्यता बहाल हो सकी।

गंभीर आरोप से लांछित होकर जेल जाने पर संबंधित मंत्री-मुख्यमंत्री का अपने पद से त्यागपत्र देना राजनीतिक शुचिता के लिए महत्वपूर्ण है। यह प्रशासनिक विश्वसनीयता के लिए भी जरूरी है। जेल विभिन्न श्रेणी के पुलिस पदाधिकारियों के अधीन होता है। जब कोई नेता जेल में होते हुए मंत्रिपद पर बना रहे और सरकार चलाता रहे, तब वह किस नैतिक आधार पर अधिकारियों का मार्गदर्शन कर सकता है? क्या वे उस आरोपी मंत्री-मुख्यमंत्री का सम्मान कर पाएंगे? उस स्थिति में कार्यपालिका का पंगु होना स्वाभाविक है। चुनी हुई सरकार का मूल उद्देश्य जनसेवा है, यदि उसमें किसी भी प्रकार की बाधा आए, उसे दूर करना आवश्यक है।

By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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