विवाह अब यज्ञ-वेदी के चारों तरफ़ घूम कर नहीं, प्री-वेडिंग, वेडिंग और पोस्ट-वेडिंग के कैमरा-केंद्रित चोंचलों के मंच पर संपन्न होते हैं। दूसरा विवाह भिन्न चाल-चरित्र-चेहरे वाले राजनीतिक दल के एक धरती-पुत्र के पुत्र का था। इस के उत्सव भी तक़रीबन दो महीने चलते रहे।… विवाह अब यज्ञ-वेदी के चारों तरफ़ घूम कर नहीं, प्री-वेडिंग, वेडिंग और पोस्ट-वेडिंग के कैमरा-केंद्रित चोंचलों के मंच पर संपन्न होते हैं।… अगर गांधी-पटेल-नेहरू सब छोड-छाड़ डगर-डगर घूमते रहने के बजाय रात-दिन अपने लिए रंग-बिरंगे परिधान जुटाने में लगे रहते तो क्या भारत स्वतंत्र हो जाता? इसलिए यह सोचने की बात है कि आज हम किस तरह के नायकों की छांह तले रह रहे हैं?
सियासती संसार में अभी-अभी हुई एक सत्तारूढ़ी नेता के बेटे की शादी में उन के आमंत्रित अब्दुल्ला तो, ज़ाहिर है कि, नाचे ही, क्यों कि बुलाया था तो उन्हें नाचना ही था, मगर बेगाने अब्दुल्लाओं का भी एक पूरा-का-पूरा ज़खीरा ख़ुद-ब-ख़ुद हुलक-हुलक कर हफ़्तों नाचता रहा। पराए परिवार में हो रहे विवाह में जिन्हें इतनी ख़ुशी मिल रही हो कि मन में न समाए, उन की फ़र्राख़दिली पर सचमुच सौ-सौ निछावर। वरना भारतीय विवाहों में तो फूफाओं, जीजाओं, ननदों, जिठानियों और देवरानियों की मान-मनौवल में ही हाथ-पांव फूले रहते हैं।
इस लिहाज़ से पिछले महीनों में हुए दो विवाहों ने भारतीय समाज की ‘सहृदयता-भागीदारी’ के नए मानक स्थापित कर दिए। एक विवाह वह था, जो कारोबारी दुनिया के एक शहंशाह के बेटे का था। इस विवाह के उत्सव देश-दुनिया के अलग-अलग रमणीय स्थलों पर तक़रीबन पूरे साल चलते रहे। हमारे पृथ्वी ग्रह की कौन ऐसी नामी-गिरामी हस्ती थी, जो अपनी कमर मटकाने वहां नहीं पहुंची? दूसरा विवाह भिन्न चाल-चरित्र-चेहरे वाले राजनीतिक दल के एक धरती-पुत्र के पुत्र का था। इस के उत्सव भी तक़रीबन दो महीने चलते रहे। अलग-अलग जगह तीन स्वागत समारोह हुए, ताकि यहां नहीं तो वहां, वहां नहीं तो यहां पहुंच कर सभी लालायित अपने आशीष पुष्पों की वर्षा नवयुगल पर कर सकें।
उन के बच्चे, उन का पैसा, उन की मर्ज़ी, उन की इच्छा। वे अपने-अपने अरमान भला क्यों न पूरे करें? पिता अपने विवाह में बाकी रह गई हसरतों को अपने बेटे की शादी के ज़रिए क्यों पूरा न करे? मां अपनी बेटी की शादी को स्वयं की शादी में बची रह गई ख़्वाहिशों को पूरा करने का माध्यम क्यों न बनाए? और, बच्चे तो बच्चे होते ही हैं। उन्हें तो विवाह-बाज़ार ने विवाह-पूर्व, विवाह और विवाह-उपरांत के स्थिर और चल चित्रीकरण का घनघोर चस्का लगा ही दिया है। सो, विवाह अब यज्ञ-वेदी के चारों तरफ़ घूम कर नहीं, प्री-वेडिंग, वेडिंग और पोस्ट-वेडिंग के कैमरा-केंद्रित चोंचलों के मंच पर संपन्न होते हैं।
किसी के भी बाल-बच्चों की शादी को ले कर प्रतिकूल-सी लगने वाली टिप्पणियां करना कोई अच्छी बात नहीं है। आप कहेंगे कि आप को क्या? आप एकदम सही हैं। मुझे क्या? किसी को भी क्या? मगर मुझे दो और शादियों की मिसालें याद आ गईं, इसलिए मुझ से यह सब लिखे बिना रहा नहीं जा रहा है। खुजली कहीं भी हो, जब तक खुजाल न लो, ध्यान वहीं लगा रहता है। सब से खराब खुजली होती है दिमाग़ी खुजली। जब तक लिख-बोल कर भड़ास न निकले, तंग करती रहती है। सो, अगर पिछले कुछ दिनों में हुई दो और शादियों के दृश्य मेरे दिमाग़ में घूम नहीं रहे होते तो मैं ख़ामोश रहता।
इन दोनों शादियों में यूं तो आपस में कोई साम्य नहीं है। मगर एक ‘भाव-साम्य’ है। उसे रेखांकित करना मुझे ज़रूरी लगता है। एक शादी वैश्विक जगत के एक और मायावी भारतीय-कारोबारी के बेटे की थी। ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ की हवस इस व्यवसायी में भी उस से कम नहीं है, जिस ने अपने बेटे की शादी में पूरा साल संसार भर में छैंया-छैंया की बारिश किए रखी। मगर अन्यथा हर मामले में बराबरी की टक्कर वाले इस तिलस्मी धन्नासेठ ने अपने बेटे की शादी में तुलनात्मक तौर पर बेहद सादगी बरती। बावजूद इस के कि वित्तीय, सियासी और सामाजिक रसूख में वह किसी भी और से इन दिनों सवाया ही है, उस ने अपने बेटे के विवाह आयोजन को मूलतः पारिवारिक स्वरूप में ही संपन्न किया।
दूसरी शादी हुई विपक्ष के एक राजनीतिक की बेटी की। किसी को पता भी नहीं चला कि यह शादी कब हो गई? न कोई पांच-सितारा तामझाम, न मीडिया-सोशल मीडिया में कोई प्रायोजित हो-हल्ला और न नामी-गिरामी हस्तियों की कोई मौजूदगी। इसलिए नहीं कि यह प्रतिपक्षी सियासतदां किसी गिनती में नहीं है। मैं बिना नाम लिए, जिन का ज़िक्र कर रहा हूं, वे प्रदेश और केंद्र में दशकों मंत्री रहे हैं, अब भी सांसद हैं और अपने राजनीतिक दल में बहुत अहम सांगठनिक भूमिका निभा रहे हैं। देश-परदेस में उन के संपर्कों की कोई कमी नहीं है। खाते-पीते घर के हैं। धन-धन धन्ना नहीं है तो ठन-ठन गोपाल भी नहीं हैं। चाहते तो इतना तो कर ही सकते थे कि उन की बेटी के विवाह की शहनाई के सुर, आप के कान के पर्दों को फाड़ते भले न, उन में हल्का कंपन तो पैदा कर ही देते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
तो मुझे तो यही समझ में आया कि बावजूद इस के कि कारोबारी, कारोबारी होता है और राजनीतिक, राजनीतिक और दोनों ही की दुनिया के अपने-अपने बुनियादी दस्तूर हैं, मनुष्य-मनुष्य के मूल स्वभाव का फ़र्क़ यह तय करता है कि समान संसाधन और समान उपादान होते हुए भी समान आयोजनधर्मी आवश्यकताओं का निर्वाह कौन कैसे करता है? अरमान तो सब के होते हैं। समान क्षमताओं के होते हुए भी कौन उन्हें कैसे निकालता है, इस का परिदृश्य बहुत कुछ तय करता है। आप के सामने दो व्यवसायी हैं, लेकिन दोनों के नज़रिए में अंतर है। आप के सामने दो राजनीतिक हैं, मगर दोनों के दृष्टिकोण में फ़र्क़ है। क्या आप को लगता है कि अपने-अपने पेशेवर कर्मों में पूरी तरह लिप्त होते हुए भी व्यवसाइयों और राजनीतिकों की इन जोड़ियों में शामिल चेहरों में से कोई एक-एक अपने प्रतिरूप से ज़्यादा बेहतर है?
मुझे तो लगता है कि ऐसा है। आप भी जानते होंगे और मैं भी ऐसे बहुत से बड़े कारोबारियों को जानता हूं, जिन्होंने अपने बेटे-बेटियों की शादियों में विलासिता के निर्लज्ज प्रदर्शन में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिन्होंने ख़ुद के नाम पर ख़ुद बसाए गए शहरों को अपनी पारिवारिक शादियों में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और पत्रकारीय जगत के बलशालियों से पाट दिया। मगर मैं उन से भी बड़े ऐसे व्यवसाइयों को भी जानता हूं, जो अपने पारिवारिक-सार्वजनिक आयोजनों में सादगी की मिसाल बने रहे। मैं ऐसे बहुत से राजनीतिकों को जानता हूं, जिन्होंने चिंदी मिलते ही अपने पारिवारिक आयोजनों को फूहड़ शक्ति प्रदर्शन की चौपाल बनाने में दो क्षण भी नहीं लगाए और मैं सियासत के सर्वोच्च शिखर पर बैठे उन प्रवर व्यक्तित्वों से भी वाकिफ़ हूं, जिन्होंने अपने परिवार के विवाह समारोहों में शुचिता के तमाम मानदंडों का पालन किया।
पाले के दोनों तरफ़ मौजूद इन नामों की तफ़सील में जाया जा सकता है। लेकिन मैं नहीं जा रहा, क्योंकि मक़सद किसी को धिक्कारने और किसी का महिमामंडन करने का नहीं, व्यक्तियों की प्रवृत्तियों की तरफ़ इशारा करने का है। इसलिए कि हमारे नायकों की प्रवृत्तियां ही अंततः यह तय करती हैं कि हमारा समाज किस दिशा में जाएगा। यह अनायास नहीं है कि भारत में धनवानों और धनहीनों के बीच की खाई पिछले एकाध दशक में इतनी गहरी हो गई है। मुल्क़ के रहनुमाओं के बेपरवाह, बट्ठर और ग़ैर-हस्सास हुए बिना ऐसा नहीं हो सकता और किसी मुल्क़ की रहनुमाई सिर्फ़ सियासी शख़्सियतें ही नहीं करती हैं, मानव जीवन को प्रभावित करने वाले हर आयाम के नायक मिल कर किसी भी समाज की शक़्ल गढ़ते हैं। अगर गांधी-पटेल-नेहरू सब छोड-छाड़ डगर-डगर घूमते रहने के बजाय रात-दिन अपने लिए रंग-बिरंगे परिधान जुटाने में लगे रहते तो क्या भारत स्वतंत्र हो जाता? इसलिए यह सोचने की बात है कि आज हम किस तरह के नायकों की छांह तले रह रहे हैं?