Wednesday

30-04-2025 Vol 19

पूर्णविराम की ऊहापोह से उपजा संकल्प

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PM Modi: वैसे तो इस विषैले अमृतकाल में इतना पुण्य भी कम नहीं है कि आप ने मूंछों पर ताव देना छोड़ने की कसम भले ही खा ली हो, मगर अधम डालियों पर पड़े झूलों पर बैठ कर तो कम-से-कम नहीं झूल रहे हैं। पर इस ऊहापोही भूलभुलैया का सफ़र कराने के बाद मैं आप को आश्वस्त करता हूं कि समर शेष है और जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उन का भी अपराध। किसी अपराध का कलंक माथे ले कर क़यामत के दिन क्या मुंह दिखाएंगे?

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पंकज शर्मा

सोच रहा हूं कि 2025 में नरेंद्र भाई मोदी जो भी करें, मैं उन के किए-कराए पर कुछ न लिखूं, कुछ न कहूं। मेरे कहने-लिखने से होना क्या है? होना तो वही है, जो हो रहा है।

यह तो मैं दस बरस पहले भी जानता था कि मैं कुछ भी लिखता रहूंगा, कुछ भी कहता रहूंगा, होना-जाना कुछ है नहीं। दस साल बाद देखता हूं कि वही हुआ कि कुछ नहीं हुआ।

मेरे ही क्या, किसी के भी लिखने-कहने से कुछ नहीं हुआ। मैं तो ख़ैर कुछ हूं नहीं, लेकिन जो बहुत कुछ हैं या अपने को बहुत कुछ समझते हैं, उन के लिखे-कहे से ही कौन-सा कुछ हो गया?

लिख-लिख कर, कह-कह कर जो जेल यात्राएं भी कर आए, उन के लेखन-कथन से ही कौन-सी क्रांति आ गई?

इसलिए नए साल में यह संकल्प ले लेने में ही क्या बुराई है कि अब नरेंद्र भाई के कर्म-अपकर्म की कोई समीक्षा नहीं। मैं ने मान लिया है कि वे समीक्षा से परे हैं।

नरेंद्र भाई का ज़िंदगीनामा

प्रभु श्री राम की जीवन गाथा की समीक्षा हो सकती है। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं की समीक्षा हो सकती है। महात्मा गांधी के प्रयोगों की समीक्षा हो सकती है।

जवाहरलाल नेहरू के तो ख़ैर पोर-पोर की समीक्षा हो सकती है। मगर नरेंद्र भाई का ज़िंदगीनामा, उन का राजकाज, सब समीक्षा के किसी भी दायरे से बाहर है।

वैसे तो उन्हें है नहीं, लेकिन अगर उन्हें अपनी समीक्षा पसंद भी हो तो भी अब मैं तो उन की समीक्षा करूंगा नहीं। दस साल इस जोख़िम भरी राह पर चल कर सही-सलामत 2025 में पहुंच गया, क्या यह काफी नहीं है?

वरना कहां मैं और कहां नरेंद्र भाई? वे चाहते तो मुझे मेरी असली हैसियत दिखाने में उन्हें कितनी देर लगती?

सो, उन की इतनी सदाशयता के बाद भी मैं उड़ते तीर से भिड़ते रहने का रोमांच क्यों पालूं?

ठीक है कि अब तक मैं इसलिए बच गया और आगे भी शायद इसीलिए बचा रहूंगा कि एक तो मेरी कोई हैसियत ही नहीं है और दूसरे मैं जहां-जहां लिखता-बोलता रहा, उन प्रकाशनों, प्रसारणों और मंचों की भी नरेंद्र भाई के सामने कोई बिसात नहीं है।

नतीजतन मुझ पर उन का ध्यान नहीं गया। यह तो अच्छा हुआ कि वे 282 से 303 होते हुए 400 पार करने में इतने मसरूफ़ थे कि मुझ जैसे अदने पर उन का ध्यान नहीं गया।

लेकिन अब वे 240 पर लुढ़क गए हैं और कहने वाले तो कह रहे हैं कि इन अंकों में भी 79 का घालमेल है। यानी वे 161 पर ढुलक चुके हैं।

तो हो सकता है कि अब उन के पास फ़ुर्सत के पल कुछ ज़्यादा हों। ऐसे में अगर वे अपना ध्यान इधर-उधर दौड़ाने लगे और मैं उन की नज़र की ज़द में आ गया तो?

नरेंद्र भाई ने मेरा क्या बिगाड़ा(PM Modi)

इसलिए इस ‘तो’ से खिलवाड़ अब और नहीं। नरेंद्र भाई ने मेरा क्या बिगाड़ा है? देश का अगर कुछ बिगाड़ा है तो देश जाने। देश उन के खि़लाफ़ ताल ठोके। देश तो ठोक नहीं रहा।

देश तो दस साल से उन की गोद में बैठा है। आगे भी दस बरस उन्हीं की गोद में पड़े रहने को मचल रहा है। तो मैं ही कौन-सा ऐसा सूरमा भोपाली हूं कि ‘आ मुझे मार, आ मुझे मार’ चिल्लाता घूमता रहूं?

दस साल में मेरी चिल्लाहट के बाद भी आ कर मुझे नहीं मारा तो इस से मैं यह निष्कर्ष निकाल लूं कि अगले दस साल भी नरेंद्र भाई मुझे इसलिए नहीं मारेंगे कि या तो वे सोचते होंगे कि मरे हुए को क्या मारना या उन की मुझे मारने की हिम्मत ही नहीं है तो मुझ से बड़ा मूर्ख कौन होगा?

इसलिए मैं तो अपनी कलम-ज़ुबान अब सरयू में तिरोहित करने जा रहा हूं। मैं अक्षर-विश्व का भू-पाल होने की ख़ामख़्याली पाल कर विश्वगुरु के सामने तीलीलीली-तूती बजाता क्यों फिरूं?

बड़े-बड़े चिंतक पड़े हैं, बड़े-बड़े दार्शनिक पड़े हैं, बड़े-बड़े विद्वान पड़े हैं। इस भरत-भूमि पर बदलाव के दीवानों की कोई कमी थोड़े ही है। वे अपनी ताल ठोकते रहें।(PM Modi)

ठोकता तो मैं भी रहता, मगर किस के लिए ठोकता रहूं? पांच किलो अनाज, मुफ़्त तीर्थयात्राओं, वग़ैरह-वगै़रह के लिए नदीदों की तरह लोकतंत्र के यज्ञ में अपना चुनावी समर्थन स्वाहा कर आने वालों के लिए?

अबलौं नसानी, अब न नसैंहौं

संसद और विधानसभाओं में अपनी रौद्र भंगिमाओं के साथ सत्तासीनों को चुनौती देने वाले उन प्रतिपक्षियों के लिए, जिन में से ज़्यादातर एक सोंटा पड़ते ही गिलगिला कर रेंगना शुरू कर देते हैं?

उन के लिए, जिन के सारे सियासी उपक्रम अपने घर-बार, परिवारजन, नाते-रिश्तेदारों और यार-दोस्तों से शुरू होते हैं और उन्हीं पर ख़त्म?(PM Modi)

जो प्रतिपक्षी समूह अपनी ही ताल से ताल नहीं मिला पा रहा, उस के लिए कोई और अपनी ताल क्यों ठोके? प्रतिपक्ष के सब से बड़े राजनीतिक दल के जागीरदार जब अपने ही गणमुख्य का कर्म-पथ पोला करने में लगे हों तो यह औरों का ही ठेका क्यों हो कि वे अब्दुल्ला बन कर नाचते रहें?

तुलसीदास जी को भी अंततः यह निचोड़ समझ में आ गया था कि ‘अबलौं नसानी, अब न नसैंहौं’। सो, तुलसी की यह विनय-पत्रिका और किसी के लिए नववर्ष का व्रत बने-न-बने, मेरे लिए तो बन गई है।

जिन-जिन स्थूलमतियों को आज के बाद मुझे रणछोड़ कहना है, कहते रहें। वे नादान क्या जानें कि मैं रण में था, हूं और अब भी रहूंगा। स्वांतःसुखाय रणरत रहने की मस्ती तनख़्वाहदार चारण न कभी समझे हैं, न समझेंगे।

रण तो हमेशा जारी रहता है। लेकिन धुंधले लक्ष्यों के लिए युद्धरत रहना भी मूढ़ता है। जिस सेना में बृहन्नलाओं की भरमार हो, उस के भरोसे तो शूरवीर से शूरवीर सेनापति के हिस्से में भी पराजय का अपयश ही आएगा।

यह दौड़ क्या अंतहीन(PM Modi)

भानुमति की मजबूरियां तो मैं समझ सकता हूं कि क्यों वह बेचारी अपना कुनबा बचाए-बनाए रखने के लिए जीवन भर कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा इकट्ठा करने में ही लगी रही।

मगर यह मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं कि सर्वाधिकार संपन्न हस्तियों की ऐसी कौन-सी बेचारगी है कि वे इतने लाचार हैं कि सियासी बीहड़ की घुड़दौड़ में खच्चरों को दौड़ा रहे हैं? अगर यही दस्तूर रहा तो यह दौड़ क्या अंतहीन साबित नहीं होने वाली है?

यह जानते हुए भी कि जिस दौड़ में हम दौड़ रहे हैं, उस का अंत दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा है, बहुत-से लोग हैं जो उस में अनंत काल तक दौड़ते रह सकते हैं।

बशर्ते कि उन्हें तसल्ली हो कि युद्ध के मैदान में सेनापति के शिविर का अभिशासन सतोगुणी संभाल रहे हैं, तमोगुणी नहीं।

सेनाधिपति के नाम पर युद्धरत सैनिकों के बड़े वर्ग में यह अवधारणा जितनी ही गहरी होती जाती है कि इस रण में विजय से सेनाधिनाथ तो कम, उन के तामस द्वारपाल ज़्यादा सशक्त होंगे, फ़तह की राह उतनी ही लंबी होती जाती है। प्रतिपक्षी कर्णधारों को जब तक यह बात समझ में नहीं आएगी, तब तक नरेंद्र भाई अविजित बने रहेंगे।

वैसे तो इस विषैले अमृतकाल में इतना पुण्य भी कम नहीं है कि आप ने मूंछों पर ताव देना छोड़ने की कसम भले ही खा ली हो, मगर अधम डालियों पर पड़े झूलों पर बैठ कर तो कम-से-कम नहीं झूल रहे हैं।

पर इस ऊहापोही भूलभुलैया का सफ़र कराने के बाद मैं आप को आश्वस्त करता हूं कि समर शेष है और जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उन का भी अपराध। किसी अपराध का कलंक माथे ले कर क़यामत के दिन क्या मुंह दिखाएंगे?

पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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