इसी बीच बुधवार, 30 अप्रैल की कैबिनेट बैठक में तय हुआ है कि सरकार घर घर जा कर लोगों की जाति पूछेगी और उसे दर्ज करेगी। सोचें, एक तरफ कहा जा रहा था कि आतंकवादियों ने धर्म पूछ कर मारा, जाति पूछ कर नहीं। तो दूसरी ओर सरकार ने सबकी जाति पूछने का फैसला ले लिया। कहां तो भाजपा के नेता ‘बंटोंगे तो कटोगे’ या ‘एक रहोगे तो सेफ रहोगे’ के नारे लगा रहे थे और कहां जातियों में बांटने का फैसला कर लिया। सवाल है कि सरकार ने ऐसा क्यों किया और अगर इस फैसले से एक दिन पहले आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर सहमति ली तो संघ क्यों सहमत हुआ? क्या संघ को भी लग रहा है कि एक बार सबकी जातीय पहचान बता देने के बाद हिंदू धर्म के नाम पर सबको एकजुट करना ज्यादा आसान होगा?
सरकार के इस फैसले के दो पहलू बहुत साफ दिख रहे हैं। पहला तो आपदा को अवसर बनाने का है। इस समय देश पाकिस्तान पर हमले या आतंकवादियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई का इंतजार कर रहा है। ऐसे में सरकार को लगा होगा कि यह सही समय है जाति गणना का फैसला करने का क्योंकि लोग इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देंगे और देंगे भी तो जैसे ही आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई होगी, सारा नैरेटिव बदल जाएगा। अगर उस पहलू पर यकीन करें तो ऐसा लग रहा है कि सरकार पहले से इस पर विचार कर रही थी। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को सोचने पर मजबूर कर दिया था। लोकसभा चुनाव में हुए नुकसान खास कर उत्तर प्रदेश के नुकसान के बाद भाजपा को लग रहा था कि अगर यही ट्रेंड रहा और चुनाव धर्म या देशभक्ति की बजाय जाति के नाम पर हुआ तो इस साल बिहार में एनडीए हारेगा।
इसके बाद 2027 में उत्तर प्रदेश में भी एनडीए की जगह अखिलेश यादव का पीडीए जीत सकता है और उसके बाद 2029 का चुनाव हाथ से निकल जाएगा। इसलिए खुद भाजपा को जाति का कार्ड खेलना चाहिए। इस सोच में भाजपा ने जाति का कार्ड चला। इस दांव का ज्यादा फायदा लेने की स्थिति में भाजपा है क्योंकि विपक्ष इस समय न जाति गणना कराने की स्थिति में है, न आरक्षण बढ़ाने की स्थिति में है, न निजी सेक्टर में आरक्षण देने की स्थिति में है और न ओबीसी या दलित, आदिवासी को कुछ ऑफर करने की स्थिति में है। दूसरी ओर सरकार सब कुछ दे सकने की स्थिति में है और ऊपर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पिछड़ा पहचान देश में बिल्कुल निचले स्तर तक लोगों के बीच पहुंची हुई है।
दूसरा पहलू जो है उसको दूर की कौड़ी मान सकते हैं लेकिन वह भी संभव है। ऐसा लग रहा है कि सरकार ने एक तीर से दो शिकार किए हैं। उसने जाति गणना का ऐलान करके विपक्ष का एजेंडा हथियाने का दांव चला है और देश के हिंदुओं में बहुजन यानी पिछड़ा, दलित और आदिवासी को राजनीतिक मैसेज दिया है तो दूसरी ओर पाकिस्तान को धोखा देने का दांव चला है। हो सकता है कि इस फैसले के बाद पाकिस्तान लापरवाह हो। ध्यान रहे अभी पाकिस्तान पूरी तरह से अलर्ट है। उसने पाक अधिकृत कश्मीर यानी पीओके में अतिरिक्त सैनिक तैनात किए हैं और लड़ाकू विमानों की तैनाती की है। इसलिए इस समय कोई भी सैन्य कार्रवाई एकतरफा नहीं होगी। अगर भारत चुपचाप बैठा रहता तब भी पाकिस्तान अलर्ट पर ही रहता। लेकिन अब भारत जाति की आंतरिक राजनीति में उलझ गया है। सोशल मीडिया में भाजपा विरोधी इकोसिस्टम ने भी मोदी को कठघरे में खड़ा किया है कि उन्होंने एक बड़े संकट के समय राजनीति साधने पर ध्यान दिया। इससे पाकिस्तान में यह मैसेज बन रहा होगा कि भारत में राजनीति पुराने ढर्रे पर लौट आई है और हमेशा की तरह मोदी चुनाव जीतने की रणनीति बनाने में लगे हैं। हो सकता है कि इससे पाकिस्तान लापरवाह हो और उसका फायदा भारत को मिले।