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केवल ट्रंप हैं सच्चे!

ट्रंप

कुछ भी हो अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का जवाब नहीं है। उन्होंने भारत और पाकिस्तान के झगड़े पर सीधी दो टूक बात कही कि उसने उसको ठोका, बदले में उसने भी ठोक दिया। एक-दूसरे को जवाब दे दिया है, इसलिए उम्मीद है अब रुक सकते हैं। (“They’ve gone tit-for-tat, so hopefully they can stop now) हालांकि मैं दोनों देशों को जानता हूं। हमारे दोनों से बहुत अच्छे संबंध हैं, और मैं चाहता हूं कि यह सब बंद हो। यदि मैं कुछ मदद कर सकता हूं, तो ज़रूर करूंगा। पर तभी जब ज़रूरत हुई।

इससे पहले भारत के ऑपरेशन की खबर पर ट्रंप का कहना था, “दुर्भाग्यपूर्ण है, हमने अभी-अभी इसके बारे में सुना है,”…“मुझे लगता है कि लोगों को अंदाज़ा था कि कुछ होने वाला है….वे लंबे समय से लड़ते आ रहे हैं।”

जाहिर है दुनिया ने दोनों देशों का झगड़ा बहुत हल्के से लिया है। एक वक्त था जब भारत और पाकिस्तान की लड़ाई के खटके से महाशक्तियां खटक जाती थीं। अब कोई परवाह ही नहीं कर रहा है। अकेले इजराइल के नेतन्याहू ने आतंक के हवाले भारत की कार्रवाई का दो टूक समर्थन किया। बाकी सबने संयम की नसीहत दी है। पाकिस्तान के साथ चीन, तुर्की जैसे खड़े हुए है वैसा क्या कोई भारत के साथ खड़ा दिखा है?

भारत-पाक झगड़े पर ट्रंप का हल्का रुख

ऐसा क्यों? क्या डोनाल्ड ट्रंप को पाकिस्तान को धमका नहीं देना चाहिए था? ऐसे ही रूस को भारत के लिए क्या दौड़े आना नहीं था? उसे चीन पर दबाव बनाना था लेकिन वह खुद क्योंकि चीन पर अब निर्भर है तो रूस कर क्या सकता है। मध्यस्थता के लिए सब तैयार बैठे हैं मगर आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कसम में हौसला बढ़ाने वाली कोई महाशक्ति नहीं है, नेतन्याहू को छोड़ कर। जबकि सोचें, याद करें, आतंक के खिलाफ नेतन्याहू का कितने देशों ने हौसला बढ़ाया था।

यह सब इसलिए है क्योंकि दुनिया और सभी नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की तासीर को अच्छे से जान चुके हैं। वैश्विक मीडिया, वैश्विक अंग्रेजी चैनलों की जरा अपनी चैनलों से तुलना करें तो कोई भी भारत और दक्षिण एशिया को तरजीह नहीं देता हैं। एक मनोवैज्ञानिक कारण यह भी है कि झूठों के झगड़े में भला क्या जानना और देखना।

तभी ट्रंप और दुनिया के लिए इस झगड़े का इतना ही अर्थ है कि उसने उसको ठोका, बदले में उसने भी ठोक दिया। और शुक्रवार की सुबह अमेरिका के उप राष्ट्रपति वेंस ने भी ठोक दिया कि इन दो देशों के टकराव, लड़ाई से हमारा लेना-देना नहीं है। यह “मूल रूप से हमारा विषय नहीं है”, उन्होंने कहा ‘हम उस युद्ध के बीच में नहीं कूदने वाले जो मूल रूप से हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता और जिस पर अमेरिका का कोई नियंत्रण नहीं है।

आप जानते हैं, अमेरिका भारत को हथियार छोड़ने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। न ही हम पाकिस्तान को ऐसा करने के लिए कह सकते हैं। …“हमारी आशा और अपेक्षा है कि यह संघर्ष किसी बड़े क्षेत्रीय युद्ध या—ईश्वर न करे—किसी परमाणु संघर्ष में तब्दील नहीं होगा। फिलहाल हमें नहीं लगता कि ऐसा होने जा रहा है’।

यों यह बात ट्रंप प्रशासन की “अमेरिका फर्स्ट” विदेश नीति की भी झलक है। मगर यदि अमेरिका ने पंचायत नहीं की तो दक्षिण एशिया का चौधरी तब फिर चीन ही होगा। वैसे मेरा मानना है वेंस का यह दो टूक रूख धंधे के मकसद से भी हो सकता है। वह भारत से फटाफट व्यापार संधि कर अपनी कृषि पैदावार के लिए भारत का बाजार चाहता है। भारत वह करें तो फिर वह शायद भारत के लिए आगे बढ़े!

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Pic Credit: ANI

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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