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आवारा कुत्तों की पूज्यनीयता का समाज-शास्त्र

बच्चों के, बुजु़र्गों के, महिलाओं के पीछे लपक-लपक कर, उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर, गिरा-गिरा कर, नोच-खसोट कर अधमरा कर देने वाले कुत्तों की आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए दस दिन-रात जंतर-मंतर पर बैठे रहने वालों से अगर मैं यह पूछूं कि बेग़ुनाह मनुष्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होते प्रहारों को नंगी आंखों से देखते रहने के बावजूद उन्होंने एक दिन भी जंतर-मंतर जाने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई तो आप मुझे असामाजिक तत्व तो घोषित नहीं कर देंगे?

देश भर के शहरों, कस्बों और गांवों में बेलगाम घूम रहे छह-सात करोड़ आवारा कुत्तों की हिफ़ाज़त करने के लिए भारतीय कुलीन वर्ग की संवेदनशीलता और एकजुटता देख कर मेरा तो, सच्ची, मन भर आया। ऐसा इत्तेहाद कि दस दिन में सुप्रीम कोर्ट के घुटने टिकवा लिए। मेरा दिल द्रवित है। मेरी आंखें भरी हुई हैं। मेरे होंठ सुबक रहे हैं। इस कलियुग में, और तिस पर पिछले ग्यारह बरस के घनघोर भोथरे माहौल के दरमियान, हमारे समाज के एक ख़ास तबके का बेठिकाना कुत्तों के प्रति ऐसा सहानुभूति-भाव देख कर क्या आप की छाती चौड़ी हो कर आज छप्पन इंच की नहीं हो गई है? मेरी तो हो गई है।

बच्चों के, बुजु़र्गों के, महिलाओं के पीछे लपक-लपक कर, उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर, गिरा-गिरा कर, नोच-खसोट कर अधमरा कर देने वाले कुत्तों की आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए दस दिन-रात जंतर-मंतर पर बैठे रहने वालों से अगर मैं यह पूछूं कि बेग़ुनाह मनुष्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होते प्रहारों को नंगी आंखों से देखते रहने के बावजूद उन्होंने एक दिन भी जंतर-मंतर जाने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई तो आप मुझे असामाजिक तत्व तो घोषित नहीं कर देंगे? अगर मैं सवाल उठाऊं कि 2024 में जब कुत्तों द्वारा मनुष्यों को काटने के 37 लाख मामले बाक़ायदा दर्ज़ हुए और इन में से सैकड़ों लोग हमेशा के लिए चल बसे – तब आप अपने वातानुकूलित ड्राइंग रूम से क्यों बाहर नहीं निकले तो आप मुझे मूक प्राणियों का दुश्मन तो करार नहीं दे देंगे?

11 साल पहले, 2014 में, देश में आवारा कुत्तों की तादाद सवा करोड़ के आसपास थी। 2016 में डेढ़ करोड़ पार कर गई। 2018 में 2 करोड़ से ऊपर हो गई। अब 6-7 करोड़ के बीच है। आवारा कुत्ते देश भर में हर रोज़ कम-से-कम दस हज़ार लोगों को काटते हैं। काटने के मामले बहुत तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं। 2021 में 17 लाख लोगों के कुत्तों द्वारा काटने के मामले दर्ज़ हुए थे। तीन साल में इन घटनाओं में 20 लाख का इजाफ़ा हो गया है। जो मामले दर्ज़ नहीं होते हैं, उन का तो कहना ही क्या?

यूं आवारा कुत्तों की गिनती के सभी आंकड़े अनुमानित ही हैं, मगर दुनिया भर में ख़ानाबदोश कुत्तों की तादाद 20 करोड़ से कुछ ज़्यादा है। दुनिया की मानव आबादी में भारत का हिस्सा तक़रीबन पौने अठारह प्रतिषत है, मगर संसार भर के आवारा कुत्तों की संख्या में भारतीय कुत्तों का हिस्सा तीस फ़ीसदी से ऊपर है। हमारे देश में प्रति एक हज़ार की आबादी पर क़रीब 35 आवारा कुत्ते सड़कों पर घूम रहे हैं। मज़े की बात यह है कि सरकार के पास इस का कोई निश्चित आंकड़ा है ही नहीं कि देश में कितने आवारा कुत्ते हैं और कितने पालतू? कितने पालतू कुत्तों का पंजीकरण है और कितनों का नहीं? पालतू कुत्तों में से कितनों को अनिवार्य टीके नियमित तौर पर लग रहे हैं और कितनों को नहीं? जब पालतू कुत्तों का ही कोई नियमन नहीं हो पा रहा है तो आवारा कुत्तों की कौन परवाह करे?

मैं हलके-फुलके ढंग से नहीं, पूरी संजीदगी के साथ, यह सवाल भी उठाना चाहता हूं कि अगर लोग अपने घरों में कुत्ते पाल सकते हैं तो वे गाय, भैंस, बकरी, भेड़, वग़ैरह क्यों नहीं पाल सकते? अगर कोई चाहे तो अपने फ्लैट में गधा क्यों नहीं पाल सकता है? ‘आवारा’ कुत्तों को ‘सामुदायिक’ कुत्ते मानने वाले भद्रलोकवासी बताएं कि क्या कोई आवासीय सोसाइटी अपने परिसर में सामुदायिक ऊंट-घोड़े पाल सकती है? सारा सामुदायिक प्रेम कुत्ते-बिल्लियों पर ही क्यों उंडे़ला जा रहा है? पक्षियों को पिंजरे में रखना अगर ज़ुर्म है तो पालतू कुत्ते-बिल्लियों को दड़बेनुमा फ्लैट के कारावास में रखना जु़र्म क्यों नहीं है? अगर यह मांग ले कर भी जंतर-मंतर पर धरने-प्रदर्शन होने लगें कि सारे कुत्ते-बिल्लियों को मानव समाज की क़ैद से मुक्त कर सड़कों पर छोड़ा जाए तो क्या सुप्रीम कोर्ट अपने घुटने टेक देगा?

पहले ऐसे घरों की कमी नहीं थी, जहां तोता पाला जाता था। हम में से बहुत-से लोग ‘मिट्ठू चिटरगोटी’ सुन-सुन कर बड़े हुए हैं। फिर सरकार को अहसास हुआ कि तोता तो वन्यजीव है, जैसे कि शेर, हाथी, हिरण और बाघ। तो फ़रमान ज़ारी हो गया कि अगर कोई घर में तोता रखेगा तो तीन साल के लिए जेल हो सकती है। कुत्ता क्या तोते से ज़्यादा मासूम प्राणी है? आप ने कोई हिंसक तोता कभी देखा क्या? मगर हिंसक कुत्ता तो ज़रूर देखा होगा? हिंसक बिल्लियां भी देखी होंगी। सो, यह कैसे तय हुआ और किस ने किया कि कौन-कौन से पशु-पक्षी वन्यजीव हैं और कौन-कौन से घरेलू जीव? जब सर्कस वाले शेर, चीते, हाथी, भालू – सब पालते थे, तब उन में से कितनों ने मनुष्यों की जान ले ली? मगर आज सड़कों पर घूम रहे आवरा कुत्ते तो हर साल सैकड़ों की जान ले रहे हैं। फिर क्यों न कुत्ते को वन्यजीव घोषित कर दिया जाए?

सच तो यही है कि कुत्ता है तो मूलतः भेड़िए का ही वशंज। कुत्तों को पालतू बनाने का काम प्लीस्टोसीन युग से शुरू हुआ। भोजन की तलाश में जब भेड़िए मनुष्यों की बस्तियों के क़रीब आने लगे तो चतुर मनुष्यों ने उन में से कुछ दब्बू भेडियों को चुना और उन्हें चयनात्मक प्रजनन के तरीके अपना कर धीरे-धीरे पालतू कुत्तों में तब्दील करना शुरू कर दिया। मनुष्यों ने कुत्तों को शिकार के लिए इस्तेमाल करना आरंभ किया। फिर जब खेती शुरू हुई तो उन्हें खेतों की रखवाली में लगाया। बरस-दर-बरस बीतते कुत्ते कारों में घूमने लगे, कुलीनों के कालीनों पर विराजने लगे, उन के गुदगुदे बिस्तरों पर उन के साथ सोने लगे। लेकिन क्या इस से कुत्तों में मौजूद भेड़िया-अंश पूरी तरह समाप्त हो गया होगा?

मेरी अंतआर्त्मा गदगद है कि ईएमआई-युग में अपनी गुज़र-बसर कर रहे हमारे नौनिहाल अपने पालतू कुत्तों के सौंदर्य प्रसाधनों पर हज़ारों रुपए महीने खर्च कर देते हैं। अपने ‘सामुदायिक श्वान बच्चों’ के लिए उन की आंखों से आंसू उमड़ते हैं। बावजूद इस के कि मैं नहीं जानता कि उन में से कितने साल में एकाध बार किसी अनाथालय या वृद्धाश्रम जा कर किसी का हालचाल पूछते हैं, प्राणीमात्र के लिए उन की इतनी दया, इतनी करुणा मुझे भीतर तक भिगो देती है। मुझे यह भी नहीं मालूम कि सर्दियों में रैनबसेरों में सोने वाले लोगों की इन कुलीन जंतरमंतरियों को कितनी फ़िक्र है, कूड़े के ढेर में से कबाड़ चुनते बच्चे उन की चिंताओं में शामिल हैं या नहीं और ज़िंदगी भर चीथड़ों में ऐड़ियां रगड-रगड़ कर मर जाने वाले कुपोषित स्त्री-पुरुष उन के सपनों में कभी आते हैं या नहीं। मगर क्या यह कोई कम बड़ी बात है कि बेघर कुत्ते-बिल्लियों का सहारा बनने के अपने कर्तव्य पथ पर चलने से उन्हें सुप्रीम कोर्ट की ताक़त भी नहीं रोक पा रही है।

मैं यह साफ़ कर देना चाहता हूं कि मैं कुत्ता-विरोधी नहीं हूं। आज के दौर में कुत्ता-विरोधी हो कर कोई जी सकता है क्या? कुत्ता तो हमारे वर्तमान जीवन दर्शन का प्रतिमान है। उस की पूंछ हमारे राष्ट्रीय आचरण का तेज़ी से प्रतीक बनती जा रही है। इसलिए कुत्ता मेरे लिए पूज्य है। उस की अवहेलना करने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता। कुत्ते हमारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था की नींव हैं। वे हैं तो हम हैं। वे हमारे बावजूद हैं। कोई रहे-न-रहे, वे सदा के लिए हैं। सो, उन के साथ सार्वजनिक तौर पर रहना सीखिए।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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