भारत अब अमेरिका, चीन और रूस के तिराहे पर है। इन तीनों देशों के मुखियाओं के साथ प्रधानमंत्री मोदी फोटो खिंचवाते हैं। और इसकी हकीकत ही भारत की विदेश नीति का खुलासा है। सोचें, इस सवाल पर कि 1947 से 2025 के 78 वर्षों में भारत की विदेश नीति में वह क्या है, जिससे 140 करोड़ लोगों की सामरिक-सुरक्षा, भू-राजनीतिक आवश्यकता का कोर प्रकट हो? यह गंभीर और बड़ा सवाल है। मोटा-मोटी लगेगा कि नेहरू से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व तक भारत राष्ट्र-राज्य की बुद्धि से उपजी विदेश नीति में आग्रह है कि हम स्वतंत्र नीति–निर्णय की अपनी क्षमता बनाए रखें। न इधर लुढ़कें और न उधर। किसी खेमे, किसी गुट में फंसे बिना भारत अपने रणनीतिक विकल्प खुले रखे। अंदरूनी और बाहरी सभी मोर्चों में भारत के मौके रहें!
यही शायद सर्वमान्य जवाब है। उस नाते जवाहरलाल नेहरू और नरेंद्र मोदी, यानी नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया तथा मोदी के हिंदू आईडिया ऑफ इंडिया, दोनों के छोर एक ही नदी के दो पाट हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि संघ परिवार ने ताउम्र सोवियत संघ, चीन-रूस से एलर्जी रखी, लेकिन उसके प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हिंदुवाद आया तो वह भी शी जिनपिंग, पुतिन और ट्रंप-सभी के लिए समान भाव से पलक पांवड़े बिछाए रहता है।
इससे क्या जाहिर है? हिसाब से भारत एक सभ्यतागत देश है। उसका अस्तित्व उसके इतिहास, भूगोल, समाज-संस्कृति से उत्प्रेरित अनुभवों और भविष्य की चिंताओं में गुंथा हुआ है। यह हमेशा के लिए, आगामी पचास-सौ सालों में 160–170 करोड़ आबादी के पीक पर भी भारत राष्ट्र पर प्रश्नचिन्ह लगाए रखेगा! और मेरा मानना है कि पृथ्वी पर ऐसा कोई दूसरा देश नहीं है जिसकी चिंताएं, जिसका खोखलापन भारत जैसा हो!
बात जमती नहीं? तो ज़रा एक-एक महाशक्ति पर गौर करें। भारत के मुकाबले अमेरिका इसलिए
चिंतामुक्त है क्योंकि अमेरिका के पड़ोस में न कोई जानी-दुश्मन प्रतिद्वंदी देश है और न उसका भूगोल चीन-रूस जैसे खतरे लिए हुए है। 250 वर्षों के अमेरिकी इतिहास का वैसा कोई अनुभव नहीं है जैसा भारत का है। अमेरिका भूगोल, इतिहास के अलावा समाज-संस्कृति-तंत्र के मामले में भी वैसी चिंता-चुनौती में नहीं है जैसे भारत फंसा हुआ है। अमेरिका की राजनीतिक-शासकीय-वैचारिक व्यवस्था में पुख्ता चेक-बैलेंस है, तो नागरिकों को वह स्वतंत्रता और पूंजीवाद प्राप्त है, जिससे लोगों के व्यक्तिगत जीवन को अंतरिक्ष में बस्ती बसाने तक के स्वतंत्र पुरुषार्थी पंख प्राप्त हैं। और ऐसा होना उसके वैश्विक वैभव की गारंटी है।
अब अमेरिका के बराबर पहुंचे चीन पर विचार करें। चीन को भी भूगोल और इतिहास से वह कोई चिंता-ग्रंथि-चुनौती नहीं है, जिससे वह अपने पड़ोस के रूस, भारत या जापान की चिंता करे। चीन हर तरह से न केवल सुरक्षित है, बल्कि वह कन्फ्यूशियस अनुशासन के मानसिक–सामाजिक ढांचे में ऐसा गुंथा है जिसमें, चीन का नागरिक सामूहिक व्यवस्था और राज्य की नैतिक सर्वोच्चता को सहजभाव स्वीकारता है। उसके इस एकांगी अनुशासन से ही चीन पूरे इतिहास में राजनीतिक शक्ति, सामाजिक स्थिरता और सामरिक रणनीति में दो-टूक रहा है।
हां, हम हिंदुओं की तरह चीनियों की सरज़मी भारत जैसी हजार साल की गुलामी, बिखराव तथा भय-भूख-भक्ति के अनुभवों में उथली नहीं है। चीनी आबादी को सभ्यता-संस्कृति की स्मृति के वैसे कोई घाव नहीं हैं, जैसे भारत की मनोदशा में हैं। मतलब बाहरी और अंदरूनी दोनों मोर्चों पर चीन अपने कुएं की वह गहराई लिए हुए है, जिसके चलते उसे सुरक्षा, निश्चिंतता है। वह भाषा, रहन-सहन, धर्म, खान-पान, मनोरंजन, नस्लीय अहंकार आदि सभी में बाहरी चिंताओं से मुक्त है। वह सुरक्षा के आत्मविश्वास में जीता है। सो, नस्ल मेहनती, स्वाभिमानी और बर्बरता की ड्रैगन तासीर लिए हुए है। तभी आश्चर्य नहीं जो अत्यधिक आधुनिकीकरण, औद्योगिकीकरण तथा पश्चिमी अमेरिकी पूंजी-तकनीक के बावजूद चीन अपनी ही सभ्यता-संस्कृति की शर्तों पर दुनिया की महाशक्ति बना है।
लगभग ऐसी ही स्थितियों में रूस है। जारशाही से लेकर सोवियत संघ और रूस के अनुभवों में स्लाविक नस्ल भी भूगोल, इतिहास और संस्कृति-सभ्यतागत तासीर की सुरक्षित एकरूपता के अस्तित्वजन्य भरोसे में जीता आया देश है। भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से वह अमेरिका, चीन जैसी एकरूपता में ढला है। जारशाही, सोवियत संघ और आज का रूस—सभी एक स्लाविक सांस्कृतिक निरंतरता की छतरी में पनपे। रूस की राष्ट्रीय चिंता में पश्चिम (यूरोप) से सुरक्षा का एक कोण रहा है, जिसमें वह संसाधन-संपन्न भूगोल से लगभग हमेशा सुरक्षित रहा है।
अब पश्चिम यूरोप, फ्रांस-ब्रिटेन यानी पश्चिमी सभ्यता पर गौर करें तो वहां भी चीन-रूस और इस्लाम, के खतरों के बावजूद उसके इतिहास, भूगोल, धर्म, सभ्यता-संस्कृति में भारत जैसी दशा का वैसा कुछ भी नहीं है, जिससे अंदरूनी और बाहरी चुनौतियों में वह बेबस हो। हिंदुओं में कई लोग सोचते हैं कि पश्चिमी सभ्यता, मतलब लंदन, पेरिस और यूरोप का देरसबेर इस्लामीकरण होगा। मुसलमानों की संख्या मौजूदा यूरोप के आगे अस्तित्व का संकट बनाएगी। ऐसा कुछ नहीं होना है। इसलिए क्योंकि यूरोपीय देश, पश्चिमी सभ्यता हर तरह से समर्थ है। अगले पचास-सौ
सालों के सिनेरियो में यूरोप अंततः वैश्विक महाशक्तियों (परंपरागत चीन, अमेरिका, रूस) के प्रभुत्व संघर्ष का ही एक खिलाड़ी होगा। और वह हमेशा ठोस, ओलंपिक गोल्ड की क्षमताओं वाला प्रतिद्वंदी खिलाड़ी होगा।
अब सोचें, इन सबकी तुलना में दुनिया की सर्वाधिक आबादी लिए हुए भारत की क्या स्थिति है? भूगोल, इतिहास, सभ्यता-संस्कृति से लेकर अंदरूनी खाइयों, फॉल्टलाइंस में भारत के आगे इतनी
अधिक चुनौतियां हैं कि यदि हिसाब लगाने बैठें और वर्तमान दशा-दिशा पर गौर करें तो लगेगा कि हम मानों कुंभकर्ण हैं, अंतहीन नींद में हैं। एक तरफ भारत दो परमाणु पड़ोसियों चीन और पाकिस्तान से घिरा हुआ है। तो दूसरी ओर वह जातीय, भाषायी, धार्मिक खाइयों में सांस लेता है। अमेरिका, चीन, रूस या जापान जैसी कोई एकरूपता भारत को प्राप्त नहीं है। लाख टके का अगला सवाल है कि उत्तर में चीन और पश्चिम में पाकिस्तान जैसे दो जानी दुश्मनों का बाहरी संकट ज्यादा भारी है या इतिहास की अंदरूनी ग्रंथियों में हिंदू बनाम मुस्लिम, जातीय-भाषायी, सामाजिक खाइयों की कगार अधिक गंभीर है? सीमाओं की सुरक्षा या सीमा प्रबंधन की चुनौतियों को प्राथमिक मानें या अंदरूनी चुनौतियों के राजनीतिक-सामाजिक प्रबंधन को? कल्पना कर सकते हैं कि कैसा विकट मामला है।
अब 1947 से 2025 तक भारत के अंदरूनी प्रबंधन के साथ बाहरी सुरक्षा-भूराजनीति के प्रबंधों पर जरा गौर करें। पर इसके लिए भी पिछले 78 वर्षों में अमेरिका, रूस, चीन, जापान, इज़राइल या तुर्की जैसे सभ्यतागत राष्ट्रों की भारतीय विदेश नीति से तुलना करनी होगी। क्या तस्वीर उभरेगी? बहुत त्रासद। भारत विश्व राजनीति में अकेला वह लोटा है जो लुढ़कते-लुढ़कते दिशाहीन नियति लिए हुए है!
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का निर्गुट आंदोलन हो, या अमन के मसीहा होने का (संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का फच्चर फंसाने से लेकर ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’) इलहाम या नरेंद्र मोदी का शी जिनपिंग को झूले झुलाने, लाहौर में नवाज़ शरीफ के घर पकौड़े खाने, या ओबामा-ट्रंप को चाय पिलाने, या पुतिन के गले लगने की कूटनीति से विश्व नेता कहलाने के शगल के लब्बोलुआब में यह साफ दिखेगा- भारत में विदेश नीति राष्ट्र सर्वोपरि से नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री के ख्यालों, अवसरवाद का लोटा है। मतलब भारत की विदेश नीति बिना संस्थागत बुनावट के है। तभी लोटे को यह ध्यान ही नहीं होता कि देश दुश्मन का बाजार बन रहा है या अंदरूनी लड़ाई में वह धीर-धीरे सुलग रहा है!
तभी नेहरू को भान ही नहीं हुआ कि उन्होंने कैसे साठ के दशक में चीन को मौका दिया तो मोदी सरकार को भी बोध नहीं है कि भारत की आर्थिकी अब कैसे चीन की बंधक है? बंधक होना क्या होता है इसका ताजा उदाहरण दुर्लभ खनिज सप्लाई में चीन की धौंसपट्टी है। कुछ साल पहले जापान के साथ चीन का कुछ समुद्री टापू को लेकर झगड़ा हुआ था। चीन ने तब उसे दुर्लभ खनिज देना बंद कर दिया। जापान के हाथ पांव फूले। जापान ने तुरंत ऑस्ट्रेलिया में निवेश कर विकल्प बनाना शुरू किया। ऐसे ही ट्रंप के टैरिफ वार में चीन ने खनिज देना बंद किया। ट्रंप को संकट समझ आया और चीन की शर्त पर हाल में करार किया। मतलब यह कि चीन टेंटुआ दबाने की प्रवृति वाला देश है। भारत उसके टारगेट में है। वह अरूणाचल को अपना प्रदेश बताता है। पाकिस्तान और रूस दोनों चीन पर निर्भर हैं। तो भारत का बाजार भी चीन पर आश्रित। तब भारत की नीति क्या है? लुढ़कता लोटा और अवसरवाद।
ऐसे ही पाकिस्तान का मसला है। उसके लिए कश्मीर और आतंक महज औज़ार हैं, इतिहासजन्य हिंदू बनाम मुस्लिम घावों को सतत हवा देते रहने के लिए। भारत के अंदरूनी राजनीतिक-सामाजिक प्रबंधों को फेल करने के एक दीर्घकालीन मकसद में।
पर इसे भारत न 1947 में समझ पाया और न 2025 में समझा हुआ है। 1950 का लियाकत- नेहरू समझौता हो या ताशकंद या शिमला समझौता, पाकिस्तान हमेशा उसी भाव में भारत को देखता रहा है जैसे 1948 से चीन के नेताओं ने भारत को तौला हुआ है। मतलब पाकिस्तान से चुनौती केवल आतंक या एटमी शक्ति होने की ही नहीं है, बल्कि उस इस्लाम से भी है, जिसके हवाले भुट्टो ने “हज़ार साल लड़ते रहने” के डायलॉग मारे थे। वही चीन के माओ ने कहा था भारत है एक गाय, बैलगाड़ी का एक बैल!
क्या इस सोच व सत्य पर भारत की विदेश, आर्थिक, सुरक्षा-सामरिक रणनीति में कोई फोकस था या है? रत्ती भर नहीं। इसलिए कि लुढ़कता लोटा भला क्या फोकस करेगा? मसला बड़ा है। सो, फिलहाल इसी बिंदु पर मैं विश्लेषण खत्म करता हूं कि लुढ़कने वाला लोटा न दिशा का भान लिए होता है और न उसे पता होता है कि लुढ़कते-लुढ़कते अंततः लुढ़क जाना है!


