म्यांमार में भयावह भूकंप आया! शायद ही कभी मालूम पड़े कि हजारों मरे या लाखों! लाखों का जुमला इसलिए है कि 7.7 तीव्रता के झटकों की मौतों, घायलों और बरबादी का म्यांमार में हिसाब रखने वाला है कौन? यह वह देश है, जहां दशकों से भेड़ियों का सैनिक शासन है। लोग बेचारे बौद्ध हैं और वे आजादी के बाद से ज्यादातर समय तानाशाही में जी रहे हैं। इनमें वह कोई जिंदादिली, गुर्दा नहीं है जो बतौर मनुष्य अपने आप पर सोच सकें कि वे कैसे जी रहे हैं।
कथित ताकतपूर्ण सैनिक शासन के बावजूद म्यांमार के कई इलाकों में अलग-अलग नस्ली, बागी संगठनों के शासन बाड़े हैं। इसी के चलते थाईलैंड की सीमा से लगे इलाके में चीनी माफियाओं, अपराधी गिरोहों के ऐसे सेंटर हैं, जहां इंडोनेशिया, फिलीपीन, भारत आदि के बेरोजगार लड़के-लड़कियां नौकरी के झांसे में फंसे बंधुआ हैं। उनसे फोन करवा फ्रॉड होता है। फिर रोहिंग्या मुसलमानों के इलाके हैं, जहां से लाखों लोगों को सेना ने म्यांमार से भगाया है। वे बांग्लादेश के शरणार्थी कैंपों से लेकर भारत में मुंबई, दिल्ली तक फैले हुए हैं।
बहरहाल, भूकंप की खबर आई तो म्यांमार की मदद के लिए कोई नहीं दौड़ा। कहीं चिंता नहीं हुई। खबर में बैंकॉक के विजुअल ज्यादा दिखे। इसलिए क्योंकि पहली बात म्यांमार के सैनिक तानाशाहों ने दुनिया से नाता नहीं रखा है। उनकी पटरी चीन, रूस जैसे तानाशाह देशों से ही पटती है। फिर देश में मीडिया के नाम पर जो है वह सरकारी है। म्यांमार विश्व बिरादरी में अछूत है। इसलिए भूकंप की खबर के बाद वैश्विक प्रतिक्रिया में यह भाव था आया होगा भूकंप, हमें क्या लेना!
ध्यान रहे चीन, रूस और भारत के मदद के लिए आगे आने जैसी बातों का अर्थ नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सैनिक शासन के प्रमुख से बात कर म्यांमार की मदद में ‘ऑपरेशन ब्रह्मा’ के जुमले में राहत सामग्री भेजने की जो हेडलाइन बनाई है उसका वैसा ही अर्थ है, जैसे नेपाल में भूकंप के बाद भारत की मदद थी, जिससे नेपाल में हल्ला हुआ ‘थोथा चना बाजे घना’!
तभी सोचें, भारत के पड़ोसियों और दक्षिण एशिया के देशों की दशा पर! सभी देश अपने को ऐसे बाड़ों में कनवर्ट किए हुए हैं, जो भीड़ के कारण चिन्हित है मगर बाजार के रूप में। दक्षिण एशिया की समस्याओं, गरीबी, जलवायु परिवर्तनों, आपदाओं-विपदाओं, आपसी और अंदरूनी कलह जैसे पहलुओं से बाकी दुनिया का विशेष सरोकार नहीं है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि दक्षिण एशिया का हर देश अपने आपको तुर्रम खां मानता है। जैसे म्यांमार अछूत है वैसे ही अफगानिस्तान अछूत है।
अफगानिस्तान के तालिबान ने अपने बाड़े से गैर-मुसलमानों को भगाया तो म्यांमार ने उधर मुसलमानों को खदेड़ा। अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों इस्लामी देश हैं और कल भी खबर थी कि खैबर पख्तूनख्वा में तहरीके तालिबान ने पाकिस्तानी सैनिकों को मारा। म्यांमार और श्रीलंका दोनों बौद्ध बहुल हैं और दोनों एक दूसरे प्रति सर्द हैं। भारत और नेपाल हिंदू बहुल हैं मगर नेपाल काफी हद तक अब चीनपरस्त है। बांग्लादेश में क्या हो रहा है, इसका हमें ताजा अनुभव हैं। उसके पास अब चीन की पूंछ पकड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
दक्षिण एशिया के देशों में जहां रिश्ते ठूंठ, संवेदनहीन, अविश्वासी हैं वही अब डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद जाहिर है कि मानवीयता में मदद के उस वैश्विक कुबेर के दरवाजे बंद हैं, जिसने दूसरे महायुद्ध के बाद दान, दया और दयालुता की भी एक विश्व व्यवस्था बनाई थी।
इस अनहोनी के वैश्विक मायने हैं तो दक्षिण एशिया के लिए भी हैं। बांग्लादेश में लाखों रोहिंग्या शरणार्थी हैं। उनकी मदद के लिए सन् 2007 से अब तक अमेरिका कोई 2.7 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च कर चुका है। डोनाल्ड ट्रंप ने उस विभाग-एजेंसी को ही खत्म कर जिया है, जिससे दुनिया भर को दान या मदद जाती थी।
इस एजेंसी का चालू वर्ष में 58 अरब डॉलर का बजट था। ट्रंप ने एक झटके में एजेंसी पर ताले लगा दिए। तय मानें अमेरिका द्वारा हाथ खींच लेने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) की एजेंसियां भी मदद के मामले में कंगली हो जानी हैं। जब दुनिया का सबसे अमीर देश अमेरिका बदल गया है और उसे प्रभाव और पुण्यता की चिंता नहीं है तो बाकी अमीर देश भी अपने हाथ खींचेंगे। रोहिंग्या तब कैंपों से भाग किधर आएगे? भारत में!
तो न म्यांमार के भूकंप पर कोई फिक्र और रोहिंग्या की चिंता। ऐसे ही पश्चिम एशिया के गाजा में इजराइल बनाम हमास की लड़ाई में बेघर और बेमौत मरते लोगों पर गौर करें। क्या वहां के मनुष्यों की कोई चिंता करते हुए है? सही है वे मुसलमान हैं और मुसलमान के साथ कुछ भी हो वह दोनों मायनों में एक ही भाव लिए हुए है। एक तरफ इस्लामी धर्म गुरू जाकिर नाईक दलीलें बनाते हुए होंगे कि अल्लाह की यही प्लानिंग है तो दूसरी तरफ राय होगी ये इसी लायक हैं।
तभी हैरानी नहीं है जो न इजराइल पसीज रहा है और न हमास पसीजा है। हमास हो या उसके पीछे का ईरान या कोई भी मददगार, उसे इतना तो सोचना चाहिए था कि जब सब खंडहर हो गया है, रमजान के समय में भी राशन का टोटा है तो सभी यहूदी बंधकों की रिहाई कर अपने लोगों को सांस लेने दें।
इससे भी बड़ा अहम सवाल बगल के मिस्र, जोर्डन, सऊदी अरब, कुवैत, खाड़ी देशों पर है। क्या इनमें फिलस्तीनियों के यहां जैसे भी हो खाने-पीने के सामान को पंहुचाने की जिद्द नहीं होनी थी? मुस्लिम छात्रों और नौजवानों ने अमेरिका के विश्वविद्यालयों, कैंपस और लंदन की सड़कों पर प्रदर्शन किया लेकिन काहिरा और रियाद में नहीं।
क्या इन्हें फिलस्तीनी शरणार्थियों, बेघर लोगों के लिए बेसिक जरूरतों की सप्लाई बनवाए रखने के प्रदर्शन नहीं करने थे? लेकिन इनके प्रदर्शन इजराइल के विरोध की प्राथमिकता में थे न कि मानवीयता के तकाजे में!
ट्रंप युग: मानवता, दया और संवेदना का अंत?
इस सबका झंझट डोनाल्ड ट्रंप अब खत्म कर दे रहे हैं। अर्थात पिछले 75 वर्षों में, दूसरे महायुद्ध के बाद बनी मानवाधिकारों, मानवता, करूणा, दया, दान और मदद की वैश्विकता ही मिटा दे रहे हैं। अमेरिका की बनाई विश्व व्यवस्था यदि राजनीति केंद्रित थी तो मानव केंद्रित भी थी। उसका लीडर अमेरिका था तो पश्चिमी सभ्यता और ब्रिटेन, फ्रांस, यूरोपीय संघ उसके हरकारे थे।
वह लिबरल जमाना था, जिसका बेसिक सत्व-तत्व था कि मनुष्य को मनुष्य समझो न कि जानवर। और पशु से पृथक मनुष्य की विशिष्टता, बुद्धि से है, जिसकी स्वतंत्रता, समानता, जीवन गरिमा के मानवाधिकारों की रक्षा मानव परमो धर्म है।
ऐसा सोचना, मानना उस तानाशाही विचार और व्यवस्था में संभव नहीं है, जिसमें मनुष्यों को पिंजरे का पालतू बना कर उसे विचार विशेष का गुलाम पशु बनाना उद्देश्य होता है।
तभी 21वीं सदी, सन् 2025 की यह अकल्पनीय तस्वीर है कि अमेरिका वैसा ही बनता हुआ है जैसा रूस है। डोनाल्ड ट्रंप और पुतिन एक ही मनोदशा के हैं। दोनों ताकत के सनकी हैं। नेतन्याहू, पुतिन, डोनाल्ड ट्रंप, म्यांमार का सैनिक तानाशाह मिन आंग ह्वाइंग, चाइनीज राष्ट्रपति शी जिनफिंग एक ही सांचे के वे चेहरे हैं, जिनके दिल-दिमाग में यह प्राथमिकता है ही नहीं कि मनुष्य पर मनुष्य की तरह सोचें!
ट्रंप ने अमेरिका के घुसपैठियों को जंजीरों, बेड़ियों में बांधकर उन्हें उनके देशों में लौटाया या अल सल्वाडोर की जेल में डलवा दिया तो वह मानवाधिकार व मानवीय गरिमा के प्रति उसी निष्ठुरता का संकेत है, जिससे हिटलर का राक्षस रूप बना था।
विषयातंर हो गया है। असल बात है कि डोनाल्ड ट्रंप के डोमिनो इफेक्ट में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, यूरोपीय संघ सहित सभी उदारवादी समाज अपनी सुरक्षा, अपने अस्तित्व की चिंता में सिमटते हुए हैं। शेष दुनिया की किसी को चिंता नहीं है। वह वैश्विक सोच खत्म प्राय है कि पृथ्वी और मानवता की रक्षा के लिए सभी एकजुट हों। आपदा-विपदा में परस्पर सहयोग हो। अमीर हैं तो गरीब की मदद करें। उन लोगों, उन संगठनों को दान दें, जो लोगों की भलाई को अपनी जिंदगी का मिशन बनाते हैं।
जो सरकारी मशीन से अधिक संवेदनशील मददगार होते हैं। इसलिए लगता है समय का ही फेर है जो करूणा, दया, दान, संवेदना की भावनाएं भी सूखती आबोहवा के साथ सूख रही हैं।
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