कांग्रेस को अब आत्ममंथन की ज़रूरत नहीं है बल्कि कायाकल्प याकि राजनीतिक पुनर्जन्म, या फिर एक शांत, गरिमापूर्ण राजनैतिक मौत की जरूरत है। लोकसभा चुनावों को डेढ़ वर्ष बीते हैं। और इस दौरान कांग्रेस हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली तथा अब बिहार में हारी है। ‘हार’ कहना भी नरम शब्दों में बात रखना है। ग्यारह वर्षो से यह पार्टी सिर्फ़ हार ही नहीं रही है; वह धीरे-धीरे सड़ और गल भी रही है।
फिर भी, गांधी परिवार ने बुजुर्ग मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे खंडहरों का रखवाला बनाकर हकीकत को नकारा हुआ है। मानों जैसे कांग्रेस के कैलेंडर में अभी भी वर्ष 2004 दर्ज हो। राहुल गांधी और उनके इनर सर्कल (यदि कोई है तो) की मौजूदा तेज, फुर्तीली, स्पर्धात्मक दुनिया में ले दे कर मैराथन दौड़ वाली चाल हैं—धीमे, गंभीर, शायद नैतिक, लेकिन वक्त के साथ पूरी तरह बेमेल। इसलिए क्योंकि समय स्प्रिंट का है जबकि कांग्रेस अपनी ही थकाऊ लय में दबी पड़ी है।
बिहार में जो हुआ, वह सिर्फ़ चुनावी गणित या किसी गठबंधन की टिकाऊ शक्ति का कमाल नहीं है। यह उस राजनीतिक समय, संस्कृति का प्रमाण है जिसे भाजपा ने साधा हुआ है और कांग्रेस जिसे अब भी समझ नहीं पा रही। नरेंद्र मोदी भाजपा मतदाताओं से बीते कल को याद करने की अपील नहीं करते; वह उन्हें भविष्य की कल्पना करने को कहते है—चाहे वह विवादित हो, असमान हो, जोखिमभरी हो। इसके उलट कांग्रेस अब भी एक मुक्तिकार की भाषा बोलती है—जैसे भारत उसके इंतज़ार में बैठा हो और वही आकर उसे बचाएगी।
लोकसभा 2024 के समय राजनीतिक विमर्श में एक दरार थी। लेकिन दरारें खुद-ब-खुद क्रांतियाँ नहीं बनतीं। उन्हें ढांचा चाहिए, निरंतरता चाहिए, और उसे ऐसे विपक्ष की ज़रूरत होती है जो यह जानता हो कि वह वर्तमान को किस भविष्य से बदलना चाहता है, न कि केवल किसे हटाना है। यहीं पर कांग्रेस कमज़ोर पड़ती है—उसके पास भविष्य की कोई थ्योरी, कोई नारा, कोई झांसा भी नहीं है।
एक दशक से राहुल गांधी खुद को भारतीय गणराज्य, संविधान के संरक्षक, संस्थाओं के प्रहरी की तरह प्रस्तुत करते आ रहे हैं। जबकि अब वह पीढ़ी है, वह भीड़ है जो डेटा लीक, एग्ज़ाम स्कैम, घटते रोज़गार, और कमजोर इंटरनेट में बफरिंग करती लोकतंत्र के बीच पली है—वह संरक्षकों पर भरोसा नहीं करती। उसे न व्यवस्था के चौकीदार चाहिए, न अतीत की नैतिकता दोहराने वाले नेता। यह पीढी भीड के शौर को साधने वाले कोरियोग्राफर चाहती है—जो पहले से घूमती दुनिया को दिशा दे सके।
यह पीढ़ी सिर्फ़ ईमानदार, उजले, सफेद टी-शर्ट में सिद्धांतों की बात करने वाले नेता से प्रभावित नहीं होती। वह एक ऐसा हीरो चाहती है जो मंच पर खून-पसीना बहाता दिखे, जो शक्ति को सिर्फ वादा नहीं, प्रदर्शन, लीला के रूप में पेश करे। उसे जिम में बंद दरवाज़ों के पीछे किए गए पुश-अप्स नहीं, बल्कि राजनीति के केंद्र-मंच पर ऊँची किक मारता, मीम-रेडी, लाइव-टेलीविज़्ड योद्धा, हुंकारा मारने वाला नेता चाहिए।
जबकि राजनीति के इस एड्रेनालिन बाज़ार में कांग्रेस अब भी ज़मीर, नैतिकता बेचने निकली है। एक ऐसी पीढ़ी के बीच जो तमाशा खरीदने को प्रशिक्षित हो चुकी है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी, अपने तमाम विरोधाभासों के बावजूद, अब भी परिवर्तन के वोल्टेज में बाते और संवाद करते हैं। वही राहुल गांधी संविधान की किताब दिखाते है।
बिहार के नतीजों ने यह बात और दुखद रूप से साफ कर दी। नेपाल की युवा बगावत के बाद राहुल गांधी ऐसे बोले जैसे Gen Z किसी मानसूनी तूफ़ान की तरह भारतीय राजनीति में प्रवेश कर चुका हो। अचानक उन्हें लगने लगा कि वोट चोरी इस बेचैन पीढ़ी का नया राष्ट्रगान है। लेकिन सच्चाई अलग ही थी, तभी समझ नहीं आता उन्हें कौन सलाह दे रहा है?
पटना या पूर्णिया में हॉस्टल के बरामदों में बैठे, या चाय-स्टॉल पर रील्स स्क्रॉल करते युवाओं में कितने लोग सोच रहे हैं कि यह चुनाव EVM साज़िश पर टिका है? Gen Z तो यह मानकर चलता है कि पूरा गेम ही पहले से रिग्ड है।
यह पीढ़ी एक ऐसे भारत में पली है जहाँ: एग्ज़ाम पेपर लीक हो जाते हैं (कोई बड़ी बात नहीं) , नौकरियाँ सिकुड़ती जाती हैं, किराए बढ़ते जाते हैं, NEET-UG ढह जाता है, पर क्या फर्क पडता है? इतना ही नहीं छात्र आत्महत्याएँ भी दुखद मौसम बनती जा रही हैं। पर विचलित कौन होता है? उनकी राजनीति मेम्स, स्क्रीनशॉट्स, लीक्स और लेट-नाइट डिस्कॉर्ड कॉल्स से बनती है—न कि उन भाषणों से जो स्कूल-प्रिंसिपल के स्वर में दिए जाएँ।
कांग्रेस इस सबको नहीं समझती, या गांधी परिवार में कोई समझाता नहीं। न उसका पुराना नेतृत्व, न उसका नया। इसलिए वह अब भी एक एलीट क्लब की तरह है, न कि राजनीति का घर। यही वजह है कि तेजस्वी यादव भी इस युवा मतदाता को पूरी तरह पकड़ नहीं सके। Gen Z उन्नति चाहता है—लेकिन नैतिक घबराहट की कीमत पर नहीं। उसे ऐसी भाषा, ऐसा नेतृत्व, और फटाफट उसकी टूटती-फूटती दुनिया को समझने और वादा करने की हवाबाजी चाहिए। Gen Z किसी उद्धारकर्ता का इंतज़ार नहीं कर रहा। वह चाहता है कि उसे और उसके मीम्स समझे जाए।
यह वह पीढ़ी है जो संघर्ष को रोमांटिक बनाती है। जिन माता-पिता ने वर्षों तक ऑर्गैनिक बेबी-फूड, मिलावट-रहित दाल-चावल खोजे, उनके बच्चे आज एक ऐसे ब्रह्मांड में राजनीति को स्क्रॉल कर रहे हैं जो पॉपुलिज़्म और हल्की तानाशाही के आकर्षण से भरा हुआ है।
यदि राहुल गांधी सच में इस पीढ़ी से बात करना चाहते हैं, तो उन्हें इंटरनेट का सबसे ईमानदार सिद्धांत अपनाना होगा: DYOR — Do Your Own Research. यानी, युवाओं को बताने नहीं, उनसे सीखने की ज़रूरत है। आज राजनीति राष्ट्र की नब्ज़ पढ़ना नहीं, एक पीढ़ी के मूड को पकड़ने वाला खेल है—एक ऐसी पीढ़ी जिसने वैचारिक घोषणापत्रों को मूड-बोर्ड्स से बदल दिया है। बिहार में घोषणापत्रों से कुछ नहीं हुआ मगर हां, फटाफट खातें में पैसे की चारों तरफ गूंज हो गई। युवा भीड नेता को व्हाइट हाउस में लोगों को गले लगाते देखने का सपना देखते हैं, वे G7 के गलियारों में चलते हुए है, न कि धान के खेतों में कीचड़ में पैर धँसाते हुए।
सो राहुल गांधी को अपने सलाहकारों से छुटकारा पाना होगा जो हर बात में फुसफुसाते हैं: “डेमोक्रेसी ख़तरे में है या जात गणना और नौकरी से बात बनेगी। कड़वी सच्चाई यह है कि बहुत कम युवा भारतीय सोने से पहले लोकतंत्र की चिंता करते हैं। वे चिंता करते हैं कि: उनकी रील ट्रेंड करेगी या नहीं, उनका बैंक-अकाउंट उन्हें बैंकॉक जाकर कंटेंट बनाने देगा या नहीं। यह उनकी आपातस्थिति है। इसलिए लाल संविधान की किताब लहराना, वोट-चोरी का सुर, जाति जनगणना, और खेत-खलिहान वाली फ़ोटो-ऑप राजनीति का अर्थ है मौका चूकना। धोखा खाना। नई पीढ़ी जहरीली हवा में सांस ले रही है, डिग्रियों की कीमत गिरते देख रही है, और उम्मीद को रियल-टाइम डाउनग्रेड होते देख रही है। बावजूद इसके उसे ऐसा नेता चाहिए जो उस भाषा में बोले जो उसे उबाए नहीं।
जाहिर है युवा उद्धारकर्ता अच्छे दिनों लाने वाला नहीं तलाश रहे बल्कि वे एक ऐसी स्टोरी तलाश रहे हैं जिस पर वे ग्रोव कर सकें, जिसे वे ट्रेंड बना सकें, और जिसकी वे रील बना सकें।
इसलिए, अंत में फिर शुरुआत पर लौटते है। इस बेक़रार राजनीति के मौसम में राहुल गांधी को खुद बेक़रार होने का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। यदि वह कांग्रेस को एक शक्ल, नया अस्तित्व देना चाहते हैं, तो अब उनके सामने दो विकल्प ईमानदारी के साथ खड़े हैं: वह स्वयं किनारे से हट जाएँ और कमान किसी ऐसे हाथ में दें जो इस समय की नब्ज़ समझता है। या, वह पुरानी सलाहकार मंडली को हटाएँ और एक ऐसी राजनीतिक कल्पना गढ़ें जिसमें भविष्य की ठोस थ्योरी हो। क्योंकि राजनीति अंततः इतनी ही निर्मम है: या तो आप देश को यह विश्वास दिलाएँ कि आपका प्रतिद्वंद्वी अच्छे दिन नहीं ला सकता, या फिर आप किसी और को रास्ता दें—जो शायद ला पाए।


