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ये तर्क समस्याग्रस्त है

केंद्र का तर्क है कि राज्यपालों का अपना लोकतांत्रिक औचित्य है। राज्यपालों को सिर्फ ‘पोस्ट ऑफिस’ नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि उनके पास राज्यों में ‘जल्दबाजी में पास कराए गए विधेयकों’ को कानून बनने से रोकने का अधिकार है।

राज्यपालों के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ राष्ट्रपति के अभिप्रेषण (रेफरेंस) पर सुनवाई के क्रम में केंद्र ने जो दलीलें पेश की हैं, वे सिरे से समस्याग्रस्त हैँ। उन्हें स्वीकार करने का मतलब भारतीय संविधान में वर्णित संघीय व्यवस्था की समझ को आमूल रूप से बदल देना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में विधानमंडलों से पारित विधेयकों को राज्यपाल की मंजूरी संबंधी संवैधानिक अनुच्छेद की व्यख्या की थी। न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल ऐसे विधेयकों को सिर्फ एक बार विधायिका को लौटा सकते हैं। उसे विधायिका ने फिर पारित कर दिया, तो 90 दिन के भीतर उस पर राज्यपाल को दस्तखत करना होगा। मगर ये निर्णय केंद्र को रास नहीं आया। उसने राष्ट्रपति के अभिप्रेषण के जरिए सुप्रीम कोर्ट के पास इसे पुनर्विचार के लिए भेज दिया।

अब उसी सिलसिले में केंद्र ने अपना पक्ष कोर्ट को बताया है। उसका सार है कि राज्यपाल सिर्फ राज्यों में केंद्र के दूत नहीं हैं, बल्कि उनका अपना लोकतांत्रिक औचित्य है। चूंकि उनकी नियुक्ति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर राष्ट्रपति करती हैं, इसलिए केंद्र का लोकतांत्रिक औचित्य राज्यपालों से जुड़ा होता है। अतः राज्यपालों को सिर्फ ‘पोस्ट ऑफिस’ नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि उनके पास राज्यों में ‘जल्दबाजी में पास कराए गए विधेयकों’ को कानून बनने से रोकने का अधिकार है। इस तर्क में समस्या यह है कि इसमें राष्ट्रीय चुनाव में निर्वाचन के आधार पर केंद्र के लोकतांत्रिक औचित्य को सर्व-व्यापक बताया गया है।

मतलब यह कि राज्य सरकारों का लोकतांत्रिक औचित्य केंद्र के मातहत है, भले एक जैसी चुनावी प्रक्रिया से ही वे भी चुनी गई होती हैं। अब तक भारतीय संविधान की मौजूद हर व्याख्या में अपने-अपने दायरों में केंद्र और राज्यों को समान समझा गया है। यही भारत के ‘राज्यों का संघ’ होने की धारणा का आधार है। लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार की जो समझ सामने आई है, वह इस धारणा को चुनौती देती है। उसके तर्क बताते हैं कि वर्तमान सत्ताधारी केंद्र की सर्वोच्चता स्थापित कर भारत में एकात्मक शासन प्रणाली की तरफ ले जाना चाहते हैँ। मगर यह प्रयास अनेक दूसरे पक्षों को स्वीकार्य नहीं होगा।

By NI Editorial

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