वह काला अध्याय और यह काला अध्याय

राहुल गांधी को लोकसभा से निष्कासित करने की बातें उड़ाई जा रही हैं। लेकिन आपातकाल के वक्त को याद करें। सुब्रह्मण्यन स्वामी की सदस्यता खत्म करने के लिए प्रस्ताव आया था तो उसमें तीन मुख्य आरोप थे। देश-विदेश में भारत विरोधी प्रचार करने का आरोप तीसरे क्रम पर था। उनके मसले पर राज्यसभा में लंबी बहस हुई।…. आखिर में ओम मेहता ने स्वामी को सदन से निष्कासित करने का प्रस्ताव पेश किया। स्वामी के ख़िलाफ़ आरोप क्रमांक-3 को प्रस्ताव से हटा दिया गया। यानी उन पर विदेशों में भारत के खि़लाफ़ प्रचार करने की तोहमत नहीं लगाई गई।… क्यों? इसलिए कि इमरजेंसी के उस समय में संसद में हुई बहस में माना गया कि स्वामी ने भारत के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा है। उन्होंने भारत की सरकार के बारे में कहा है।

सियासी-चंडूखाने में ख़बरें ग़र्म हैं कि लंदन में ‘देश-विरोधी’ बातें कहने की वज़ह से राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता ख़त्म की जाने वाली है। तो क्या राहुल सोलहवें ऐसे ‘अभियुक्त’ बनने की कगार पर पहुंच गए हैं, जिन्हें या तो आज़ाद भारत में संसद से निष्कासित कर दिया गया या जिन्हें निष्कासन की कार्रवाई झेलनी पड़ी?

निष्कासन-इतिहास का पहला पन्ना हुचेश्वर गुरुसिद्ध मुद्गल के नाम दर्ज़ है। वे भारत की अंतरिम लोकसभा में कांग्रेस के सदस्य थे और 1951 में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ख़ुद सदन से उनके निष्कासन का प्रस्ताव पेश किया था। मुद्गल पर आरोप था कि उन्होंने सदन में सवाल पूछने के लिए बुलियन मर्चेंट एसोसिएशन से दो बार एक-एक हज़ार रुपए लिए थे। सितंबर का महीना था और उसके अंतिम सोमवार को लोकसभा की बैठक में मुद्गल के निष्कासन पर मतदान होना था। मतदान की नौबत आने के पहले ही उन्होंने अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा देने का ऐलान कर दिया।

इसके बाद 1976 में सुब्रह्मण्यन स्वामी की राज्यसभा सदस्यता समाप्त की गई। 1977 में इंदिरा गांधी को लोकसभा की सदस्यता से निष्कासित किया गया। लेकिन बाद में उनके निष्कासन का प्रस्ताव रद्द कर दिया गया। 2006 में दस सांसदों को लोकसभा से निष्कासित किया गया और एक को राज्यसभा से। वे सब एक स्टिंग ऑपरेशन में कैमरे पर सदन में सवाल पूछने के लिए रिश्वत लेते दिखाए गए थे। उनमें से पांच भाजपा के सांसद थे, चार बहुजन समाज पार्टी के और एक राष्ट्रीय जनता दल का। राज्यसभा से निष्कासित सांसद भाजपा का था।

विजय माल्या पंद्रहवें सांसद थे, जिन्हें हज़ारों करोड़ रुपए की हेरफेर के मामले में राज्यसभा से निष्कासित करने का प्रस्ताव 2016 में सदन की आचार समिति को भेजा गया था। उस साल मई की शुरुआत में माल्या ने राज्यसभा से इस्तीफ़ा दे दिया। अपने त्यागपत्र में उन्होंने लिखा कि सर्वसम्मति से भेजे गए उनके निष्कासन प्रस्ताव का हालांकि कोई समुचित ओर तर्कसंगत आधार नहीं है, लेकिन चूंकि वे अपना नाम खराब नहीं कराना चाहते, इसलिए राज्यसभा की सदस्यता छोड़ रहे हैं।

निष्कासन संबंधी 15 मामलों में एक सिर्फ़ सुब्रह्मण्यन स्वामी का ऐसा है, जिन पर तीन मुख्य आरोप थे। देश-विदेश में भारत विरोधी प्रचार करने का आरोप तीसरे क्रम पर था। उनके मसले पर राज्यसभा में लंबी बहस हुई। कई सदस्यों ने कहा कि तीसरे आरोप को हटा दिया जाना चाहिए। आपातकाल में मीसा-क़ानून लागू था। दलील दी गई कि अगर कोई मीसा-क़ानून के ख़िलाफ़ बोलता है तो उसे राष्ट्रविरोध कैसे कहा जा सकता है? जब महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को अंग्रेज़ सरकार ने क़ैद किया था तो जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने बयान दिया था कि इस कुकृत्य के लिए बादशाह को नंगे पांव गांधी और नेहरू के पास जा कर उनसे क्षमा मांगनी चाहिए। क्या यह ब्रिटेन के ख़िलाफ़ राजद्रोह था? ब्रिटेन की संसद में कृष्णमेनन हमारे देश के सदस्य थे। वे भारत को स्वतंत्र न करने के लिए ब्रिटेन को दोषी ठहराते थे। सर स्टेफोर्ड क्रिप्स, हैरॉल्ड लासकी और सर पैथिक लॉरेंस भी यही कहा करते थे और ब्रिटेन के ख़िलाफ़ बहुत कड़ी बातें कहते थे। क्या यह राजद्रोह था?

स्वामी को देशविरोधी ठहराए जाने के ख़िलाफ़ 47साल पहले राज्यसभा में और भी बहुत-से तर्क सदस्यों ने रखे। कहा कि दादाभाई नौरोजी जब ब्रिटेन की संसद के सदस्य थे और उन्होंने भारत को गुलाम बनाने के लिए इंग्लैंड पर कई आरोप लगाए तो क्या किसी ने कहा कि यह राजद्रोह है? जब विट्ठलभाई पटेल अमेरिका गए और तारकनाथ दास और जे.जे. सिंह ने वहां इंडियन लीग बनाई तो क्या अमेरिका वालों ने कहा कि यह अमेरिका के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार हो रहा है? कई सदस्यों ने कहा कि इंदिरा गांधी कहती हैं कि जब तक अफ्रीका को मानवाधिकार पूरी तरह से नहीं मिल जाएंगे, हम इसके लिए धर्मयुद्ध जारी रखेंगे। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमने डच लोगों के ख़िलाफ़, पोर्तगीज़ लोगों के खि़लाफ़, जहां-जहां भी उनके उपनिवेश रह गए थे, वहां आवाज़ नहीं उठाई? तो अगर हमारे देश में मीसा है, अगर हमारे देश में बिना मुकदमा चलाए किसी को जेल में रखा जाता है और कोई यह बात कहता है तो ऐसा कहने में क्या गलत है? आज तो आलोचना करना ही राजद्रोह हो गया है।

स्वामी पर हुई इस बहस का हवाला देते हुए मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं कि यह बहस इंदिरा गांधी के लगाए उस आपातकाल के दरमियान संसद में हुई थी, जिसके बारे में बहुत-से बुद्धिजीवियों की ज़ुबान यह कहते नहीं थकती है कि इंदिरा जी ने लोकतंत्र की हत्या कर दी थी। राज्यसभा के एक सदस्य ने इस बहस में पुरजोर तरीके से कहा कि स्वामी ने अगर कहा कि इंदिरा गांधी ने प्रेस की आज़ादी का गला घोंट दिया तो यह कौन-सी झूठी बात है? बरुआ जी भले कहें कि इंदिरा इंडिया हैं और इंडिया इंदिरा है। लेकिन हम नहीं मानते कि ऐसा है। इंदिरा जी से हमारे वैचारिक मतभेद हैं। लेकिन हम मानते हैं कि विचारधारा का मुकाबला विचारधारा से होना चाहिए, दमन के ज़रिए नहीं। एक सदस्य को सदन से निष्कासित करना दमनकारी कदम है। ऐसा करने से विचारधारा थोडे़ ही ख़त्म हो जाएगी। ओम मेहता (तत्कालीन गृह राज्यमंत्री) स्वामी को गिरफ़्तार नहीं कर पाए तो उनकी सदस्यता ख़त्म करने का प्रस्ताव ले कर आ गए हैं।

एक और सदस्य ने इस बहस में कहा कि इस देश में विपक्ष का रहना ज़रूरी है। लेकिन कांग्रेस-अध्यक्ष देवकांत बरुआ कहते हैं कि विपक्ष अप्रासंगिक हो गया है। क्या कांग्रेस के अध्यक्ष को ऐसा रवैया और ऐसी सोच रखनी चाहिए? आप कहते हैं कि भारत का लोकतंत्र दुनिया में सबसे महान है। लेकिन लोकतंत्र का मतलब होता है विपक्ष की भूमिका। पर आप तो विपक्ष को अपनी बात कहने का मौक़ा ही नहीं देते। सवाल यह है कि क्या विपक्ष इस देश में काम कर सकता है? क्या विपक्ष इस देश में सत्ता पक्ष का विरोध कर सकता है? स्वामी ने भारत की कोई आलोचना नहीं की है। उन्होंने भारत के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा है। उन्होंने भारत की सरकार के बारे में कहा है। सरकार एक राजनीतिक दल चलाता है। मैं भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि इंदिरा इज नॉट इंडिया, इंडिया इज़ नॉट इंदिरा।

कमलापति त्रिपाठी ने 15 नवंबर 1976 को बहस का जवाब दिया। ओम मेहता ने स्वामी को सदन से निष्कासित करने का प्रस्ताव पेश किया। स्वामी के ख़िलाफ़ आरोप क्रमांक-3 को प्रस्ताव से हटा दिया गया। यानी उन पर विदेशों में भारत के खि़लाफ़ प्रचार करने की तोहमत नहीं लगाई गई। सदन की गरिमा कम करने को ले कर स्वामी की सदस्यता समाप्त करने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया।

आपातकाल को ‘काला अध्याय’ बताने वाले ‘विदेशी धरती’ पर ‘भारत-विरोधी’ प्रचार के आरोप लगा कर राहुल गांधी से माफ़ी की मांग कर रहे हैं। लोकसभा में उनके बारे में बाक़ी-तो-बाक़ी, चार मंत्रियों ने भी हर तरह की बातें कहीं। लेकिन राहुल को सांसद के नाते अपनी बात कहने का हक़ नहीं मिल रहा है। उन्हें लोकसभा से निष्कासित करने की बातें उड़ाई जा रही हैं। उस काले अध्याय के रचयिताओं ने तो स्वामी के खि़लाफ़ देश-विरोध के आरोप वापस ले लिए थे। लेकिन आज राहुल पर यह आरोप लगा कर ख़ुद एक और भी ज़्यादा काला अध्याय लिखने का उपक्रम करने वालों को देख मैं तो भौचक हूं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

Published by पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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