राजधानी दिल्ली और राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर का हर शहर वायु प्रदूषण की आपदा का शिकार है। यह अलग बात है कि सरकार इसे आपदा स्वीकार करने को तैयार नहीं है। संसद के शीतकालीन सत्र में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री प्रतापराव जाधव ने राज्यसभा में बताया कि ऐसा कोई आंकड़ा देश में उपलब्ध नहीं है, जो किसी बीमारी या मृत्यु को सीधे तौर पर वायु प्रदूषण से जोड़ सके। उन्होंने यह भी कहा कि लोगों को सांस से संबंधित जो बीमारियां हो रही हैं उनमें हो सकता है कि एक कारण वायु प्रदूषण हो। इस तरह सरकार ने पल्ला झाड़ लिया और यह भी कह दिया कि सिर्फ वायु प्रदूषण से कोई बीमारी हो रही है या किसी की मौत हो रही है, इसका न कोई प्रमाण है और न कोई आंकड़ा है।
दूसरी ओर लोकलसर्कल्स की ओर से कराए गए ताजा सर्वेक्षण में दिल्ली में 82 फीसदी लोगों ने माना है कि है उनके किसी न किसी परिचित या रिश्तेदार को वायु प्रदूषण के कारण सांस से जुड़ी बीमारी हुई है। आठ फीसदी लोग दिल्ली छोड़ कर जाने को तैयार हैं और 74 फीसदी लोग इलाज के खर्च को लेकर चिंता में हैं। यह सर्वे तब का है, जब पड़ोस के राज्यों में किसानों का पराली जलाना बंद हो चुका है और फिर भी एक्यूआई सरकारी रीडिंग की अधिकतम सीमा पांच सौ तक पहुंचा हुआ है!
असल में वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एक्यूआई का लगातार ‘खराब’ या ‘बेहद खराब’ या ‘गंभीर’ और ‘खतरनाक’ श्रेणी में होना सिर्फ दिल्ली और एनसीआर की परिघटना नहीं है। धीरे धीरे यह पूरे देश की परिघटना बन गई है। देश के बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों तक हवा की खराब गुणवत्ता करोड़ों लोगों के जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रही है। गंगा यमुना के मैदानी इलाके सबसे ज्यादा प्रभावित हैं लेकिन देश के ज्यादातर शहरों में हवा के साथ जो अलग अलग साइज का पार्टिकुलेट मैटर यानी पीएम लोगों के फेफड़ों में भर रहा है वह लोगों की उम्र घटा रहा है। वह छोटे छोटे बच्चों के फेफड़े भी खराब कर रहा है।
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर की रिपोर्ट के मुताबिक 2025 में देश के ढाई सौ से ज्यादा शहरों में हवा की गुणवत्ता को मॉनिटर किया गया और उनमें से डेढ़ सौ शहरों में पीएम 2.5 की मात्रा इसके लिए निर्धारित राष्ट्रीय औसत से ज्यादा मिली। इसके मुताबिक गंगा यमुना का मैदानी इलाका सबसे ज्यादा प्रभावित है। 2025 में दिल्ली में सर्दियों के मौसम में प्रति घनमीटर हवा में पीएम 2.5 का स्तर 107 से 130 रहा, जो भारत में तय राष्ट्रीय औसत 60 से दोगुने से भी ज्यादा है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्लुएचओ ने तय किया है कि प्रति घनमीटर पीएम 2.5 का औसत 15 होना चाहिए। इसके मुताबिक आठ गुने से भी ज्यादा है। पीएम 2.5 सबसे बारीक और खतरनाक धूल कण होते हैं, जो सांस के साथ शरीर में जाते हैं और रक्त कोशिकाओं में घुल कर शरीर के हर हिस्से में पहुंच जाते हैं। ये समान रूप से हृद्य को, मस्तिष्क को और दूसरे अहम अंगों को नुकसान पहुंचाते हैं।
हवा की खराब गुणवत्ता दिल्ली के लोगों के जीवन को किस तरह से मुश्किल में डाल रही है इसको शिकागो यूनिवर्सिटी के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स से समझा जा सकता है। इसके मुताबिक भारत में 46 फीसदी यानी लगभग आधे भारतीय ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां वायु प्रदूषण के कारण औसत आयु में कमी आ रही है। अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन के ओर से तय पीएम 2.5 के औसत को आधार मान कर देखें तो दिल्ली में प्रति व्यक्ति औसत आयु आठ साल कम हो रही है। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट 2025 के मुताबिक 2023 में वायु प्रदूषण के कारण भारत में 20 लाख लोगों की मौत हुई है। प्रदूषण से जुड़ी मृत्युदर में सन 2000 के बाद से 40 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। सोचें, एक तरफ इतनी बड़ी संख्या में मौतें हो रही हैं, जो किसी न किसी रूप में प्रदूषण से जुड़ी हैं तो दूसरी ओऱ सरकार कह रही है कि उसके पास वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारी और मौत का कोई आंकड़ा नहीं है!
ऐसा कैसे हो सकता है कि सरकार पीएम 2.5 और पीएम 10 के लोगों की सांस के साथ फेफड़े में और उनकी धमनियों में जाने के असर का आकलन नही कर सके, जबकि यह आज की समस्या नहीं है? दो दशक से ज्यादा समय से सर्दियों में पार्टिकुलेट मैटर्स के हवा के साथ नीचे आने और सांस के रास्ते लोगों के शरीर में प्रवेश करने और रक्त प्रवाह में शामिल होकर कई किस्म की बीमारियों को जन्म देने का खतरा जानकारों द्वारा बताया जा रहा है। पर्यावरण का अध्ययन करने वाली संस्थाओं के साथ साथ स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले जानकार और डॉक्टर लगातार इसे लेकर चेतावनी दे रहे हैं। कई अध्ययन यह बताते हैं कि अगर हवा में पीएम 2.5 के स्तर में 10 अंक की बढ़ोतरी होती है तो लंबे समय में यह मृत्यु दर को आठ फीसदी बढ़ा देता है और यह दिल की बीमारियों को कई गुना बढ़ाता है।
सरकार विदेशी एजेंसियों के आंकड़ों पर सवाल उठा सकती है। लेकिन क्या एम्स दिल्ली की रिपोर्ट को भी खारिज कर सकती है? एम्स दिल्ली का क्लीनिकल डाटा बताता है कि अगर पीएम 2.5 के स्तर में 10 अंक की बढ़ोतरी होती है तो बच्चों में सांस की बीमारियों में 20 से 40 फीसदी तक का इजाफा हो जाता है। उनके फेफड़े के काम करने की क्षमता 10 से 15 फीसदी तक कम हो जाती है। यह मामूली चिंता की बात नहीं है कि देश के छह फीसदी बच्चे अस्थमा जैसी बीमारी से ग्रस्त हो गए हैं। जिस तरह से वायु प्रदूषण दिल और फेफड़े को प्रभावित करता है उसी तरह से यह मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है। रक्त प्रवाह के साथ पीएम 2.5 जब ब्रेन तक पहुंचता है तो कई किस्म की न्यूरो समस्याओं को जन्म देता है। बच्चों में सोचने समझने की क्षमता को कम कर देता है और बड़े लोगों में याद्दाश्त को घटाता है। कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययन से पता चलता है कि पीएम 2.5 की 10 अंक की मात्रा बढ़ने पर डिमेंशिया का खतरा 35 से 50 फीसदी तक बढ़ जाता है।
वायु प्रदूषण का खतरा वैसे तो हर वर्ग के लोगों के लिए है लेकिन सड़क के किनारे रहने वाले और औद्योगिक क्षेत्रों में खुले में रहने वाले लोग इससे ज्यादा प्रभावित हैं। क्षेत्र के हिसाब से देखें तो पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। भारत की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वायु प्रदूषण को सीजनल समस्या मान कर संभालने का प्रयास किया जाता है। सर्दियों में वायु प्रदूषण बढ़ता है तो पराली जलाने से लेकर दिवाली के पटाखों या गाड़ियों के प्रदूषण पर इसका ठीकरा फोड़ा जाता है। इसके बाद ग्रेडेड रिस्पांस एक्सन प्लान यानी ग्रैप के जरिए इसे काबू में करने का प्रयास होता है। लेकिन ग्रैप तात्कालिक उपाय है यह प्रदूषण रोकने का उपाय नहीं हो सकता है। इसकी बजाय पूरे साल गाड़ियों का धुआं, उद्योगों का धुआं, निर्माण और तोड़ फोड़ से उड़ने वाली धूल, कचरा जलाने और हाउसहोल्ड बायोमास को रोकने का प्रयास होना चाहिए। चीन की मिसाल से इसे समझना चाहिए। चीन में भारत से ज्यादा गाड़ियां हैं और ज्यादा धुआं निकलता है लेकिन उसने वायु प्रदूषण पर काबू पा लिया है।


