फ़िल्म का नाम है ‘अब तो सब भगवान भरोसे‘, निर्देशक हैं शिलादित्य बोरा, जिन्होंने इससे पहले कुछ फिल्में बतौर निर्माता बनाई हैं।… फिल्म सोचने पर मजबूर करती है कि समाज में जो कुछ होता, घटता रहता है, उसका बाल मन पर क्या असर होता है? क्या जो कुछ टेलीविजन पर परोसा जाता रहा है या परोसा जा रहा है, वह देश की पूरी एक पीढ़ी की सोच नहीं बदल दे रहा है? प्राइम वीडियो पर है, देख लीजिएगा।
सिने-सोहबत
इस बार ‘सिने-सोहबत’ में एक ऐसी फ़िल्म पर चर्चा, जो सिनेमाघरों में तो पिछले साल ही आ गई थी लेकिन अब पिछले हफ़्ते ओटीटी पर भी आ चुकी है। फ़िल्म के बारे में रिलीज़ की भनक बहुत कम लोगों को लगी थी। ज़ाहिर है फ़िल्म के साथ वैसा ही हुआ था जो इस स्पेस की बहुत सी ‘इंडी’ फ़िल्मों के साथ होता है। फ़िल्म उद्योग में प्रचलित टर्म ‘इंडी’ दरअसल अंग्रेज़ी शब्द ‘इंडिपेंडेंट’ का संक्षिप्त रुप है, जो ऐसी फिल्मों के लिए प्रयुक्त होता है, जिनके पीछे भारी भरकम स्टूडियोज़ नहीं होते। फ़िल्म का नाम है ‘अब तो सब भगवान भरोसे’, निर्देशक हैं शिलादित्य बोरा, जिन्होंने इससे पहले कुछ फिल्में बतौर निर्माता बनाई हैं।
छोटे बजट की फिल्म है तो जाहिर है कि फिल्म में कलाकार भी बहुत नामचीन नहीं हैं। विनय पाठक और मनु ऋषि चड्ढा की मौजूदगी फिल्म को बिलकुल अनदेखा, अनजाना सा केटेगरी से बाहर निकालती है। इस फिल्म को देख अगर गिनती के लोगों की सोच पर भी कुछ असर पड़ा तो फिल्मकार की मेहनत सार्थक है।
एक ऐसी फिल्म लेकर जो देखने वालों को ये सोचने पर मजबूर करती है कि समाज में जो कुछ होता, घटता रहता है, उसका बाल मन पर क्या असर होता है? क्या जो कुछ टेलीविजन पर परोसा जाता रहा है या परोसा जा रहा है, वह देश की पूरी एक पीढ़ी की सोच नहीं बदल दे रहा है? और अगर बदल रहा है तो ये बदलाव भी कैसा है ?
चलते हैं फिल्म ‘अब तो सब भगवान भरोसे’ में दिखाए गए देश के एक ऐसे गांव में, जहां बिजली अभी बस पहुंची पहुंची है। गांव वाले कटिया डालकर बिजली जलाने को अपना अधिकार समझते हैं और महाभारत का प्रसारण शुरू होने पर पूजा पाठ होना साप्ताहिक कार्यक्रम है। कहानी उस 1989 के कालखंड की है जब देश में धर्म की रक्षा करने को पूरी एक सोच बलवती होनी शुरू हो गई है। लोग राह चलते मंदिर बनवाने के लिए चंदा ‘वसूल’ रहे हैं और कदम कदम पर मंदिर बना देने की बात कह रहे हैं।
फिल्म ‘अब तो सब भगवान भरोसे’ कहानी दो बच्चों की है। गांव में कुएं की जगत पर बैठकर दोनों नाग लोक और नर्क लोक पर चर्चा कर रहे हैं। स्कूल की पढ़ाई में मन लगता नहीं है। जिले के बड़े अफसर के आने पर जब सवाल सूर्य ग्रहण का आता है तो बड़ा बच्चा धरती और चंद्रमा की सापेक्षिक गति की बात भूलकर राहु और केतु की कथा समझाने लगता है। गलती बच्चे की नहीं क्योंकि प्रारंभिक शिक्षा उसने गांव के जिन पंडित जी से पाई, उन्होंने कक्षा में पढ़ाया ही यही था। पंडित जी और भी बहुत कुछ पढ़ाते हैं। सत्यनारायण की कथा पूरी होते ही पति के बंबई से गांव पहुंच आने को वह धर्म का ही चमत्कार बताते हैं। बस पंडितजी ये नहीं बता पाते हैं कि आखिर सत्यनारायण कथा के पांचों अध्यायों में जिस कथा का जिक्र बार बार आता है, वह कथा आखिर क्या है? धर्म आस्था का प्रश्न है और जहां आस्था हो वहां भला प्रश्न की क्या जरूरत! घर के दोनों बच्चे पूरी तरह से ‘धार्मिक’ हो चुके हैं। पड़ोस में बसे मुसलमानों के गांवों के बारे में उनकी जानकारी यही है कि वहां असुर रहते हैं। तो वह निकल पड़ते हैं हाथ में तीर कमान लेकर असुर मारने। दिक्कत बस ये है कि धारावाहिक ‘महाभारत’ में जो मंत्र पढ़कर तीर मारे जाते हैं, वे मंत्र उन्हें पंडितजी सिखा नहीं रहे..!
राम जन्मभूमि आंदोलन के शुरुआती दिनों की पृष्ठभूमि में रची गई ये कहानी सुधाकर की है। सुधाकर नीलमणि एकलव्य और मोहित चौहान की पटकथा कई मुद्दों को छूती है, जिनमें अज्ञानता और ब्रेनवॉशिंग के खतरे तथा लचीले दिमागों को जिम्मेदारी से पोषित करने और शिक्षित करने की आवश्यकता शामिल है। जो बच्चे उस दौर में बड़े हुए हैं, उन्हें शिलापूजन से लेकर घरों पर भगवा ध्वज फहराने की घटनाएं अब भी याद हैं। मिश्रित आबादी वाले गांवों में प्रेम से रहते आए लोगों में ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के आने तक भी खलल नहीं पड़ा था। लेकिन, ऐसा क्या हुआ कि यही कहानियां अपने अलग रूप में सुनाने वालों के पीछे धीरे धीरे ऐसा मजमा लगना शुरू हुआ कि बात छह दिसंबर तक जा पहुंची। ये पूरी की पूरी फसल तो फिल्म ‘अब तो सब भगवान भरोसे’ नहीं दिखाती है लेकिन हां जिन जुगत से ये फसल लहलहाई, वह खेती और उसके बीजों का मुआयना शिलादित्य बोरा अपनी इस फिल्म में बखूबी कराते हैं।
इस फिल्म को बनाने में काफ़ी मेहनत की गई है। लिलुडीह के प्राथमिक विद्यालय के छात्रों को अभिनय सिखाकर उन्होंने उनसे फिल्म में एक्टिंग कराई है। देवघर में जहां फिल्म की शूटिंग हुई है, वहां के तमाम स्थानीय लोग भी फिल्म के कलाकार बन गए हैं। भोला बने सतेंद्र सोनी ही फिल्म के असल नायक हैं। बालपन की बदमाशियां, अंगड़ाइयां और गुस्ताखियां अपने अभिनय में समेटे सतेंद्र ने हाफ पैंट में ही बड़े हो जाने वाले किशोर का किरदार बखूबी निभाया है। इन दिनों गांव, देहात और शहरों में एक खास संगठन के कर्ताधर्ता बन चुके कइयों को इस किरदार में अपना बचपन नजर आएगा। भोला अगर गरम दल का अगुआ है तो उसका छोटा भाई शंभू नरमपंथी है। फिल्म के क्लाइमेक्स का जो इशारा है वह सामाजिक विसंगति का एक और कटु सत्य है। विनय पाठक इन बच्चों के नाना बाबू बने हैं। मछलियों को आटे की गोली खिलाते, गांव वालों को टीवी और एंटीना का मतलब समझाते नाना बाबू के किरदार में विनय ने बहुत ही सहज अभिनय किया है।
फिल्म ‘अब तो सब भगवान भरोसे’ में दो कलाकारों का अभिनय खासतौर से गौर करने लायक है। एक तो बोकारो बाबा बने मनु ऋषि चड्ढा जो हैं तो फिल्म में मेहमान कलाकार की भूमिका में लेकिन जब भी वह परदे पर दिखते हैं फिल्म को रोशन कर जाते हैं। गांव का पंडित तो घर के बाहर लकीर खींचकर उसे उसके बाहर ही रहने तक को कह देता है। वह भी उस शख्स के घर के बाहर जो उसे सत्यनारायण की कथा में शामिल होने तक को राजी कर लाया था।
तकनीकी तौर पर फिल्म ‘अब तो सब भगवान भरोसे’ अपनी सिनेमैटोग्राफी से काफी प्रभावित करती है। खासतौर से सुरजोदीप घोष ने जिस तरह से देवघर के आसपास के इलाकों को कहानी के साथ एक पात्र की तरह विकसित किया है, वह देखने लायक है। ग्रामीण जीवन की सहजता को उन्होंने अपने कैमरे से गति दी है। अपने पिता को संदेश भेजने के लिए पतंग लेकर गांव के पास के टीले तक पहुंचने के लिए भागते भोला और शंभू वाला दृश्य यहां गौर करने लायक है। फिल्म की पटकथा में थोड़ा और काम करने की जरूरत नजर आती है क्योंकि पूरी फिल्म आखिर के कुछ मिनटों में आकर एकदम से बहुत कुछ कहने की कोशिश करने लगती है।
फिल्म की एक कमजोर कड़ी इसका संगीत भी है। ‘इंडियन ओशन बैंड’ से फिल्म में एक दो ऐसे गीतों की उम्मीद थी जो लोगों को फिल्म की आत्मा महसूस करने का और करीब से मौका दे सकें। मगर ये हो न सका।
बावजूद इन सबके, इस फ़िल्म को एक ज़रूरी और विचारोत्तेजक फ़िल्म की श्रेणी में तो रख ही सकते हैं। प्राइम वीडियो पर है, देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़” के होस्ट हैं)