सवाल है कि अगर चुनाव आयोग को किसी तरह की गड़बड़ी करनी होती तो यह सभी पार्टियों को इस काम में क्यों सम्मिलित करता? इस पूरे अभियान में लाखों लोग शामिल हैं। चुनाव आयोग की ओर से 78 हजार के करीब बूथ लेवल अधिकारी यानी बीएलओ हैं तो राज्य के सभी राजनीतिक दलों की ओर से नियुक्त एक लाख से ज्यादा बीएलए हैं। अगर मतदाताओं के सत्यापन में किसी प्रकार की गड़बड़ी होगी तो क्या इतने लोगों की नजर में नहीं आएगी?
किसी भी सशक्त लोकतंत्र के लिए मतदाता सूची की शुद्धता सबसे पहली शर्त होती है। भारत का चुनाव आयोग इस प्राथमिक शर्त को पूरा करने के लिए बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान चला रहा है। हालांकि लगातार चुनावी हार से पस्त समूचा विपक्ष इस अभियान के विरूद्ध एकजुट हो गया है। पहले चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठाया गया। फिर आंदोलन के नाम पर गुंडागर्दी के जरिए बिहार बंद करा कर चुनाव आयोग पर दबाव बनाने का प्रयास हुआ और उसके साथ ही सर्वोच्च अदालत में अनेक याचिकाएं दायर करके इसे रोकने का प्रयास हुआ। परंतु विपक्ष का हर प्रयास असफल हो गया। सर्वोच्च अदालत ने मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। न्यायालय ने चुनाव आयोग को यह सलाह जरूर दी कि वह नागरिकों की पहचान के लिए वैध दस्तावेज के तौर पर आधार कार्ड, राशन कार्ड और मनरेगा कार्ड को भी मान्यता देने पर विचार करे। ध्यान रहे सर्वोच्च अदालत ने इसके लिए भी आदेश नहीं दिया। इसका अर्थ है कि चुनाव आयोग जो अभियान चला रहा है और उसमें जिन दस्तावेजों के जरिए नागरिकों का सत्यापन किया जा रहा है वह सही है और लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
विपक्षी पार्टियों ने बिहार विधानसभा चुनाव से पहले मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान को लेकर जो सबसे बड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी वह ये थी कि इसके जरिए पिछले दरवाजे से राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी लाने का प्रयास किया गया है। यह आरोप भी निराधार है। सर्वोच्च अदालत ने गुरुवार, 10 जुलाई को सुनवाई के दौरान यह सवाल उठाया कि चुनाव आयोग कैसे नागरिकता का सत्यापन कर सकता है, जबकि यह काम केंद्रीय गृह मंत्रालय का है? इसके जवाब में चुनाव आयोग ने बताया कि जन प्रतिनिधित्व कानून, 1950 की धारा 16 में साफ साफ लिखा है भारतीय नागरिकता एक व्यक्ति के लिए चुनाव में मतदान करने के लिए आवश्यक योग्यता है। इसलिए किसी को व्यक्ति को भारत के किसी भी राज्य का मतदाता बनाने से पहले उसकी नागरिकता का सत्यापन अनिवार्य है। इसके बाद अदालत का सवाल था कि अगर नागरिकता का सत्यापन इतना जरूरी है तो उसके लिए इतना कम समय क्यों दिया गया? इसका भी जवाब भी मुश्किल नहीं है। बिहार में आखिरी बार मतदाता सूची का गहन पुनरीक्षण 22 साल पहले 2003 में हुआ था और तब भी यह प्रक्रिया एक महीने में ही पूरी कर ली गई थी। इस बार भी अभी गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया समाप्त होने में दो हफ्ते का समय बाकी है और लगभग 80 फीसदी लोगों ने मतगणना प्रपत्र भर कर उसे बूथ लेवल के अधिकारियों यानी बीएलओ को जमा कर दिया है। इससे स्पष्ट है कि कम समय दिए जाने की विपक्ष की आशंका भी निराधार है। इसके बाद भी चुनाव आयोग ने आपत्तियों के लिए एक महीने का समय निर्धारित किया है। इसका मतलब है कि अंतरिम मतदाता सूची के प्रकाशन के बाद अगर किसी व्यक्ति का नाम उसमें छूट गया है तो वह आपत्ति दर्ज कराके अपना नाम जुड़वा सकता है।
असल में चुनाव आयोग अपनी संवैधानिक सीमाओं में रह कर ही यह काम कर रहा है। संविधान के अनुच्छेद 326 और जन प्रतिनिधित्व कानून व निर्वाचन पंजीकरण नियमावली 1960 के तहत चुनाव आयोग मतदाता सूची का पुनरीक्षण कर रहा है और उससे पहले मतदाताओं का सत्यापन किया जा रहा है। ध्यान रहे विपक्षी पार्टियां ही चुनाव आयोग पर मतदाती सूची की गड़बड़ियों के आरोप लगाती रहती हैं। कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद आरोप लगाया कि पांच महीने में कैसे 41 लाख मतदाता बन गए। परंतु उन्हीं विपक्षी पार्टियों को मतदाता सूची में सुधार का अभियान भी कबूल नहीं है! ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं? अगर चुनाव आयोग को लग रहा है कि मतदाता सूची में अशुद्धि है, उसमें फर्जी नाम जोड़े गए हैं, उसमें घुसपैठियों के नाम शामिल कराए गए हैं या नामों का दोहराव है यानी एक ही व्यक्ति के नाम कई जगह दर्ज हैं तो उसको ठीक करना आयोग की ही जिम्मेदारी है। वही काम चुनाव आयोग कर रहा है और इसमें उसने सभी राजनीतिक दलों की भागीदारी भी सुनिश्चित की है।
चुनाव आयोग ने गहन पुनरीक्षण के काम में सभी पंजीकृत पार्टियों की ओर से अधिकृत बूथ लेवल एजेंट्स यानी बीएलए नियुक्त करने का अधिकार दिया है। बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी राजद ने करीब 50 हजार बीएलए नियुक्त किए हैं। इन बूथ लेवल एजेंट्स को अधिकार है कि वे हर दिन 50 मतगणना प्रपत्र जमा करवा सकते हैं। सवाल है कि अगर चुनाव आयोग को किसी तरह की गड़बड़ी करनी होती तो यह सभी पार्टियों को इस काम में क्यों सम्मिलित करता? इस पूरे अभियान में लाखों लोग शामिल हैं। चुनाव आयोग की ओर से 78 हजार के करीब बूथ लेवल अधिकारी यानी बीएलओ हैं तो राज्य के सभी राजनीतिक दलों की ओर से नियुक्त एक लाख से ज्यादा बीएलए हैं। अगर मतदाताओं के सत्यापन में किसी प्रकार की गड़बड़ी होगी तो क्या इतने लोगों की नजर में नहीं आएगी? इसलिए स्पष्ट है कि चुनाव आयोग के इस अभियान के ऊपर राजनीतिक कारणों से सवाल उठाए जा रहे हैं और मतदाताओं को गुमराह करने का प्रयास किया जा रहा है। विपक्षी पार्टियों को बेचैनी हो रही है कि उन्होंने जो फर्जी मतदाता बनवाएं हैं उनके नाम कट जाएंगे। यह बेचैनी बिहार के सीमांचल के इलाके को लेकर ज्यादा है, जहां आबादी से 25 से 30 फीसदी ज्यादा आधार कार्ड बने हैं और इसी अनुपात में फर्जी मतदाता भी बने हो सकते हैं।
बिहार की 2024 की मतदाता सूची के मुताबिक राज्य में कुल 7.89 करोड़ मतदाता है। इनमें से 4.96 करोड़ मतदाताओं को पहले ही चुनाव आयोग ने राहत प्रदान कर दी है। इन करीब पांच करोड़ मतदाताओं के नाम 2003 की मतदाता सूची में दर्ज हैं। इसलिए उनको सिर्फ अपने नाम का सत्यापन करना है। उन्हें किसी किस्म का दस्तावेज नहीं देना है। बचे हुए करीब तीन करोड़ लोगों में से एक बड़ा समूह ऐसे लोगों का है, जिनके माता या पिता का नाम 2003 की मतदाता सूची में शामिल है। ऐसे लोगों के लिए भी प्रक्रिया बहुत आसान है। इनके अलावा जो लोग बचते हैं उनको चुनाव आयोग की ओर से बताए गए 11 दस्तावेजों में से कोई एक दस्तावेज जमा करना है। इनमें जन्म प्रमाणपत्र, निवास प्रमाणपत्र, मैट्रिक का प्रमाणपत्र, पेंशन या नौकरी के दस्तावेज, जाति प्रमाणपत्र, वन अधिकार, भूमि या मकान के अधिकार का प्रमाणपत्र आदि शामिल हैं।
सर्वोच्च अदालत के सामने यह सवाल आया कि आधार, मनरेगा और राशन कार्ड को क्यों नहीं स्वीकार किया जा रहा है? अदालत ने इस पर आयोग को सलाह भी दी। लेकिन समस्या यह है कि इन दस्तावेजों से किसी की नागरिकता प्रमाणित नहीं होती है, जो कि मतदाता बनने की अनिवार्य शर्त है। ध्यान रहे आधार कार्ड बनाने में बहुत सख्त नियमों का पालन नहीं हुआ है। विधायक या पार्षद के लिख कर दे देने भर से किसी का आधार बन जाता है। तभी राजनीतिक दलों के सदस्यों ने बड़ी संख्या में फर्जी आधार कार्ड बनवाए। उसके आधार पर मतदाता सूची में फर्जी नाम शामिल कराए गए। फर्जी राशन कार्ड बनवाए गए। फर्जी मनरेगा कार्ड बनवाया गया। फर्जी आयुष्मान कार्ड बनाया गया। इसके बाद इन सबका इस्तेमाल करके सरकारी खजाने को हजारों करोड़ रुपए का चूना लगाया गया। इसे सिर्फ एक तथ्य से समझा जा सकता है कि मुफ्त अनाज योजना का लाभ लेने वाले लाभार्थियों की जांच हुई तो करीब छह करोड़ फर्जी राशन कार्ड पकड़े गए और उन्हें रद्द किया गया। इस तरह का फर्जीवाड़ा आयुष्मान भारत योजना से लेकर सामाजिक कल्याण की हर योजना में पकड़ा जा रहा है। बैंकों खातों से लेकर क्रेडिट कार्ड तक केवाईसी पर इसलिए इतना जोर दिया जा रहा है कि फर्जीवाड़ा रोका जा सके। यही काम चुनाव आयोग मतदाता सूची को लेकर कर रहा है, जो कि उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी है।
ध्यान रहे आधार कार्ड जन्म तिथि या आवास प्रमाण पत्र के दस्तावेजों के सत्यापन के बगैर भी बने हैं। इसलिए उनको कैसे नागरिकता के सत्यापन का दस्तावेज माना जा सकता है? उसके साथ निश्चित रूप से कोई ऐसा दस्तावेज दिया जाना चाहिए, जिससे नागरिकता प्रमाणित हो। इसलिए आधार के दम पर बने किसी दूसरे दस्तावेज को भी नागरिकता प्रमाणित करने का दस्तावेज नहीं माना जा सकता है। अब तो आधार पर ही यह डिस्क्लेमर लिखा जाने लगा है कि यह सिर्फ पहचान का दस्तावेज है, इससे नागरिकता प्रमाणित नहीं होती है। सेना से जुड़े संवेदनशील जगहों पर जाने के लिए आधार के जरिए किसी व्यक्ति का पास नहीं बन सकता है। संभवतः इन्हीं कारणों से चुनाव आयोग ने आधार, मनरेगा कार्ड और राशन कार्ड को जरूरी दस्तावेजों की सूची से बाहर रखा। आधार के अलावा किसी अन्य दस्तावेज के जरिए नागरिकता का सत्यापन इसलिए जरूरी है ताकि मतदाता सूची की पवित्रता सुनिश्चित की जा सके।
चुनाव आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि बिहार के बाद धीरे धीरे सभी राज्यों में इसे लागू किया जाएगा। सबसे पहले पश्चिम बंगाल और असम के साथ साथ उन तीन अन्य राज्यों में मतदाता सूची का गहन पुनरीक्षण होगा, जिन राज्यों में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। अगर चुनाव आयोग ने यह चक्र जारी रखा तो 2029 के लोकसभा चुनाव तक सभी राज्यों की मतदाता सूची की अशुद्धियां दूर कर दी जाएंगी। फर्जी नाम काट दिए जाएंगे। घुसपैठियों या विदेशी नागरिकों के नाम भी हटा दिए जाएंगे और नामों का दोहराव भी समाप्त हो जाएगा। मतदाता सूची की पवित्रता सुनिश्चित करके ही चुनाव यानी लोकतंत्र के महापर्व की शुद्धता और निष्पक्षता सुनिश्चित की जा सकती है। ध्यान रहे भारत में शासन की जो संवैधानिक लोकतांत्रिक प्रणाली है उसमें स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सबसे पहली आवश्यकता है। उसके जरिए ही जन प्रतिनिधि चुने जाते हैं, जो देश के 140 करोड़ लोगों के भाग्य से जुड़े निर्णय करते हैं। इसलिए चुनाव की उस पवित्र प्रक्रिया में घुसपैठियों और फर्जी मतदाताओं के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। चुनाव आयोग यही सुनिश्चित करने के लिए बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण करा रहा है। इसका स्वागत और समर्थन होना चाहिए।
(लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशेष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)


