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01-05-2025 Vol 19

संविधान के ‘दोस्त सीता’ को सलाम

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आम तौर पर किसी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव को लोग उसकी ईमानदारी, सादा जीवनशैली और मार्क्सवादी पार्टी के सिद्धांतों में अटूट आस्था के लिए याद करते हैं। येचुरी को लोग इन सब मूल्यों के लिए तो याद कर ही रहे हैं लेकिन- चाहे वो राजनीतिज्ञ हों, पत्रकार हों या आंदोलन के सहभागी हों- वे सब सर्वप्रथम अपने ‘दोस्त सीता’ को याद कर रहे हैं।  एक दृष्टि से शायद ये किसी वामपंथी के लिए सबसे बड़ा सम्मान है क्योंकि आखिर कॉमरेड शब्द का अर्थ ही साथी या दोस्त होता है।

जब से सीताराम येचुरी के असामयिक निधन की खबर आई है तब से सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धांजलि देते संदेशों की बाढ़ आ गई है। आम तौर पर किसी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव को लोग उसकी ईमानदारी, सादा जीवनशैली और मार्क्सवादी पार्टी के सिद्धांतों में अटूट आस्था के लिए याद करते हैं। येचुरी को लोग इन सब मूल्यों के लिए तो याद कर ही रहे हैं लेकिन- चाहे वो राजनीतिज्ञ हों, पत्रकार हों या आंदोलन के सहभागी हों- वे सब सर्वप्रथम अपने ‘दोस्त सीता’ को याद कर रहे हैं।

एक दृष्टि से शायद ये किसी वामपंथी के लिए सबसे बड़ा सम्मान है क्योंकि आखिर कॉमरेड शब्द का अर्थ ही साथी या दोस्त होता है। यह शब्द समाज में आर्थिक और राजनीतिक सत्ता से उत्पन्न नकली पदवियों का प्रतीकात्मक खंडन कर उसके बरक्स इंसानों के बीच नैसर्गिक समानता का सूचक है। सीताराम को दोस्त की तरह याद किया जाना उनके वामपंथी मूल्यों को जीने का प्रमाण है।

सीताराम का जाना एक युग के अंत का इशारा है। उनकी पीढ़ी आजादी के तुरंत बाद उपनिवेशवाद से उपजी भयंकर गरीबी से जूझ रहे भारत में जन्मी थी। उसने नेहरू के समय में अपनी सूझ-बूझ विकसित की थी। वह दौर आत्मकेंद्रित पूंजीवाद के महिमामंडन का नहीं, बल्कि सामूहिकता और समाजवाद के सपनों का दौर था जिसका प्रत्यक्ष राजनीतिक परिलक्षण अमेरिका और सोवियत संघ के संघर्ष में दिखाई देता था। यही कारण था की उस वक्त के इलीट का एक बड़ा हिस्सा वामपंथी और समाजवादी आदर्शों से प्रभावित होकर उन आन्दोलनों से जुड़ा।

तत्कालीन राजनीति में बहस गरीबी के दंश से निपटने और उसको पैदा करने वाली परिस्थितियों के आमूलचूल परिवर्तन के ऊपर केंद्रित होती थी। इस परिपेक्ष में तत्कालीन कांग्रेस और समतावादी विपक्ष में समय-समय पर स्पर्धा और सहयोग का दौर चला। जिसके चलते भारत की लोकतंत्र की जड़ें और गहरी हुईं और राष्ट्रनिर्माण की धारा का रुख सदैव प्रगतिशील दिशा की ओर रहा।

सोवियत संघ के विघटन के साथ ही वामपंथ के महाख्यान पर एक बड़ा आघात हुआ। उसके बाद बाजार के साथ-साथ अस्मिता की राजनीति का भी विस्तार हुआ और संपत्ति के बटवारे की जगह सत्ता में भागीदारी की मांग उठी। वाम मोर्चे की चुनावी ताकत भी लगातार क्षीण होती गई। इस बदलाव ने भारत के लोकतंत्र में वामपंथी मोर्चे को अपनी भूमिका का पुनः आकलन करने पर विवश किया। जहां यह बात सच है कि वामपंथी दर्शन समानता के मूल्य को प्राथमिकता देता है वहीं यह भी सच है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को वह केवल एक साधन मात्र के रूप में देखता है; जबकि उसका साध्य अंत ‘सर्वहारा का राज’ या ‘डिक्टेटरशिप ऑफ द प्रोलेटेरियट’ स्थापित करना है।

दर्शन के इस मूल विरोधाभास के चलते लोकतंत्र में सत्ता और विचार में संतुलन बनाने और सहयोगी और विपक्षी ताकतों की पहचान करने में वामपंथी आंदोलन से चूक होती रही है। इसका एक उदाहरण ज्योति बासु को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना था- जिसको बासु ने ऐतिहासिक भूल करार दिया था।

आज वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति का स्वरुप पूरी तरह बदल चुका है। इसका एहसास मार्क्सवादी नेताओं और विचारकों को भी है। लगातार बदलती वास्तविकताओं के साथ मार्क्सवादी वैचारिकी में भी गंभीर बहसें छिड़ी हुई हैं। इस अनिश्चितता के दौर में सीताराम के दोस्त कहलाने के गंभीर राजनीतिक मायने भी हैं। चूंकि उनके दोस्त बनाने के हुनर के पीछे मूलतः उनका लोकतांत्रिक स्वभाव था। अनेक दोस्तों ने याद किया की जब वे जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में छात्र संघ अध्यक्ष थे तब भी कैसे संवाद की कला में माहिर थे। वे तर्क और तथ्य के आधार पर लोगों को अपने मत की ओर आकर्षित करने की कोशिश करते थे और जहां इसमें असफल होते थे वहां असहमति पर सहमति बना कर हमेशा संवाद जारी रखते थे।

जाहिर सी बात है की ताली एक हाथ से नहीं बजती। आज वे सभी ताकतें जो पिट्ठू पूंजीवाद और नफरत के गठजोड़ के खिलाफ गांधी-अम्बेडकर-भगत सिंह के सपनों के भारत को बचाने और बनाने की लड़ाई लड़ रही हैं ये उन सब पर लागू होता है। किन्तु वामपंथी मोर्चे से यह अपेक्षा इसलिए भी रखी जाती है क्योंकि गैर-भाजपाई खेमें में आज भी सबसे बड़ा वैचारिक संगठन उन्हीं के पास है।

इतिहास के इस खंड की चुनौतियों से निपटने की कुंजी भी शायद सीताराम हमें देकर गए हैं। वर्तमान सरकार ने जब जेएनयू पर हमला कर गोदी मीडिया के जरिये उसके खिलाफ एक सुनियोजित चरित्र हनन का अभियान चलाया था तब सीताराम स्टैंड विथ जेएनयू आंदोलन को समर्थन देने वाले पहले नेताओं में से थे। उन्होंने छात्रों का हौसला बढ़ाते हुए कहा था कि, ‘आधुनिक भारत का क्या स्वरुप होगा इस पर बहस हो सकती है लेकिन यदि फर्जी हिन्दू गौरव के नाम पर आप आधुनिक भारत के आधार पर ही हमला करना चाहते हो तो ये हमें मंजूर नहीं’!

आज संविधान और लोकतंत्र के लिए लड़ रहीं सभी ताकतों की ज़िम्मेदारी है कि वो इस सीख को राजनीतिक रूप से जमीन पर उतारें। वही कॉमरेड सीताराम को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अलविदा दोस्त, आप बहुत याद आओगे…।

अंशुल त्रिवेदी

लेखक कांग्रेस पार्टी के सदस्य एवं भारत यात्री हैं।

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