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सरकार ‘शटडाउन’ फिर भी अमेरिका चल रहा है!

महत्वपूर्ण सबक यह निकलता है कि लोकतंत्र में दलगत राजनीति और प्रशासनिक जिम्मेदारी के बीच संतुलन आवश्यक है। अमेरिका में शटडाउन अक्सर दोनों दलों, डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के बीच वैचारिक टकराव का परिणाम होता है। कर प्रणाली, सामाजिक सुरक्षा या रक्षा बजट जैसी नीतिगत असहमति वहाँ शटडाउन को जन्म देती है।

लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में शासन का संचालन केवल सरकार की नीतियों या सत्तारूढ़ दल की मंशा पर निर्भर नहीं होता, बल्कि संसदीय सहमति, वित्तीय अनुशासन और संस्थागत संतुलन पर भी निर्भर करता है। हर वर्ष अमेरिका में बजट पारित करने की प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न होने वाली तनातनी उसी लोकतांत्रिक संरचना की जटिलता को उजागर करती है। अमेरिका में जब संसद यानी कांग्रेस बजट या खर्च को मंजूरी नहीं देती, तब सरकार के कई विभागों की कार्यवाही आंशिक या पूर्ण रूप से ठप हो जाती है जिसे ‘शटडाउन’ कहा जाता है। ऐसे में गैर-जरूरी सेवाओं को बंद करना पड़ता है, कर्मचारियों को बिना वेतन छुट्टी दी जाती है और केवल अत्यावश्यक सेवाएँ जैसे सुरक्षा, रक्षा, स्वास्थ्य व कानून व्यवस्था सीमित रूप में चलती हैं।

इतिहास बताता है कि अमेरिका में 1976 से अब तक दो दर्जन के करीब शटडाउन हो चुके हैं। कई बार ये केवल एक-दो दिन चले तो कई बार हफ्तों तक। उदाहरण के लिए, 2018-19 का ट्रंप प्रशासनकालीन शटडाउन 35 दिनों तक चला, जो अब तक का सबसे लंबा था। परिणामस्वरूप लाखों कर्मियों का वेतन रुका, संघीय एजेंसियाँ बंद हुईं, आर्थिक वृद्धि दर पर असर पड़ा और निवेशकों का भरोसा डगमगाया। वस्तुतः, जब विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अस्थिर होती है, तो बाकी बाजारों में भी अनिश्चितता फैल जाती है।

भारत में भी संसदीय व्यवस्था है, जहाँ बजट संसद में पारित होता है। किंतु यहाँ ‘शटडाउन’ जैसी कोई स्थिति संवैधानिक रूप से संभव नहीं है, क्योंकि वित्त विधेयक यानी मनी बिल के पास न होने की स्थिति में सरकार का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में, यदि वित्त विधेयक पारित नहीं होता तो सरकार तुरंत विश्वास खो देती है और नए चुनाव की घोषणा की जाती है। इसलिए अमेरिका जैसी प्रशासनिक ठहराव की स्थिति भारत में शासन की निरंतरता को पूरी तरह नहीं रोक सकती।

इसके अलावा भारतीय बजटीय प्रणाली अधिक केंद्रीकृत है। राजस्व प्राप्ति, कर निर्धारण और व्यय प्रबंधन की मुख्य शक्ति केंद्र सरकार के पास है। राज्यों को वित्त आयोग और केंद्रीय अनुदान के माध्यम से संसाधन दिए जाते हैं। इस तंत्र में असहमति तो संभव है, लेकिन इसे रोकने के लिए संवैधानिक प्रावधान इतने सशक्त हैं कि पूर्ण सरकारी ठप स्थिति नहीं आती।

फिर भी कल्पना कीजिए कि यदि भारत में किसी कारणवश अमेरिका जैसा ‘शटडाउन’ लगे तो क्या होगा? सबसे पहले इसके परिणाम सबसे निचले स्तर पर महसूस होंगे; रेलवे, बैंकिंग, डाक, स्वास्थ्य केंद्र, शिक्षा और प्रशासनिक कार्यालयों की सेवाएँ बाधित होंगी। करोड़ों सरकारी कर्मचारी वेतन और पेंशन से वंचित होंगे, जिससे प्रत्यक्ष उपभोग घटेगा और बाजार में तरलता संकट बढ़ेगा। इसके साथ ही औद्योगिक उत्पादन और व्यापार पर भी असर पड़ेगा क्योंकि सरकारी आदेश, अनुबंध और सार्वजनिक निवेश रुक जाएंगे। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति तो और भी नाजुक हो जाएगी, क्योंकि कृषि समर्थन मूल्य, मनरेगा और सब्सिडी जैसी योजनाएँ केंद्र की भुगतान प्रक्रिया पर निर्भर हैं।

सरकार चाहे किसी भी दल की हो राजनीतिक रूप से, यह स्थिति भारी अस्थिरता पैदा करेगी। भारतीय जनता के बीच शासन पर से विश्वास उठना शुरू हो जाएगा। विपक्ष इसे सत्तारूढ़ दल की विफलता बताकर जनाक्रोश भड़का सकता है, राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियाँ भारत को अस्थिर अर्थव्यवस्था मान सकती हैं, जिससे पूंजी प्रवाह रुक जाएगा। इस तरह एक ‘शटडाउन’ भारत की अर्थव्यवस्था को करारा झटका दे सकता है।

राष्ट्रीय स्तर पर बजट पारित न होने पर भी राज्यों या स्थानीय सरकारों की गतिविधियाँ कुछ हद तक जारी रह सकती हैं, क्योंकि उनकी वित्तीय स्वायत्तता अधिक है। वहीं, भारत में अधिकांश योजनाएँ केंद्र पर निर्भर हैं। केंद्र और राज्य दोनों के बीच वित्तीय संसाधनों की साझेदारी स्पष्ट रूप से परिभाषित है। यदि केंद्र की निधि रुक जाए, तो राज्यों के संचालन पर भी असर पड़ेगा। इसलिए किसी काल्पनिक ‘भारतीय शटडाउन’ का असर अमेरिका के मुकाबले कई गुना व्यापक और गंभीर होगा।

इस तुलना से एक महत्वपूर्ण सबक यह निकलता है कि लोकतंत्र में दलगत राजनीति और प्रशासनिक जिम्मेदारी के बीच संतुलन आवश्यक है। अमेरिका में शटडाउन अक्सर दोनों दलों, डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के बीच वैचारिक टकराव का परिणाम होता है। कर प्रणाली, सामाजिक सुरक्षा या रक्षा बजट जैसी नीतिगत असहमति वहाँ शटडाउन को जन्म देती है।

भारत में भी संसदीय गतिरोध, हंगामा, या सत्रों का समय नष्ट होना आम है, परंतु यहाँ बजट अवरुद्ध नहीं हो पाता। हालांकि, यह बात सोचने योग्य है कि यदि भारतीय राजनीतिक दल भी अमेरिकी पद्धति की तरह केवल विरोध के लिए विरोध करने लगें, तो नीति निर्धारण की गति पर गंभीर असर पड़ सकता है। भारत को इस खतरे से बचाने के लिए आवश्यक है कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर आर्थिक नीति पर सहमति बनाएँ। कार्यपालिका और विपक्ष दोनों राष्ट्र की दीर्घकालिक शक्ति का आधार है।

भारत के लिए सबसे बड़ा सबक यही है कि राजनीतिक विवेक और आर्थिक जिम्मेदारी का सामंजस्य बनाए राष्ट्र संचालन की साझा ज़िम्मेदारी है। यदि इस संतुलन को हमने बनाए रखा, तो अमेरिकी ‘शटडाउन’ जैसे खतरे कभी भारतीय लोकतंत्र के माथे पर न आएँगे।

By रजनीश कपूर

दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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