महात्मा गांधी का मानना था कि अगर भारत को आजादी मिलनी है तो वो संपर्क की एकजुटता से ही संभव हो सकता है। इसलिए गांधीजी का जोर था कि हिंदी को विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच की संपर्क भाषा बनाया जाए। बच्चों की नींव मजबूत करने वाली शुरुआती शिक्षा मातृभाषा या हिंदी में ही हो। थोड़ा बड़े होने पर फिर अंग्रेजी या कोई भी अन्य भाषा सीखने-सिखाने या पढ़ने-लिखने की भी स्वतंत्रता रहे। खुद गांधीजी ने अंतिम समय तक ग्यारह भारतीय भाषा सीखी थीं।
एक-दूसरे से अपने मन की बात अपन बोल कर या पढ़-लिख कर, खास शैली में करते है। मनसंपर्क साधने की, या बोलने-पढ़ने-लिखने की शैली को अपन अपनी भाषा मानने लगते हैं। मानव जीवन की शुरुआत से ही मनसंपर्क उसके जीवन का आधार रहा है। समय से ही संपर्क की शैली और भाषा में बदलाव भी होते रहे हैं।
रोज़मर्रा के इस्तेमाल से ही किसी भी भाषा का फैलाव या विकास होता है। आज के अति तकनीकी संचार माध्यम के समय में अपनी भाषा या बोली को सहेजने की चुनौती अपन सभी पर रही है। वहीं तकनीक को भी सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे जाने वाली भाषा के लिए खुद को समर्पित करना पड़ा है। आज भाषा के विकास या विनाश का लेना-देना उसके सहारे जुटाए जाने वाले धन से भी हो रहा है। और जहां धन बल व जन बल है वहीं सत्ता मल भी दिखता है!
जब पहली बार क्रिकेट खेलने इंग्लैंड गया तो मजाक में किस्सा सुनने में आता था। एक भारतीय खिलाड़ी ने वहां क्लब में अंग्रेज बच्चों को आपस में खेलते-बात करते देख हैरानी में कहा था, “यार … यहां तो बच्चा-बच्चा अंग्रेजी बोलता है!“ किस्सा सच्चा है या मनगढ़ंत, पता नहीं। लेकिन किस्सा पिछली शताब्दी के आखिरी दशक से भी पहले का है।
मजाक में ही सही मगर किस्सा सोचने पर मजबूर करता है। क्यों अंग्रेजी भाषा का हौवा हम पर आत्महीनता तक हावी रहा है? क्यों महानगरों का माहौल ऐसा बना दिया गया है कि बिना अंग्रेजी पढ़े-बोले कोई शिक्षित नहीं माना जाता? और क्यों आजादी के बाद से आजतक विभिन्न भाषाओं को जोड़ने में हिंदी की जरूरत को अंग्रेजी की जगह नहीं मिल पायी? बेशक आज भाजपा के हिंदुत्व थोपने के अजेंडे में हिंदी को अच्छा बढ़ावा मिला है।
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भाषा का सवाल: हिंदी बनाम अंग्रेजी
मातृभाषा के महत्व का गुणगान बचपन से सुनते आए हैं। मगर शिक्षित होने या दिखाने का सिलसिला तो अंग्रेजी पढ़े-लिखों में ही देखने को मिलता रहा। यहां तक कि 1970 के दशक में दिल्ली के स्कूल में ठीक अंग्रेजी न बोल पाने पर दस पैसे जुर्माना भी देना पड़ता था। माहौल ऐसा था कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे बिना शिक्षा ही पूर्ण नहीं मानी जाती थी।
यह सिलसिला जो आजादी से पहले शुरू हुआ आज भी उससे निजात नहीं मिल पायी है। जिन बच्चों के घर में अंग्रेजी नहीं बोली जाती उनका विकास विदेशी भाषा के प्रति आत्मग्लानि में ही हुआ। आज भी अपने ज्यादातर घरों में अंग्रेजी का इस्तेमाल न के बराबर ही है। फिर क्यों अपनी शिक्षा में अंग्रेजी को ही संपर्क साधने या जोड़े रखने का माध्यम माना गया?
महात्मा गांधी का मानना था कि अगर भारत को आजादी मिलनी है तो वो संपर्क की एकजुटता से ही संभव हो सकता है। इसलिए गांधीजी का जोर था कि हिंदी को विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच की संपर्क भाषा बनाया जाए। अगर हिंदी भारतीय एकता के लिए संपर्क की भाषा बन सके तो अंग्रेजी हुकूमत को भारत छोड़ने पर मजबूर किया जा सकता है।
बच्चों की नींव मजबूत करने वाली शुरुआती शिक्षा मातृभाषा या हिंदी में ही हो। थोड़ा बड़े होने पर फिर अंग्रेजी या कोई भी अन्य भाषा सीखने-सिखाने या पढ़ने-लिखने की भी स्वतंत्रता रहे। खुद गांधीजी ने अंतिम समय तक ग्यारह भारतीय भाषा सीखी थीं। पूरे हिंदुस्तान को अंग्रेजी भाषा सीखने में, या इंग्लिस्तान बनने में कई सौ साल लग सकते हैं।
तमिल लिखने-बोलने वाले राज्य तमिलनाडु ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति में दो के बजाए तीन भाषाओं पर जोर दिए जाने के कारण केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल उठाया। क्यों भाषा के मुद्दे पर उत्तर दक्षिण हो रहा है? क्यों गैर-हिंदी राज्यों पर हिंदी या फिर अंग्रेजी थोपी जाए? सरकार कह तो रही है कि ऐसा नहीं है।
लेकिन ऐसा करते दिख भी नहीं रही है। समाज के मनसंपर्क में भाषाओं को कभी समस्या नहीं माना गया। लेकिन सत्ता द्वारा भाषा का संघर्ष हर कभी खड़ा किया जाता है। चुनाव से पहले ही संघर्ष खड़ा भी होता है। ऐसे में बस सत्ता की मंशा मनसंपर्क साधने की रहे। क्योंकि केंद्र सरकार का हिंदुत्व एजेंडा राज्यों में उनकी मंशा भी दर्शा रहा है।
इसलिए सभी भारतीय भाषाओं को सहेजने संवारने की जरूरत है। और सत्ता की मंशा को समझने की भी। अंग्रेजी की जगह अगर हिंदी को संपर्क भाषा बनना है तो सत्ता को सद्भाव, सौहार्द व समर्पण की भाषा चुननी होगी।
Pic Credit: ANI