हम विश्वगुरु बनने का दावा कर रहे थे और दुनिया आज हमारी तुलना पाकिस्तान से कर रही है। इस से ज़्यादा फ़ज़ीहत और क्या हो सकती है? कूटनीतिक मोर्चे पर इतनी बड़ी विफलता हम ने पहले कभी नहीं देखी। हमारी यह दुर्गति इसलिए हुई कि हम दुनिया को यह यकीन दिलाने में नाकाम रहे कि हमारी लड़ाई आतंक से है, आतंकवादियों से है। दुनिया ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को भारत द्वारा आतंकियों के पाकिस्तान स्थित अड्डों को खत्म करने की कार्रवाई की तरह नहीं देखा, भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष या युद्ध के तौर पर देखा।
मुझे सचमुच फ़िक्र हो रही है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के रोमांचकारी समंदर में पिछले 25 दिनों से डुबकी लगा रहे भारतवाासयों का साबका इस बीच रगों में बहते गर्म सिंदूर से ले कर केंद्र में सत्तासीन राजनीतिक दल द्वारा चौखट-चौखट जा कर सिंदूर की डिब्बियों के वितरण कार्यक्रम की घोषणा से जिस तरह पड़ा है, उस का देश के मानस पर किस तरह का चिरकालिक असर पड़ेगा?
अब चूंकि ‘आपरेशन सिंदूर’ को विद्यालयों के पाठ्यक्रम में जोड़ने की बात भी तय हो गई है, मुझे भावी पीढ़ियों के अंतर्मन पर इस के अच्छे-बुरे प्रभाव की चिंता भी सता रही है। मैं जानता हूं कि अपने आराध्य के आराधक मेरी इस व्यग्रता का मखौल उड़ाएंगे और ज़ाहिर है कि मुझे देशद्रोही तक करार देंगे, मगर इस पूरे दौर ने जिस तरह की आशंकाओं को जन्म दिया है, उन से अपनी आंखें फेर लेने का पराक्रम दिखाना मेरे वश की तो बात है नहीं। मैं इतना ग़ैर-जैविक नहीं कि बट्ठरपन का यह चरम छू सकूं।
इन तीन-साढ़े तीन हफ़्तो में एक नया इतिहास रचा गया है – सेना के शौर्य का नया इतिहास, सकारात्मक सामुदायिक विचारशीलता का नया इतिहास, सत्तासीन राजनीतिकों की प्रचारप्रिय हवस का नया इतिहास, सरकार द्वारा प्रतिपक्ष की अवहेलना के ढीठपन का नया इतिहास और कूटनीतिक नाकामियों का नया इतिहास। ज़रा-सा सवाल करने पर राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिए जाने का एक दशक पुराना चलन इस वक़्त अपने पूरे शबाब पर है। सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग हुई तो कहा गया कि ऐसी बातें करने का यह कोई समय है?
बैठक की अध्यक्षता प्रधानमंत्री से करने का आग्रह हुआ तो कहा गया कि यह कोई समय है? संसद का विशेष सत्र बुलाने की बात हुई तो कहा गया कि यह कोई समय है? विदेशों में भेजे गए प्रतिनिधि मंडलों में शामिल किए जाने वाले लागों पर सवाल उठे तो कहा गया कि इन बातों को उठाने का यह कोई समय है? राहुल गांधी पुंछ के परिवारों से मिलने चले गए तो कहा गया कि यह कोई समय है? पांच दिन बाद राहुल ने प्रधानमंत्री जी को पत्र लिख कर पुंछ के पीड़ित परिवारों पर ध्यान देने का आग्रह किया तो फिर यही बात उठी कि यह कोई समय है?
आप को 17 साल पहले ले चलता हूं। 26 नवंबर 2008 की रात को मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ। 27 की सुबह एनएसजी ने ऑपरेशन शुरू किया। नरेंद्र भाई मोदी 28 नवंबर को होटल ओबेरॉय के बाहर प्रेस कान्फ्रेंस करने पहुंच गए। इस होटल पर भी हमला हुआ था। ऑपरेशन 29 तक चला। बीच ऑपरेशन में गुजरात के मुख्यमंत्री ने महाराष्ट्र की राजधानी पहुंच कर सवाल उठाए। वह सही समय था? मगर आज पहलगाम पर हमले के सवा महीने बाद भी सवाल पूछने वालों को देशद्रोही बताया जा रहा है।
1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ। 20 अक्टूबर से 20 नवंबर तक चला। अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ के नेता थे। युद्ध चल रहा था और वे प्रतिनिधि मंडल ले कर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिले। कहा कि युद्ध की स्थिति स्पष्ट करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाइए। नेहरू तब 73 साल के थे और वाजपेयी 38 साल के। क्या वह सही समय था?
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भारत की कूटनीति चुनौतियाँ और विरोध
मगर उम्र में अपने से 35 साल छोटे विपक्षी सांसद की बात को नेहरू ने अपने ठेंगे पर नहीं रखा। बीच युद्ध में 8 नवंबर को सत्र बुला कर चर्चा की। उस दिन वाजपेयी ने संसद के भीतर नेहरू को बहुत भला-बुरा कहा। बोले कि आप ने रक्षा सेनाओं को तैयारी के बिना युद्ध में झोंक दिया। कहा कि हथियार और क़ायदे की वर्दी तक नहीं है सैनिकों के पास। नेहरू की विदेश नीति पर गंभीर सवाल उठाए।
1963 में इसी मसले को ले कर नेहरू के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव आया। कांग्रेस के जे. बी. कृपलानी ले कर आए। चार दिन बहस चली। नेहरू की लोकसभा में 361 सीटें थीं। जनसंघ की सिर्फ़ 14 सीटें। आज लोकसभा में नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भारतीय जनता पार्टी की 240 सीटें हैं और इंडिया समूह की 237। महज़ 3 सीटों का फ़र्क़ है।
लेकिन मौजूदा प्रधानमंत्री विपक्ष की हर उचित बात को भी अपने ठेंगे पर रखे हुए हैं। नेहरू कुछ भी थे, मगर अलोकतांत्रिक नहीं थे, सांप्रदायिक नहीं थे, झक्कूबाज़ नहीं थे, उन में दुष्टता नहीं थी। जो मानते हैं कि नेहरू ने भारत का नाश कर दिया, वे नेहरू को जानते ही नहीं हैं।
1957 में दोबारा चुने जाने के बाद नेहरू ने फरवरी 1958 में प्रधानमंत्री पद से अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रपति को भेज दिया था। कहा कि मैं दस साल प्रधानमंत्री रह लिया। अब कोई और बने। तब वे 69 साल के भी पूरे नहीं हुए थे। लोग सड़कों पर आ गए। चिट्ठियों और टेलीग्राम्स की झड़ी लग गई। कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक हुई।
कांग्रेस के महाधिवेशन ने सर्वसम्मति से इस्तीफ़ा नामंजूर कर दिया। अमेरिका के आइजनहॉवर ने तब कहा कि नेहरू भारत के लिए ज़रूरी हैं। सोवियत संघ के ख्रुश्चेव ने कहा कि नेहरू को बने रहना चाहिए। मतभिन्नता के बावजूद पूरी दुनिया इस पर एक राय थी कि नेहरू की सेवानिवृत्ति अभी भारत के हित में नहीं है। आज है कोई ऐसा जो कह दे कि मैं 15 साल मुख्यमंत्री रह लिया, 11 साल प्रधानमंत्री रह लिया, अब 75 का होने वाला हूं तो किसी और के लिए कुर्सी खाली करता हूं?
सच्चाई यह है कि पिछले 11 साल में नरेंद्र भाई मोदी ने जो बीज भारत की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक धरती में बोए हैं, उन की वजह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को बहुत नुकसान पहुंचा है। हम विश्वगुरु बनने का दावा कर रहे थे और दुनिया आज हमारी तुलना पाकिस्तान से कर रही है।
इस से ज़्यादा फ़ज़ीहत और क्या हो सकती है? कूटनीतिक मोर्चे पर इतनी बड़ी विफलता हम ने पहले कभी नहीं देखी। हमारी यह दुर्गति इसलिए हुई कि हम दुनिया को यह यकीन दिलाने में नाकाम रहे कि हमारी लड़ाई आतंक से है, आतंकवादियों से है। दुनिया ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को भारत द्वारा आतंकियों के पाकिस्तान स्थित अड्डों को खत्म करने की कार्रवाई की तरह नहीं देखा, भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष या युद्ध के तौर पर देखा।
अनुचर मेरी इस बात का बुरा मानें-तो-मानें, मगर असलियत यही है कि पिछले सवा महीने ने वैश्विक कूटनीति में हमारी नाकामी को नंगा कर दिया है। डॉनल्ड ट्र्ंप एक बार नहीं, दो बार नहीं, आठ-आठ बार व्हाइट हाउस की अटारी से चिल्ला-चिल्ला कर दुनिया को बताते चुके हैं कि भारत और पाकिस्तान का संघर्ष उन्होंने रुकवाया। कूटनीति का यह हाल है कि भारत विरोध करता रह गया और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पाकिस्तान को अरबों-खरबों का कर्ज़ दे दिया।
सर्वदलीयता में प्रधानमंत्री जी का विष्वास होता तो भारत आज किसी और मुक़ाम पर होता। मगर सर्वदलीयता क्या, उन का तो एकदलीयता में भी विश्वास नहीं है। वे अपनी ख़ुद की पार्टी भाजपा की ही कहां परवाह करते हैं? अपनी मंत्रिपरिषद के सहयोगियों को, अपनी पार्टी के साथियों तक को किसी भी मसले पर विश्वास में नहीं लेते हैं। वे तो एकल-व्यक्तिवादी हैं। उन्हें अपने अलावा किसी पर विश्वास ही नहीं है और स्वयं पर ज़रूरत से ज़्यादा विश्वास है। इसी का नतीजा तो देश ग्यारह साल से भुगत रहा है।
Pic Credit: ANI
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