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22-05-2025 Vol 19

प्रकृति का अनुपम उपहार है जीवन

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यह संसार विविध जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों से भरा है। सभी किसी न किसी रूप से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। सभी जीवों एवं पारिस्थितिकी तंत्रों की विभिन्नता एवं असमानता को जैव वैविध्य अर्थात विविधता कहा जाता है। धरातलीय, महासागरीय एवं अन्य जलीय पारिस्थितिकीय तंत्रों में उपस्थित अथवा उससे संबंधित तंत्रों में पाए जाने वाले जीवों के बीच विभिन्नता ही जैव विविधता है। पृथ्वी के विभिन्न आवासों में तरह-तरह के पादप व जंतु जातियों की उपस्थिति को जैव विविधता कहते हैं।

विश्व के समृद्धतम जैव विविधता वाले देशों में भारत सहित सत्रह देश शामिल हैं, जिनमें विश्व की लगभग 70 प्रतिशत जैव विविधता विद्यमान है। विश्व के कुल 25 जैव विविधता के सक्रिय केन्द्रों में से दो क्षेत्र पूर्वी हिमालय और पश्चिमी घाट भारत में है। जैव विविधता के सक्रिय क्षेत्र वह हैं, जहां विभिन्न प्रजातियों की समृद्धता है और ये प्रजातियां उस क्षेत्र तक सीमित हैं। संपूर्ण विश्व का केवल 2.4 प्रतिशत भाग ही भारत में है, लेकिन यहां विश्व के ज्ञात जीव -जंतुओं का लगभग 5 प्रतिशत भाग निवास करता है।

22 मई -विश्व जैव विविधता संरक्षण दिवस

भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण एवं भारतीय प्राणी सर्वेक्षण द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के अनुसार भारत में लगभग 49,000 वनस्पति प्रजातियां एवं 89,000 प्राणी प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत विश्व में वनस्पति विविधता के आधार पर दसवें, क्षेत्र सीमित प्रजातियों के आधार पर ग्यारहवें और फसलों के उद्भव तथा विविधता के आधार पर छठवें स्थान पर है।

भारत में 450 प्रजातियों को संकटग्रस्त अथवा विलुप्त होने की कगार पर दर्ज किया गया है। लगभग 150 स्तनधारी एवं 150 पक्षियों का अस्तित्व खतरे में है, और कीटों की अनेक प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। जीवन में जैव विविधता का काफ़ी महत्व है। इसलिए जैव विविधता में समृद्ध, टिकाऊ और आर्थिक गतिविधियों के लिए अवसर प्रदान कर सकने योग्य पर्यावरण का निर्माण करना आवश्यक है।

जैव विविधता के कमी होने से बाढ़, सूखा और तूफ़ान आदि जैसे प्राकृतिक आपदा के आने का खतरा और अधिक बढ़ जाता है। इसलिए जैव विविधता का संरक्षण बहुत ज़रूरी है। लाखों विशिष्ट जैविक और कई प्रजातियों के रूप में पृथ्वी पर जीवन उपस्थित है और हमारा जीवन प्रकृति का अनुपम उपहार है।

इसलिए प्रकृति प्रदत्त पेड़-पौधे, अनेक प्रकार के जीव-जंतु, मिट्टी, हवा, पानी, महासागर, पठार, समुद्र, नदियों का हमें संरक्षण करना चाहिए, क्योंकि यही हमारे अस्तित्व एवं विकास के लिए काम आती हैं। यही कारण है कि प्राकृतिक एवं पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में जैव विविधता के महत्व को देखते हुए वर्तमान में प्रतिवर्ष 22 मई को विश्व जैव विविधता दिवस अथवा विश्व जैव विविधता संरक्षण दिवस के रूप में मनाने का निश्चय व प्रारंभ संयुक्त राष्ट्र संघ ने किया है।

वनों की सुरक्षा, संस्कृति, जीवन के कला शिल्प, संगीत, वस्त्र, भोजन, औषधीय पौधों का महत्व आदि को प्रदर्शित करके जैव विविधता के महत्व एवं उसके न होने पर होने वाले खतरों के बारे में लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से इसे अन्तर्राष्ट्रीय पर्व के रूप में पूरे विश्व में मनाया जाता है। आज जहां पर्यावरण के जैव वैविध्य अर्थात विविधता के संरक्षण के लिए लोगों में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से विश्व में एक दिवस निर्धारित किया गया है, जिसे पर्व के रूप में मनाया जाता है।

वहीं भारतीय परंपराएं आदि सनातन काल से ही पर्यावरण के जैव वैविध्य को संरक्षित एवं सुरक्षित करने के लिए ही विकसित की गईं हैं। भारतीय संस्कृति सदैव ही प्रकृति और पर्यावरण के महत्व एवं संरक्षण के प्रति जागरूक रही है। पर्यावरण के जैव विविधता के प्रति अगाध प्रेम व समर्पण की भावना वेद, पुराण, उपनिषद, वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस, महाभारत एवं अन्यान्य संस्कृत के ग्रंथों में प्रदर्शित होती है। भारतीय प्राचीन ग्रंथों में जैव विविधता के संरक्षण- संवर्द्धन की महत्ता, आवश्यकता व प्रासंगिकता पर  विशेष महत्व दिया है।

वेदों में निहित है प्रकृति संरक्षण का संदेश

वैदिक मतानुसार प्रकृति, आत्मा अर्थात जीवात्मा और परमात्मा नित्य, अजर- अमर हैं। यही कारण है कि आदि सृष्टि रचना काल में मानव सृष्टि के आरंभिक काल से ही मानव का प्रकृति से अटूट व अन्योन्यान्य संबंध रहा है। पृथ्वी सदैव ही समस्त जीव-जन्तुओं का भरण-पोषण करने वाली रही है।

भूमि, गगन, वायु, आकाश अर्थात अंतरिक्ष अग्नि और नीर -इन पंचतत्वों से सृष्टि की संरचना हुई है। बिना प्रकृति के जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। लेकिन वर्तमान भौतिकवादी युग में विकास के नाम पर मानव ने प्रकृति के सुंदर स्वरूप को क्षति पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जिसके कारण पर्यावरण के समक्ष संकट की उपस्थिति आन खड़ी है।

भारतीय परंपरा में प्रकृति से जुड़े प्रत्येक तत्वों के महत्व के संबंध में गहन विचार करते हुए उसे देवतुल्य मानकर उसकी उपासना की गई है। यहां पंच महाभूत -भूमि, गगन, वायु, आकाश अर्थात अंतरिक्ष अग्नि और नीर के साथ ग्रह-नक्षत्र, नदियां, तालाबों, पर्वत, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं सभी में ईश्वरीय सत्ता को स्वीकारते हुए उनके प्रति आदर-सम्मान की भावना की विशद, महनीय व प्रशंसनीय परंपरा रही है। भारतीय परंपराओं में पर्यावरण मानव का अभिन्न अंग रहा है। और प्रत्येक परम्पराओं के पीछे एक वैज्ञानिक तथ्य सन्निहित है।

सृष्टि विज्ञान के प्रमुख भारतीय ग्रंथ वेद में पर्यावरण संतुलन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी का स्तवन करने की भावना अनेक सूक्तों में की गई है। ऋग्वेद के प्रथम मंत्र ऋग्वेद 1 /1/1में ही अग्नि को पिता के समान कल्याणकारी मानते हुए अग्नि तत्व की स्तुति की गई है-

अग्ने। सूनवे पिता इव नः स्वस्तये आ सचस्व।

ऋग्वेद 1/23/248 में जल के महत्व को प्रदर्शित करते हुए कहा गया है –

अप्सु अन्त:अमृतं, अप्सु भेषजं।

अर्थात- जल में अमृत है,जल में औषधि गुण विद्यमान रहते हैं। इसलिए जल की शुद्धता, स्वच्छता बनाए रखने की सख्त आवश्यकता है।

ऋग्वेद1/555/1976 पृथ्वी की शुद्धता के संबंध में ईश्वर ने मनुष्यों को उपदेश देते हुए कहा है कि समग्र पृथ्वी संपूर्ण परिवेश परिशुद्ध रहे। – पृथ्वी:पू:च उर्वी भव। यह सच है कि पृथ्वी के संपूर्ण परिवेश के परिशुद्ध रहने, नदी, पर्वत, वन, उपवन सबके स्वच्छ रहने, गांव, नगर सबको विस्तृत और उत्तम परिसर प्राप्त होने पर ही जीवन का सम्यक विकास हो सकेगा। भारतीय संस्कृति में पृथ्वी का आधार ही जल और जंगल को माना गया है-

वृक्षाद वर्षन्ति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न संभव:।

अर्थात- वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है। जंगल को आनन्ददायक कहते हैं।

यही कारण है कि भारत में अरण्यों और वन्य जीवों के संरक्षण की प्राचीन, गौरवमयी व विस्तृत परंपरा रही है। पर्यावरणीय तत्वों में समन्वय होना ही सुख शांति का आधार है। दूसरे शब्दों में पदार्थों का परस्पर समन्वय ही शांति है। प्राकृतिक पदार्थों में शांति की वैदिक भावना का उपदेश सेते हुए ऋग्वेद 7/35/3 में कहा गया है कि अन्नादि से युक्त पृथ्वी हमारी शांति के लिए हो।-

शं न उरुची भवतु स्वधाभि:।

-ॠग्वेद 7/35/3

इसी प्रकार यजुर्वेद 36/13 में कहा गया है -पृथ्वी हमारे लिए कंटक रहित और बसने योग्य हो। लेकिन दुखद, चिंतनीय व खेदजनक स्थिति यह है कि प्रकृति के दोहन, शोषण व मर्दन से मनुष्यों ने प्रकृति के नियमों की अवहेलना कर समस्त प्राणियों के जीवन को संकट में डाल दिया है। जीवन निष्कंटक नहीं रह गया है। परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं के रूप में प्रकृति दंड देने से नहीं चूकती है। वैदिक ग्रंथों में प्राकृतिक पदार्थों से कल्याण की कामना को स्वस्ति कहा गया है। स्वस्ति का  अर्थ करते हुए आचार्य सायण ने कहा है- अविनाशं क्षेमं-सुरक्षित क्षेम। निरुक्ताचार्य कहते हैं-

-अलव्धस्य लाभो योग:, प्राप्तस्य संरक्षणं क्षेम:।

अर्थात- अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति योग है तथा प्राप्त का संरक्षण क्षेम। इसलिए सहज सुलभ प्राकृतिक पदार्थों का सुरक्षित रहना ही स्वस्ति है।

इसीलिए भारतीय संस्कृति का प्रारम्भिक काल से ही आकाश, इस विशाल अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, सभी जड़ी- बूटियों, वृक्षों- लताओं और सम्पूर्ण ब्रह्मांड सहित स्वयं परमात्मा में सर्वत्र शांति, सदैव शांति का प्रवाह होने की कामनाकारी स्वस्तिवाचन की परंपरा और शाश्वत उद्घोष रहा है-

ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥

-शुक्ल यजुर्वेद 36/17

इसमें कोई शक नहीं कि मनुष्य को अपने मन, वचन, कर्म, आचरण एवं व्यवहार से प्रकृति के कोप को शांत करके ही अपने जीवन को सुखी और शांत बना सकने की कल्पना करनी चाहिए। इस बात को समझकर हमारे पूर्वजों ने पंच तत्व, नदियों, वनों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों आदि को पूजन, वंदन, स्मरण व अध्यात्म से जोड़ कर उनके संरक्षण, संवर्द्धन, प्रवृद्धन और सम्मान को प्रश्रय दिया है।

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Pic Credit: ANI

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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