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15-07-2025 Vol 19

चीन के लिए ब्रिक्स+ की अब अहमियत नहीं?

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चीन कई मुद्राओं के सह-अस्तित्व और उनके बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर डॉलर का वर्चस्व तोड़ना चाहता है। चूंकि ब्रिक्स+ में इस पर या विश्व सुरक्षा व्यवस्था को नया रूप देने की सामूहिक इच्छाशक्ति अभी नहीं है, तो संभवतः चीन ने इसकी भूमिका पर पुनर्विचार किया है। संभव है कि शी जिनपिंग का रियो ना जाना इसका पहला ठोस संकेत हो।

क्या चीन ने अपनी विश्व रणनीति में ब्रिक्स+ समूह की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन किया है? या वह इस ग्रुप के भीतर अपनी भूमिका फिर से तय करने की प्रक्रिया में है? ये प्रश्न इस खबर के सार्वजनिक होने के बाद उठे हैं कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग 6-7 जुलाई को ब्राजील के रियो द जनेरो में होने जा रहे ब्रिक्स+ शिखर सम्मेलन में भाग नहीं लेंगे। उनकी जगह चीन के प्रधानमंत्री ली चियांग अपने देश के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करेंगे।

चीन में अक्सर ऐसे फैसले तात्कालिकता के आधार पर नहीं लिए जाते। बल्कि किस मंच पर किस स्तर पर नुमाइंदगी करनी है, यह एक दीर्घकालिक रणनीतिक फैसला होता है। चूंकि ब्रिक्स+ शिखर सम्मेलन में अपने प्रतिनिधित्व का स्तर घटाने जैसा कोई एलान चीन ने नहीं किया है, इसलिए इस संबंध में फिलहाल अटकलें ही लगाई जा सकती हैं। मगर कुछ ऐसे संकेत जरूर हैं, जिनसे अटकलों को ठोस आधार मिलता है।

रियो सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन भी हिस्सा नहीं लेंगे। उनकी अनुपस्थिति शी जिनपिंग की घोषणा जितनी अनपेक्षित नहीं है। इसलिए कि यूक्रेन युद्ध शुरू होने के कुछ समय बाद ही अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) ने पुतिन के खिलाफ “युद्ध अपराध” के आरोप में वारंट जारी कर दिया था। ब्राजील इस अदालत की स्थापना संबंधी संधि का सदस्य है। इसलिए वह आईसीसी के वारंट की तामील करने के लिए वचनबद्ध है। ऐसे में पुतिन रियो जाते, तो खुद उनके और ब्राजील दोनों के लिए असहज स्थितियां खड़ी हो सकती थीं। अतः इस एलान में चौंकाने वाला कोई तत्व नहीं था कि रियो में रूसी दल का नेतृत्व विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव करेंगे।

बहरहाल, शी जिनपिंग और पुतिन दोनों की नामौजूदगी की खबर ने इस शिखर सम्मेलन की आभा को मद्धम कर दिया है। चीन और रूस के अलावा भारत और ब्राजील ब्रिक (BRIC) मंच के संस्थापक सदस्य थे। बाद में जब दक्षिण अफ्रीका इससे जुड़ा, तब इस मंच को ब्रिक्स (BRICS) नाम से जाना जाने लगा। अब चूंकि पांच और देश इससे जुड़ गए हैं और दस अन्य देश पार्टनर बन गए हैं, तो इसे ब्रिक्स+ कहा जाता है। इस समूह में फैसले आम सहमति से होते हैं, इसलिए हर सदस्य देश का वजन बराबर है। लेकिन यह एक सैद्धांतिक स्थिति है। व्यावहारिक तौर पर शी और पुतिन को समूह के drivers की भूमिका में देखा जाता रहा है। इस बार ये दोनों शिखर सम्मेलन में नहीं होंगे- तो उस क्या असर होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है।

ब्रिक्स+ या शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे मंचों के शिखर सम्मेलन में सबका ध्यान शी और पुतिन पर टिका रहता आया है। बल्कि किसी भी मंच पर इन दोनों की मुलाकात और उनकी घोषणाएं अब ध्यान के केंद्र में रहती हैँ। मार्च 2023 में शी जिनपिंग राजकीय यात्रा पर रूस गए थे। तब क्रेमलिन में शी ने कहा थाः “यह ऐसे परिवर्तनों का दौर है, जैसे पिछले 100 साल में नहीं हुए। हम इन परिवर्तनों का संचालन कर रहे हैं।” इस पर पुतिन ने कहा थाः “अवश्य, मैं सहमत हूं।”

इन टिप्पणियों को इस बात के संकेत के तौर पर देखा गया कि विश्व व्यवस्था को नया आकार देने के संबंध में ये दोनों नेता साझा नजरिया रखते हैँ। इसके पहले फरवरी 2022 में ये दोनों नेता अपने देशों के बीच “असीमित सहभागिता” (no limits partnership) का एलान कर चुके थे।

ब्रिक्स+ मुख्य रूप से आर्थिक सहयोग पर बातचीत का मंच है। 2022 में यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद रूस पर सख्त प्रतिबंध लगाने और रूस की 300 बिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा को जब्त करने के पश्चिम देशों के फैसले ने ब्रिक्स+ के बीच आपसी आर्थिक सहयोग एवं नई वित्तीय व्यवस्था की पहल को एजेंडे पर सबसे ऊपर ला दिया। डॉलर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय भुगतान व्यवस्था का विकल्प तैयार करने पर चर्चा वहां जोर पकड़ गई।

लेकिन अब तीन साल बाद यह आम आकलन है कि बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी है। इसकी वजह भारत और ब्राजील जैसे देशों की दिलचस्पी ना होना है। भारत तो खुलेआम कहता रहा है कि डॉलर मुक्त भुगतान व्यवस्था बनाने की किसी कोशिश का वह हिस्सा नहीं है। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद जब डॉलर को चुनौती देने वाले देशों को चेताया, तब से ब्राजील भी ऐसी कोशिशों से खुद को अलग दिखाने लगा है। हाल में अमेरिकी दबाव के कारण ब्राजील ने चीन की महत्त्वाकांक्षी परियोजना- बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) से भी दूरी बनाने के संकेत भी दिए हैँ।

दरअसल, ब्रिक्स+ में नए देशों के शामिल होने के बाद नई विश्व व्यवस्था को गढ़ने संबंधी एजेंडे पर आम सहमति बनाना और कठिन हो गया है। हकीकत यह है कि ब्रिक्स+ में पश्चिमी वर्चस्व से मुक्त नई विश्व व्यवस्था को आकार देना चीन के अलावा किसी अन्य देश की वैचारिक प्राथमिकता नहीं है। रूस ने भी यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद खुल कर इस मकसद को अपनाया है। मगर रूस का मकसद वैचारिक या दीर्घकालिक होने के बजाय तात्कालिक जरूरतों से प्रेरित है। बाकी सदस्य देशों में तो अधिकांश ऐसे हैं, जो नई उभरती विश्व व्यवस्था के फायदों में हिस्सा रखना चाहते हैं, मगर पश्चिमी वर्चस्व वाली विश्व व्यवस्था से भी अपने हित साधते रहना चाहते हैं। नतीजा यह है कि समूह के तौर पर ब्रिक्स+ नई विश्व व्यवस्था का वाहक बनता हुआ नहीं दिखा है।

हकीकत यही है कि अमेरिका केंद्रित- विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष संचालित डॉलर आधारित विश्व आर्थिक व्यवस्था (जिसे वॉशिंगटन सहमति- Washington Consensus नाम से जाना जाता है) के लिए जो भी चुनौतियां खड़ी हुई हैं, उसका दायरा द्विपक्षीय स्तर पर है। इसके केंद्र में चीन है। उसके प्रमुख सहयोगी के तौर पर रूस सामने आया है। क्यूबा, उत्तर कोरिया, वेनेजुएला, कोलंबिया, बरकिना फासो और ईरान आदि जैसे देशों ने इसमें अपनी सहायक भूमिका बनाई है। अनेक दूसरे देशों ने दोनों तरफ दांव रख चलने की नीति अपना रखी है। और फिर वो देश हैं, जिन्होंने अपने हित लगभग पूरी तरह पश्चिमी खेमे से बांध रखे हैं। ब्रिक्स+ की भूमिका का सही आकलन इसी वस्तुगत परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए हो सकता है।

निर्विवाद रूप से चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का मकसद नई विश्व व्यवस्था को गढ़ना है। मगर चीन का दावा है कि उसका नजरिया जीत-हार की सोच (zero-sum game) से प्रेरित नहीं है। बल्कि नई व्यवस्था के पीछे मकसद ‘साझा भविष्य वाले विश्व समुदाय’ (community with shared future) का निर्माण करना है। शी जिनपिंग इसे win-win initiative (ऐसी पहल जिसमें सबकी जीत हो) कहते हैं। ऐसी व्यवस्था निर्मित करने की दिशा में चीन अपने तईं ठोस रूप से आगे बढ़ रहा है।

इसी क्रम में चीन के सेंट्रल बैंक- पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना (PBOC) के गवर्नर पान गोंगशेंग ने बीते 18 जून को multi-currency international monetary system का प्रस्ताव दुनिया के सामने रखा। उन्होंने कहा,

              अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था इस रूप में विकसित होनी चाहिए, जिसमें अनेक संप्रभु (सॉवरेन) मुद्राओं का सह-अस्तित्व हो, वे आपस में प्रतिस्पर्धा करें, और एक दूसरे को संतुलित करें। उन्होंने आगाह किया कि किसी एक देश की मुद्रा (मतलब अमेरिकी डॉलर) पर अत्यधिक निर्भरता से व्यवस्थागत जोखिम पैदा होते हैं। ऐसी मुद्रा का राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल हो सकता है, जिसका नुकसान विश्व आर्थिक एवं वित्तीय व्यवस्था को भुगतना पड़ता है।

              इसी क्रम में पान ने डिजिटल युवान (e-CNY) को अंतरराष्ट्रीय डिजिटल मुद्रा के रूप में आगे बढ़ाने का इरादा जताया। कहा कि चीन दूसरे देशों में भी ऐसी डिजिटल वित्तीय व्यवस्था को विकसित करने में मदद देगा। पान ने कहा कि ऐसी सीमा भुगतान प्रणाली के कई परीक्षण पहले से जारी हैं।

              पान ने चीन की मुद्रा रेनमिनबी (युवान) की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय भूमिका की खास चर्चा की। कहा कि रेनमिनबी पहले ही व्यापार फाइनेंसिंग में दुनिया में दूसरी और अंतरराष्ट्रीय भुगतान की तीसरी सबसे प्रचलित मुद्रा बन चुकी है।

              रेनमिनबी की अंतरराष्ट्रीय भूमिका बढ़ाने और चीन में विदेशी निवेश को आकर्षित करन के लिए पान ने कई अन्य उपायों का एलान भी लगे हाथ किया।

नई वित्तीय व्यवस्था को आगे बढ़ाने के क्रम में बीते 26 जून को चीन ने gold vault scheme की शुरुआत की। यह योजना शंघाई गोल्ड एक्सचेंज के माध्यम से संचालित की जाएगी, जिसे PBOC का समर्थन हासिल होगा। अनेक जानकारों का कहना है कि इस योजना के जरिए चीन ने एक बार फिर से स्वर्ण समर्थित मुद्रा योजना (gold backed currency) की शुरुआत कर दी है, हालांकि यह उस तरह नहीं है, जिसे 1971 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भंग कर दिया था। तब तक डॉलर का मूल्य सोने से जुड़ा होता था। तब 35 डॉलर के बदले एक औंस सोना प्राप्त किया जा सकता था। दुनिया की बाकी मुद्राएं डॉलर से संबंधित थीं। इस तरह सभी मुद्राएं परोक्ष रूप से स्वर्ण से जुड़ी हुई थीं।

चीन की नई व्यवस्था में वैसा प्रावधान नहीं है। इसके तहत,

–              बैंक ऑफ चाइना की हांगकांग इकाई एक vault (तिजोरी) रखेगी, जिसके जरिए चीन की मुख्य भूमि के बाहर सोने की अदला-बदली रेनमिनबी से की जा सकेगी। यह अदला-बदली उस रोज के सोने के भाव पर होगी।

–              अब कोई बाहरी कारोबारी हांगकांग vault में सोना जमा करवा कर रेनमिनबी प्राप्त कर सकेगा या अपने पास मौजूद रेनमिनबी के बदले सोना ले सकेगा।

–              ये बात ध्यान देने योग्य है कि अब तक विश्व बाजार में स्वर्ण अनुबंध डॉलर में होते रहे हैँ। इसका मुख्य केंद्र लंदन और न्यूयॉर्क रहे हैं। अब चीनी मुद्रा में हांगकांग में ऐसे अनुबंध करना संभव हो गया है।

–              यह कुल मिला कर डॉलर भुगतान व्यवस्था से अपने कारोबार को अलग करने की चीन की योजना का हिस्सा है। चूंकि चीन की मुद्रा सरकार नियंत्रित है और इसलिए उसमें कारोबारियों को भरोसा नहीं रहता, इसलिए अब स्वर्ण से मुद्रा को जोड़ दिया गया है। स्वर्ण में भरोसा हर युग में रहा है।

–              नई पहल से अधिक से अधिक देश और कारोबारी चीन के साथ अपनी-अपनी मुद्रा में कारोबार के लिए प्रेरित होंगे। आशंका की स्थिति में वे चीनी मुद्रा के बदले सोना पा सकने की स्थिति में होंगे, इसलिए रेनमिनबी का भंडार अपने पास रखने में उन्हें कोई जोखिम महसूस नहीं होगा। इसके साथ ही एक वित्तीय केंद्र के रूप में हांगकांग की हैसियत भी बढ़ेगी।

गुजरे तीन साल से चीन और रूस दोनों की प्राथमिकता दुनिया में आपसी मुद्राओं में भुगतान को बढ़ावा देने की रही है। ये दोनों देश अपने बीच आयात- निर्यात का आज लगभग 90 प्रतिशत भुगतान आपसी मुद्राओं में कर रहे हैं। चीन ने अभियान चला कर विभिन्न देशों के साथ आपसी मुद्राओं में भुगतान के करार किए हैं। इस सिलसिले में नौ दिसंबर 2022 एक अहम दिन रहा, जब अपनी सऊदी अरब यात्रा के दौरान शी जिनपिंग ने खाड़ी सहयोग परिषद के सदस्य देशों के सामने प्रस्ताव रखा था कि वे अपनी प्राकृतिक गैस और कच्चे तेल का कारोबार शंघाई एक्सचेंज में डिजिटल युवान के जरिए करें। अब युवान को सोने से जोड़ कर उस प्रयास को चीन ने और ठोस जमीन प्रदान कर दी है। और इस तरह दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी देखरेख में बनी ब्रेटन वुड्स व्यवस्था का विकल्प चीन ने पेश कर दिया है। तेल और गैस का कारोबार हाल तक सिर्फ डॉलर में होता था, लेकिन अब अनेक देश चीन को युवान में ये कॉमोडिटी बेच रहे हैं।

अब सवाल है कि इस बिंदु एक समूह के रूप में ब्रिक्स+ कहां खड़ा है? तजुर्बा यह है कि इसमें शामिल देशों में नई विश्व व्यवस्था बनाने के मुद्दे पर एकमत नहीं है। विभिन्न देशों के रुख उनके अपने भू-राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थ से तय होते हैं। यह जरूर है कि चीन के साथ द्विपक्षीय संबंध के दायरे में ब्रिक्स+ के ज्यादातर सदस्य और पार्टनर देशों की चीन के आम सहमति है। उनमें से ज्यादातर देश चीन की बीआरआई का हिस्सा हैं। अनेक देश रूस की पहल पर बने यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन (ईएईयू) के सदस्य भी हैं। इस रूप में वे चीन (और रूस) के “मित्र” देश हैं। मगर इस समूह में ऐसे भी देश हैं, जो इस दृष्टि से इत्तेफाक नहीं रखते और खुद को चीन का “प्रतिस्पर्धी” मानते हैं। इसलिए ब्रिक्स+ एक समूह के रूप में नई विश्व व्यवस्था को गढ़ने का इंजन की बनने की अपेक्षा पर खरा नहीं उतरा है।

रियो सम्मेलन का मुख्य विचार (theme) ‘अधिक समावेशी एवं टिकाऊ शासन के लिए ग्लोबल साउथ में सहयोग को मजबूत करना’ (Strengthening Global South Cooperation for More Inclusive and Sustainable Governance) रखा गया है। इसमें व्यापार एवं वित्त विषय के तहत स्थानीय मुद्रा में कारोबार को बढ़ावा देने, वित्तीय व्यवस्थाओं में सुधार और डॉलर केंद्रित स्विफ्ट भुगतान व्यवस्था के विकल्प की तलाश पर भी विचार होगा। मगर बात बहुत आगे बढ़ेगी, इसकी संभावना नहीं है।

तो इस बीच चीन ने द्विपक्षीय कारोबार में अपना व्यावहारिक विकल्प पेश कर दिया है। साथ ही उसने स्पष्ट कर दिया है कि डॉलर की जगह रेनमिनबी को प्रमुख अंतरराष्ट्रीय भुगतान मुद्रा बनाना उसका मकसद नहीं है। बल्कि वह कई मुद्राओं के सह-अस्तित्व और उनके बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर डॉलर का वर्चस्व तोड़ना चाहता है। चूंकि ब्रिक्स+ में इस पर या विश्व सुरक्षा व्यवस्था को नया रूप देने की सामूहिक इच्छाशक्ति अभी नहीं है, तो संभवतः चीन ने इसकी भूमिका पर पुनर्विचार किया है। संभव है कि शी जिनपिंग का रियो ना जाना इसका पहला ठोस संकेत हो।

सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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