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22-05-2025 Vol 19

युद्ध नहीं महायुद्ध: फुले

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अनंत महादेवन और लेखक मुअज्जम बेग की कहानी कहने की ईमानदारी की सराहना की जा सकती है, लेकिन कई स्थानों पर ये सब किसी क्लास के लेक्चर की तरह है। नायकों का कॉन्फ्लिक्ट और सेल्फ़ डाउट मुश्किल से ही आता है और फुले के विचार जीवित अनुभवों की तुलना में टेक्स्ट बुक के पाठ की तरह ज़्यादा लगते हैं।

जॉय सेनगुप्ता और अमित बहल जैसे बेहतरीन अभिनेताओं के बावजूद, बात वैसी नहीं बन नहीं पाई है जिसकी संभावना थी।

सिने-सोहबत

आज के ‘सिने-सोहबत’ में एक ऐसी ज़रूरी फ़िल्म पर विमर्श जो दर्शकों को उनकी आरामतलबी से हटा कर झकझोरने का प्रयास करती है। फ़िल्म का विज़न काफ़ी बड़ा है, जिसमें ऐसे समाज की परिकल्पना की गई है जहां कोई ‘प्रधान’ नहीं, बल्कि सभी ‘समान’ हों। फ़िल्म है ‘फुले’, निर्देशक हैं अनंत महादेवन। महाराष्ट्र के ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्री फुले के जीवन पर बनी फिल्म ‘फुले’ चूंकि एक पूर्णत: व्यावसायिक फिल्म नहीं है, लिहाजा इसमें आम हिंदी फिल्मों जैसा गाना, बजाना और उत्सवधर्मिता नहीं है। ये फ़िल्म सच्ची घटनाओं के दम पर नैरेटिव को आगे बढ़ाती है।

प्रतीक गांधी और पत्रलेखा अभिनीत इस फिल्म में दिल को छू लेने वाले दृश्यों में से एक में, मरने से कुछ दिन पहले, ज्योतिराव फुले आसमान की ओर देखते हुए भगवान से सवाल करते हैं कि क्या उनके दरवाजे निचली जाति के लोगों के लिए खुलेंगे। वह बताते हैं कि कैसे उन्होंने अपने पूरे जीवन में मंदिर को अपने और अपने समुदाय के लिए बंद देखा है। हालांकि यह विशेष दृश्य फिल्म ‘फुले’ के अंत में आता है, लेकिन यह उनके सफ़र के सार को समाहित करता है।

दुखद है कि आज की तारीख़ में बहुत से लोग, खासकर बिलकुल नयी पीढ़ी के दर्शक, ज्योतिराव फुले और हमेशा उनसे कंधे से कंधा मिलाकर साथ देने वाली उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के बारे में नहीं जानते। वे दोनों ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने भारत में महिला शिक्षा के लिए आंदोलन शुरू किया और निचली जाति के लिए लड़ाई लड़ी। हालांकि, यह दुखद है कि इन महान सुधारकों पर बनी पहली हिंदी फिल्म को लेकर समकालीन दर्शकों में ख़ास रूचि नहीं दिख रही है।

शायद फ़िल्म को और दिलचस्प बनाने की रचनात्मक कोशिश की ही नहीं गई या अगर कोशिश हुई हो तो विफल रही। फ़िल्म में फुले का फ़लसफ़ा बिलकुल साफ़ साफ़ तौर पर रेखांकित किया है, जिसमें लड़कियों की शिक्षा की अपनी कोशिशों को दबाने के एक स्वर के जवाब में वो कहते हैं कि अंग्रेज़ों की गुलामी तो सिर्फ सौ साल पुरानी है लेकिन वो जिस गुलामी से लोगों को स्वतन्त्र कराना चाहते हैं वो तीन हज़ार साल पुरानी है।

फिल्म की शुरुआत मैरीगोल्ड के खेतों के वाइड-एंगल शॉट से होती है। धीरे-धीरे, हमें पता चलता है कि फुले को उनका उपनाम उन फूलों से मिला है, जो उनके परिवार ने अंतिम पेशवा शासक द्वारा उनकी पुष्प सेवाओं के लिए दिए गए खेतों में उगाए हैं। देवताओं को फूल चढ़ाए जाते हैं, लेकिन माली को मंदिर से बाहर रखा जाता है। यहां तक कि उसकी छाया भी वर्जित है।

उनके परिवार और तत्कालीन समाज ने इसे शास्त्रों द्वारा निर्धारित आदेश के रूप में स्वीकार कर लिया है, लेकिन फुले सर्वशक्तिमान और मनुष्य के बीच ‘बिचौलियों’ के खिलाफ खड़े हैं। फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरित होकर, वह थॉमस पेन के ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ से उद्धरण देते हैं।

‘फुले’: एक क्रांतिकारी कथा, सपाट चित्रण

अनंत महादेवन धर्म में व्याप्त पाखंड और अव्यक्त बुराई को उजागर करते हैं। ब्राह्मण चाहते हैं कि संख्या में श्रेष्ठ शूद्र औपनिवेशिक सत्ता से लड़ने के लिए हथियार उठाएं, लेकिन वे नहीं चाहते कि वे पढ़ें, लिखें या अपनी बात कहें। सावित्रीबाई की विश्वसनीय सहयोगी फातिमा के माध्यम से, फिल्म लड़कियों की शिक्षा के प्रति मुस्लिम पुरुषों के बीच रूढ़िवादिता की एक खिड़की भी खोलती है, जो हिंदू समाज से अलग नहीं है।

लॉर्ड्स उनके लिए शिक्षा का मार्ग खोलते हैं, लेकिन उन्हें चर्च की ओर ले जाते हैं। एक रणनीतिकार, फुले अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की रणनीति को समझ सकते हैं और उच्च पुजारियों से विदेशी सत्ता का सामना करने से पहले घर को व्यवस्थित करने का आग्रह करते हैं।

फ़िल्म में दर्शकों को कुछ कुछ ऐसे पल भी मिलेंगे जो ऊंची जाति के एक वर्ग के अहंकार पर हंसने पर मजबूर कर देते हैं। जब ब्राह्मणों का एक समूह फुले को खत्म करने के लिए लोगों को भेजता है, तो वह हंसते हुए कहते हैं कि यह पहली बार था जब ब्राह्मणों ने उस पर पैसे खर्च किए थे। जब फुले विवाह की रस्में संपन्न कराते हैं, तो ब्राह्मण विरोध करते हैं और हर्जाना मांगते हैं। फुले पूछते हैं कि क्या वे खुद दाढ़ी बनाने पर नाई को पैसे देंगे। फुले विषम से विषम परिस्थितयों में भी व्यंग्य करने में सक्षम और निर्भीक थे।

फिल्म इस बात को रेखांकित करती है कि परिवार और समाज से विरोध में जाने से पहले फुले के कुछ ब्राह्मण समर्थक दोस्त भी थे। इस फिल्म की मेकिंग की एक अजीब बात ये लगी कि कई बेहद ज़रूरी प्रसंगों जैसे ब्राह्मणों का विरोध, जाति व्यवस्था की फुले की आलोचना; सावित्रीबाई पर गोबर और पत्थर फेंके गए; गर्भवती ब्राह्मण विधवा को आश्रय प्रदान करना और इसी तरह की अन्य बातों को दृश्यों में दिखाने की बजाए टेक्स्टबुक शैली में पढ़ दिया गया है। अगर ये एक प्रयोग है तो बिलकुल बोरिंग है।

अनंत महादेवन और लेखक मुअज्जम बेग की कहानी कहने की ईमानदारी की सराहना की जा सकती है, लेकिन कई स्थानों पर ये सब किसी क्लास के लेक्चर की तरह है। नायकों का कॉन्फ्लिक्ट और सेल्फ़ डाउट मुश्किल से ही आता है और फुले के विचार जीवित अनुभवों की तुलना में टेक्स्ट बुक के पाठ की तरह ज़्यादा लगते हैं।

जॉय सेनगुप्ता और अमित बहल जैसे बेहतरीन अभिनेताओं के बावजूद, बात वैसी नहीं बन नहीं पाई है जिसकी संभावना थी। हालांकि, प्रतीक गांधी अपने अभिनय कौशल में इतने ज़्यादा दक्ष हैं कि संघर्ष की गंभीरता को दर्शाने के लिए इस रचनात्मक सपाटपन में भी गहराई ढूंढ ही निकालते हैं। आत्मविश्वास से भरी चाल, माथे पर शिकन और एक ऐसे व्यक्ति में बदलाव जिसे एहसास होता ह कि उसका मिशन उसके जीवनकाल में पूरा नहीं होगा, प्रतीक अपने लचीले फ्रेम में विभिन्न समयरेखाओं और स्थितियों को समेटते हैं।

पत्रलेखा की परफॉरमेंस किसी 1885 की क़िरदार की तुलना में 2025 की अदाकारा की तरह अधिक लगता है। हां, इस बात में कोई शक नहीं कि दोनों कलाकारों की केमिस्ट्री और आर्गेनिक सेंस ऑफ़ टाइमिंग कई फिल्मकारों को बख़ूबी ये विचार दे सकते हैं कि उन्हें और भी फिल्मों में साथ साथ काम करने का मौक़ा मिलना ही चाहिए।

आपके नज़दीकी सिनेमाघर में है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरिज़” के होस्ट हैं।)

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Pic Credit: ANI

अजीत दुबे

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