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श्रद्धापूर्वक माता–पिता की सेवा ही सच्चा श्राद्ध

महर्षि दयानंद ने कहा थामृतक श्राद्ध अवैदिक है। लेकिन जीवित मातापिता की सेवा ही सबसे बड़ा यज्ञ है। वास्तव में यही वह सत्य है जो हमें याद रखना चाहिए।श्राद्ध का मर्म यही है कि श्रद्धा और सेवा से अपने मातापिता और गुरुजनों का मन प्रसन्न करें। यही पुत्र का कर्तव्य है, यही धर्म है, और यही वास्तविक पितृयज्ञ है।

भारतीय संस्कृति में पितरों का स्मरण केवल एक कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन–दर्शन का हिस्सा है। पीढ़ियों से हम यह मानते आए हैं कि हमारे अस्तित्व का आधार माता–पिता और पूर्वज हैं। वे ही हमारी देह, संस्कार और परंपराओं के वाहक हैं। आश्विन कृष्ण पक्ष में जब पितृपक्ष आता है तो घर–घर में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन की परंपराएँ निभाई जाती हैं। भाद्रपद पूर्णिमा से शुरू होकर अमावस्या तक चलने वाली यह परिपाटी भारतीय परिवारों में एक विशेष समय की तरह देखी जाती है। कहा जाता है कि इन दिनों में पितरों की आत्मा को शांति देने के लिए विशेष प्रार्थनाएँ की जाती हैं और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है।

पौराणिक मान्यता है कि पितरों की पूजा करने से मनुष्य को पुत्र, आयु, यश, कीर्ति, बल, पशुधन, सुख और समृद्धि मिलती है। इस दृष्टि से तो देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी माना गया है। किंतु यदि हम वेदों और वैदिक परंपरा को देखें तो तस्वीर भिन्न दिखाई देती है।

वेदों का दृष्टिकोण

वेदों में पाँच महायज्ञों का उल्लेख है—ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, अतिथियज्ञ, बलिवैश्वदेव और पितृयज्ञ। हर गृहस्थ को प्रतिदिन इनका पालन करने का आदेश दिया गया है। पितृयज्ञ का सीधा अर्थ है—जीवित माता–पिता, आचार्य, गुरु, सास–ससुर और बड़े भाइयों का सत्कार व सेवा करना। यही असली पितृयज्ञ है।

वेद स्पष्ट कहते हैं कि मृत्यु के बाद आत्मा की दो ही गति होती है—या तो वह पुनर्जन्म लेती है, या मोक्ष को प्राप्त होती है। ऐसे में यह मान लेना कि मृतक को पिंडदान और तर्पण से संतुष्टि मिलेगी, वैदिक दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। यदि आत्मा नया शरीर धारण कर चुकी है तो श्राद्ध का क्या अर्थ? और यदि वह मोक्ष को प्राप्त होकर परमात्मा में विलीन हो चुकी है तो उसे किसी भौतिक तर्पण की आवश्यकता ही नहीं।

श्राद्ध और तर्पण का सही अर्थ

श्राद्ध शब्द स्वयं बहुत गहरा है। ‘श्रद्धा’ और ‘सत्य’—इन दोनों का संयोग ही श्राद्ध है। यानी जो भी कर्म श्रद्धा और सत्य से किया जाए वही श्राद्ध कहलाता है। इसी तरह ‘तर्पण’ का अर्थ है ऐसा कर्म जिससे जीवित माता–पिता, गुरुजन और बड़ों का मन तृप्त और प्रसन्न हो। इसलिए वास्तविक श्राद्ध यह है कि हम अपने माता–पिता और गुरुजनों की श्रद्धा से सेवा करें, उन्हें सुख दें, उनके जीवन को सम्मान और सहारा दें।

आज के समय में जब वृद्ध माता–पिता को अकसर अकेला छोड़ दिया जाता है, वृद्धाश्रम भेज दिया जाता है या उपेक्षित कर दिया जाता है—तो पितृपक्ष का सबसे बड़ा संदेश यही है कि हम जीवित माता–पिता की सेवा करें। यही पुत्र का धर्म है और यही सबसे बड़ा श्राद्ध।

शास्त्रीय प्रमाण

वेदों में कहीं भी मृतक श्राद्ध का उल्लेख नहीं है। उलटे वेद यह कहते हैं कि पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला और माता के साथ मधुर व्यवहार करने वाला हो (अथर्ववेद 3/30/2)। पितर शब्द का अर्थ भी ‘पालक’ और ‘रक्षक’ है—जो जीवित होकर हमारी देखभाल करे। मृतक न तो सुन सकते हैं, न आ सकते हैं, न रक्षा कर सकते हैं।

यजुर्वेद (19/57) कहता है कि पितर हमारे वचनों को सुनें और हमें आशीर्वाद दें। अथर्ववेद (18/1/52) कहता है कि पितर हमारे भोजन को स्वीकार करें। इन मंत्रों की व्याख्या से विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि पितर जीवित ही हो सकते हैं, मृतक नहीं। मुर्दों के न तो घुटने होते हैं, न ही वे आकर भोजन ग्रहण कर सकते हैं।

रामायण भी यही कहती है—धर्मपथ पर चलने वाला बड़ा भाई, पिता और विद्या देने वाला—ये तीन पितर हैं। चाणक्य नीति भी यही बताती है—विद्या देने वाला, अन्न देने वाला, भय से रक्षा करने वाला और जन्मदाता ही पितर कहलाते हैं।

मृतक श्राद्ध क्यों तर्कहीन है?

यदि मान लिया जाए कि मृतक श्राद्ध से उनके लिए फल पहुँचता है, तो यह न्याय के सिद्धांतों के विपरीत होगा। यदि पुत्र दान करे और फल माता–पिता को मिले, तो यह अन्याय है। कर्म कोई करे और फल कोई और पाए—यह ईश्वर के न्याय में संभव नहीं। महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी मृतक श्राद्ध को अवैदिक और तर्कहीन कहा है। उन्होंने साफ कहा कि यह केवल पौराणिक पंडितों और स्वार्थी प्रवृत्तियों का मायाजाल है।

यदि पौराणिक मान्यता को ही मान लिया जाए तो अजीब परिणाम होंगे। जैसे—यदि पुत्र किसी की हत्या करे और उसका फल पिता को अर्पित कर दे, तो क्या पिता को फाँसी हो जाएगी? यदि ऐसा होने लगे तो लोग अपने पाप भी दूसरों पर डाल देंगे! इसलिए यह धारणा ही अनुचित है।

असली श्राद्ध क्या है?

असली श्राद्ध यही है कि हम अपने माता–पिता की सेवा करें। जिन्होंने हमें जन्म दिया, पाला–पोसा, कष्ट सहकर बड़ा किया, उन्हें वृद्धावस्था में सहारा दें, उन्हें सम्मान दें। यही श्राद्ध है, यही तर्पण है। मृतकों को तर्पण देने से कहीं अधिक पुण्य जीवित माता–पिता को प्रसन्न करने में है।

आज का समाज तेजी से बदल रहा है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, माता–पिता अकेले पड़ते जा रहे हैं। ऐसे समय में यदि पितृपक्ष हमें यह याद दिलाए कि सच्चा धर्म अपने माता–पिता की सेवा है, तो यही उसकी सबसे बड़ी सार्थकता होगी।

महर्षि दयानंद ने कहा था—मृतक श्राद्ध अवैदिक है। लेकिन जीवित माता–पिता की सेवा ही सबसे बड़ा यज्ञ है। वास्तव में यही वह सत्य है जो हमें याद रखना चाहिए।

श्राद्ध का मर्म यही है कि श्रद्धा और सेवा से अपने माता–पिता और गुरुजनों का मन प्रसन्न करें। यही पुत्र का कर्तव्य है, यही धर्म है, और यही वास्तविक पितृयज्ञ है। मृतकों के लिए कर्मकांड में उलझना केवल भ्रम है, पर जीवित माता–पिता की सेवा करना सच्चा श्राद्ध है—श्रद्धा और सत्य का सबसे सुंदर रूप।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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