आरएसएस के शतायु होने पर व्यक्त किए गए भागवत जी के उद्गारों का मोशा-अनुचर जितना चाहें महिमामंडन करें, वे अगर वाचिक-लिखित इबारतों के महीन धागों को पढ़ने की ज़रा-सी भी सूक्ष्म ज़हनीयत रखते तो समझ जाते कि भागवत दरअसल कह क्या रहे हैं? नरेंद्र भाई के मजबूरन समर्पण से भागवत अगर ज़रा-सा भी पसीजे होते तो क्या भाजपा को नया अध्यक्ष अब तक नहीं मिल गया होता? भाजपा के नए अध्यक्ष का चेहरा ही तय करेगा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र भाई कितने दिनों के मेहमान हैं?
दो अक्टूबर का दिन इस साल नागपुर के लिए त्रिआयामी बन कर आया। उस दिन महात्मा गांधी की 156वीं जयंती थी, 69वां धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस भी उसी दिन मना और आरएसएस के सौ साल पूरे होने का समारोह भी उसी दिन रखा गया। गांधी तो दो अक्टूबर को जन्मे थे तो उन की जयंती पर कार्यक्रम तो हर साल उसी दिन होते हैं, मगर भारतीय बौद्ध महासभा और आरएसएस ने अपने समारोहों की तारीख़ पीछे-आगे कर ली और दो अक्टूबर को ही अपने-अपने आयोजन भी किए।
धम्मचक्र प्रवर्तन दिन 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहब भीमराव आंबेडकर द्वारा अपने हज़ारों साथियों के साथ हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म अपनाने की याद में मनाया जाता है। इस साल उस का औपचारिक आयोजन 12 दिन पहले खिसका दिया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 को हुई थी। मगर उस ने भी अपनी सौं वी जयंती का औपचारिक समारोह 4 दिन आगे खिसका दिया। सो, बापू इस साल दो पाटन के बीच थे।
हर साल दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख द्वारा दिए गए भाषण को बेहद अहम माना जाता है। सभी संघ-प्रमुख सौ साल से विजयादशमी-उद्बोधन की परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। इस बृहस्पतिवार को दशहरे पर बतौर संघ-प्रमुख मोहन भागवत द्वारा दिया गया भाषण उन का 17 वां ‘विजयादशमी-उद्बोधन’ था। हर साल की तरह इस साल भी भागवत जी की कही सीधी-सादी बातों में बहुत-से टेढ़े-मेढ़े अर्थ छिपे हुए थे। उन के संबोधन की पंक्तियों के बीच अनकहा सुन कर और अनलिखा पढ़ कर आप भी प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को ले कर आरएसएस की असली मंशा पर ज़रा बिंदुवार ग़ौर फ़रमाइए।
नक्सलवाद पर भागवत जी ने दो बातें कहीं। एक, उग्रवादी नक्सली आंदोलन पर शासन तथा प्रशासन की दृढ़ कार्रवाई के कारण और ‘उन के विचार का खोखलापन और कू्ररता लोगों के सामने उजागर होने के कारण’ बड़ी मात्रा में नियंत्रण आया है। दो, देश के ‘विभिन्न क्षेत्रों में चल रहा शोषण व अन्याय, विकास का अभाव तथा शासन-प्रशासन में इन सब बातों को ले कर संवेदना की कमी’ नक्सलियों के पनपने के मूल कारण रहे हैं। कुछ समझे आप? भागवत जी ने नक्सलवादियों को कुचलने के लिए शासन-प्रशासन द्वारा उठाए गए हर अच्छे-बुरे क़दम को ‘दृढ़ता’ कहा है, जन-सरोकारी विचार को खोखला माना है और उस पर चलने वालों को क्रूर बताया है।
इस के बावजूद कि वे जानते हैं कि पिछले 11 साल से देश में मोदी-सरकार है, भागवत जी खुल कर स्वीकार कर रहे हैं कि शोषण, अन्याय, विकास की कमी और प्रशासकीय संवेदनहीनता ने नक्सलवाद को पनपाया। भागवत जी ने अपने भाषण में जानबूझ कर यह उम्मीद भी ज़ाहिर की कि अब जब सरकार ने नक्सलवाद को ख़त्म कर दिया है, प्रभावित रहे इलाक़ों में न्याय, विकास, सद्भावना, संवेदना और सामंजस्य स्थापित करने के लिए व्यापक योजनाएं जल्दी बनाई जाएंगी।
अर्थव्यवस्था के बारे में भागवत जी की बातों को गहराई से समझिए। वे कहते हैं कि आर्थिक क्षेत्र में भी ‘प्रचलित परिमाणों के आधार’पर हमारी अर्थ स्थिति प्रगति कर रही है, ‘ऐसा कहा जा सकता है’। परंतु इस प्रचलित अर्थ प्रणाली के प्रयोग से ‘अमीरी व गरीबी का अंतर बढ़ना, आर्थिक सामर्थ्य का केंद्रीकृत होना, शोषकों के लिए अधिक सुरक्षित शोषण का नया तंत्र दृढ़मूल होना, पर्यावरण की हानि, मनुष्यों के आपसी व्यवहार में संबंधों की जगह व्यापारिक दृष्टि व अमानवीयता बढ़ना, ऐसे दोष भी उजागर हुए हैं’। भागवत जी ने खुल कर कहा कि आर्थिक नीतियों की कुछ बातों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है। उन्हानें यह भी कहा कि जड़वादी पृथगात्म दृष्टि पर आधारित विकास की संकल्पना को लेकर जो विकास की जड़वादी व उपभोगवादी पद्धति प्रचलित है, उस के दुष्परिणाम सब ओर उत्तरोत्तर बढ़ती मात्रा में उजागर हो रहे हैं। भारत में भी वर्तमान में उसी नीति के चलते वर्षा का अनियमित व अप्रत्याशित वर्षामान, भूस्खलन, हिमनदियों का सूखना आदि परिणाम ‘गत तीन-चार वर्षो में’ अधिक तीव्र हो रहे हैं।
पड़ोसी देशों में सामने आए आक्रोश के बारे में विजयादशमी के भाषण में कही गई भागवत जी की बातों का असली मर्म समझना भी बेहद ज़रूरी है। उन्होंने ज़ोर दे कर कहा कि गत वर्षों में हमारे पड़ोसी देशों में बहुत उथल-पुथल मची है । श्रीलंका में, बांग्लादेश में और हाल ही में नेपाल में जिस प्रकार जन-आक्रोश का हिंसक उद्रेक होकर सत्ता का परिवर्तन हुआ ‘वह हमारे लिए चिंताजनकष् है। संघ-प्रमुख ने इस के कारण गिनाए। बोले कि ‘शासन-प्रशासन का समाज से टूटा हुआ सम्बन्ध, चुस्त व लोकाभिमुख प्रशासकीय क्रिया.कलापों का अभाव – यह असंतोष के स्वाभाविक व तात्कालिक कारण होते हैंष्। भारतीय संदर्भ में भागवत का यह इशारा किस के लिए क्या कह रहा है, समझना इतना मुश्क़िल नहीं है।
सरसंघचालक ने भारतीय जनता पार्टी की केंद्र और राज्य सरकारों पर अपनी आंखें परोक्ष तौर पर तरेरी हैं। उन्होंने कहा कि भारत वर्ष के उत्थान की प्रक्रिया गति पकड़ रही है। ‘परन्तु अभी भी हम उसी नीति व व्यवस्था के दायरों में ही सोच रहे हैं, जिस का अधूरापनए उस नीति के जो परिणाम आज मिल रहे हैं, उन से उजागर हो चुका हैष्। व्यवस्थाओं का अपने में परिवर्तन का सामर्थ्य व इच्छा दोनों मर्यादित होती है। समाज के आचरण में परिवर्तन भाषणों से या ग्रंथों से नहीं आता। ‘प्रबोधन करने वालों को स्वयं परिवर्तन का उदाहरण बनना पड़ता हैष्। यह कार्य करने वाले व्यक्ति तैयार करने पड़ेंगे। मन बुद्धि से इस विचार को मानने के बाद भी उनको आचरण में लाने के लिए मन, वचन, कर्म, की आदत बदलनी पड़ती है। उसके लिए व्यवस्था चाहिए। ‘संघ वह व्यवस्था है।’ यानी असली कमान अपने हाथ में रखना आरएसएस की बुनियादी ज़िम्मेदारी है और वह अपना यह काम पूरी मुस्तैदी से करता रहेगा, चूंकि ‘संघ वह व्यवस्था है’।
विजयादशमी पर कही गई संघ-प्रमुख की बातों से तो यही साफ़ ज़ाहिर होता है कि भले ही दस बरस तक भागवत जी को लाल आंखें दिखाने के बाद अपनी सरकार के ग्यारहवें बरस में नरेंद्र भाई उन के सामने दंडवत हो गए हों, लालकिले से भागवत पर पुष्पवर्षा करने में उन्होंने कोई कोताही बाकी नहीं रखी हो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौ वीं सालगिरह पर अपनी सरकार की तरफ से डाक टिकट और स्मारक-सिक्का जारी करने में भी वे पीछे नहीं रहे हों, मगर भागवत जी इस सब से कुछ ख़ास पिघले नहीं हैं। उन्होंने, अपने दशहरा-उद्बोधन में, जिसे कहते हैं, भिगो-भिगो कर, नरेंद्र भाई को लताड़ा है।
आरएसएस के शतायु होने पर व्यक्त किए गए भागवत जी के उद्गारों का मोशा-अनुचर जितना चाहें महिमामंडन करें, वे अगर वाचिक-लिखित इबारतों के महीन धागों को पढ़ने की ज़रा-सी भी सूक्ष्म ज़हनीयत रखते तो समझ जाते कि भागवत दरअसल कह क्या रहे हैं? नरेंद्र भाई के मजबूरन समर्पण से भागवत अगर ज़रा-सा भी पसीजे होते तो क्या भाजपा को नया अध्यक्ष अब तक नहीं मिल गया होता? भाजपा के नए अध्यक्ष का चेहरा ही तय करेगा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र भाई कितने दिनों के मेहमान हैं? भाजपा संगठन और उस की सरकार के भीतर भी बहुत-से लोग इसी पर टकटकी लगाए बैठे हैं कि जगतप्रकाश नड्डा की जगह कौन लेता है? नए अध्यक्ष की ताजपोशी के साथ ही भाजपा में या तो रतजगा शुरू हो जाएगा या सब चादर तान कर सो जाएंगे।