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27-05-2025 Vol 19

सौभाग्य के लिए वट वृक्ष परिक्रमा

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वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्वबोध के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे तपस्या, आराधना कर अपने मृत पति को यमराज से वापस पाने में सफलता पाई थी। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है।

 6 मई- वट सावित्री अमावस्या व्रत

पति की दीर्घायु, सुख-समृद्धि, संतान सुख, दाम्पत्य जीवन में प्रेम, स्थिरता और परिवार की उज्ज्वल भविष्य व खुशहाली के लिए देश के अधिकांश क्षेत्रों में विवाहित स्त्रियों के द्वारा ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को वट सावित्री अमावस्या व्रत मनाए जाने की पौराणिक परिपाटी है। लेकिन कुछ क्षेत्रों में इसे ज्येष्ठ पूर्णिमा को भी मनाया जाता है। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि ग्रंथों में ज्येष्ठ मास की अमावस्या को सौभाग्य प्रदाता और संतान की प्राप्ति में सहायक वट सावित्री अमावस्या व्रत करने का विधान बताया गया है। तिथियों में भिन्नता होते हुए भी व्रत का उद्देश्य सौभाग्य की वृद्धि और पातिव्रत धर्म के संस्कारों को आत्मसात करना ही है। कहीं- कहीं यह व्रत ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक मनाया जाता है।

इसी तरह शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक भी यह व्रत किया जाता है। विष्णुभक्त इस व्रत को पूर्णिमा तिथि को करना पसंद करते हैं। वट सावित्री में वट का अर्थ है- वटवृक्ष अर्थात बरगद, बड़ का पेड़ और सावित्री वह पवित्र स्त्री है, जिसने अपने मृत पति सत्यवान को यमराज से वापस पाया था। वट सावित्री व्रत में बरगद वृक्ष और पौराणिक पात्रा सावित्री दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है।

सावित्री और सत्यवान की अमर कथा पर आधारित यह पर्व पत्नी की तपस्या, भक्ति और दृढ़ संकल्प की प्रतीक मानी जाती है। विवाहित स्त्रियों के लिए अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण मानी जानी वाली इस व्रत के दिन महिलाएं उपवास रखती हैं, वटवृक्ष की पूजा करती हैं और सावित्री-सत्यवान की कथा सुनती हैं। वट वृक्ष की परिक्रमा करते हुए वट वृक्ष के आस- आस सूत के धागे लपेटती हैं। यही कारण है कि यह व्रत वट सावित्री अमावस्या कहलाता है। इस दिन सिर्फ सावित्री- सत्यवान की पूजा नहीं होती, बल्कि धर्म के देवता यमराज का भी पूजन किया जाता है।

स्कंद पुराण, भविष्योत्तर पुराण और अन्य पौराणिक, धार्मिक ग्रंथों में इस व्रत का विशद वर्णन अंकित है। यह व्रत वट और सावित्री दोनों के पवित्र प्रतीक रूप को सामने लाता है। पौराणिक, लौकिक और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और शिव का निवास है। वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्वबोध के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे तपस्या, आराधना कर अपने मृत पति को यमराज से वापस पाने में सफलता पाई थी। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। वनगमन काल में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए वट वृक्ष के नीचे व्रत, पूजा, आराधना किया जाना उत्तम, सरल व सहज होने से इस धार्मिक, आध्यात्मिक व पूजनीय परंपरा के विकसित होने के परिणामस्वरूप यह मान्यता बन गई कि इसकी छाया में नीचे बैठकर पूजन, व्रत करने, कथा आदि सुनने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना। वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से विख्यात हुआ। सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है। भारतीय संस्कृति में एक प्रसिद्ध पौराणिक, ऐतिहासिक चरित्र सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। स्त्रियों को अपने पारिवारिक और वैवाहिक जीवन के प्रति दायित्वबोध कराने वाली वट सावित्री अमावस्या के संबंध में एक पौराणिक कथा भी प्रचलित है।

वट सावित्री व्रत का महत्व

भारतीय इतिहास में दृढ़ संकल्प और नारी शक्ति का अद्वितीय उदाहरण सावित्री के जन्म की पौराणिक कथा के अनुसार सनत्कुमार के द्वारा भगवान शिव से कुलीन स्त्रियों को अखण्ड सौभाग्य, महाभाग्य तथा पुत्र-पौत्र आदि का सुख प्रदान करने वाले व्रत के संबंध में पूछे जाने पर भगवान शिव ने एक कथा सुनाते हुए कहा कि मद्र देश में अश्वपति नामक एक राजा अत्यन्त धर्मात्मा, ज्ञानी, वीर तथा वेद- वेदांगों का ज्ञाता था। अति बलशाली एवं समस्त प्रकार के ऐश्वर्यों से युक्त होते हुए भी राजा के जीवन में संतान सुख का अभाव था। संतान  प्राप्ति के उद्देश्य से राजा अपनी धर्मपत्नी सहित विभिन्न प्रकार से तप, पूजा तथा आराधना करने लगा।

राजा अश्वपति ने देवी सावित्री के मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ देनी शुरू कर दीं। अठारह वर्षों तक निरंतर इस क्रम के जारी रहने के बाद भूः, भुवः, तथा स्वः के तेज से युक्त तथा अक्ष सूत्र एवं कमण्डलु धारण किये हुए सम्पूर्ण सृष्टि में पूजनीय देवी सावित्री प्रकट हुई। और राजा से इच्छित वर मांगने के लिए कहा। देवी के मुख से यह वचन सुन राजा प्रसन्न मन से हर्षपूर्वक कहा- देवी! मैं निःसंतान हूं, मेरी  कोई संतति नहीं है, मैं एक उत्तम पुत्र का वरदान चाहता हूं। राजा द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करने पर देवी सावित्री ने राजा से कहा कि हे राजन! तुम्हारा कोई पुत्र नहीं है, किन्तु भविष्य में एक कन्या होगी। वह स्वयं का एवं अपने पति दोनों के कुल का उद्धार करने वाली होगी। जो मेरा नाम है, उस कन्या का भी वही नाम होगा। कुछ समय व्यतीत होने के उपरान्त रानी ने गर्भ धारण कर लिया तथा पूर्ण समय होने पर प्रसव हुआ, जो एक कन्या थी। सावित्री का जाप करने के कारण प्रसन्न हो देवी सावित्री के द्वारा प्रदत्त वरदान से उत्पन्न होने के कारण नवजात कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया।

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उस कन्या के नयन कमल दल की भांति थे तथा उसके मुखमण्डल पर देवी के समान ही तेज उपस्थित था। आकाश में चंद्रमा की कलाओं में वृद्धि होने के समान ही उस कन्या के तेज एवं कान्ति में भी वृद्धि होती थी। वह ब्रह्मा की सावित्री थी। विशाल नयनों वाली देवी लक्ष्मी थी। अपनी पुत्री की हेमगर्भ के समान आभा देखकर राजा चिंतित हुआ। उसकी पुत्री सावित्री के समान कोई सुंदर नहीं था, उसके तेज के समक्ष उसे मांगने का कोई साहस ही नहीं करता था। उसका रूप एवं तेज का दर्शन कर सभी राजा स्तंभित हो गये थे। अपनी पुत्री के योग्य कोई वर नहीं पाकर चिंतित राजा ने एक दिन अपनी कमलनयनी पुत्री से निवेदन करते हुए कहा कि तुम्हारे विवाह का समय आ गया है, लेकिन कोई भी विवाह करने हेतु प्रस्ताव नहीं ला रहा है। इसलिए किसी  गुणवान वर को ढूंढकर तुम स्वयं विवाह कर लो, जिसके कुटुम्ब एवं व्यवहार से तुझे आनंद की प्राप्ति हो। यह कहकर वृद्ध मंत्रियों तथा नाना प्रकार के वस्त्रालंकारों के साथ पुत्री को भेज दिया। वह वन में यत्र-तत्र भ्रमण करने कगी।

कुछ समय पश्चात वहाँ देवर्षि नारद का आगमन हुआ। राजा ने अर्घ्य अर्पण एवं चरण प्रक्षालन कर देवर्षि नारद को आसन ग्रहण कराया। और पूजन आदि किया। देवर्षि नारद से वार्ता करते समय ही आश्रम से कमलनयनी सावित्री वृद्ध मंत्रियों सहित वहाँ उपस्थित हुई। सर्वप्रथम सावित्री ने अपने पूज्य पिता की वन्दना की, तत्पश्चात देवर्षि को प्रणाम किया। सावित्री को देखकर देवर्षि नारद ने राजा से कहा- देवगर्भ के समान तेज वाली यह सुन्दरी विवाह योग्य है, इसलिए इसके विवाह हेतु किसी योग्य वर को क्यों नहीं प्रदान कर रहे हो? राजा ने उत्तर दिया- हे मुनिश्रेष्ठ! मैंने सावित्री को इसी कार्य हेतु भेजा था। अभी यह लौट आई है। इसने अपने पति का चयन स्वयं ही कर लिया है, इससे आप स्वयं ही पूछ लीजिए। देवर्षि नारद के प्रश्न करने पर सावित्री ने उत्तर दिया कि, हे मुनिश्रेष्ठ! आश्रम में साल्व देश के राजा द्युमत्सेन का पुत्र सत्यवान है। मैंने उसका ही अपने पति के रूप में चयन किया है।

सावित्री के मुख से यह सुनते ही देवर्षि नारद ने राजा से कहा -आपकी पुत्री ने यह अत्यन्त अनुचित कार्य किया है। इसने सत्यवान के विषय में बिना कुछ ज्ञात किए ही उसका वरण कर लिया। यद्यपि वह अत्यन्त सद्गुणी है, लोकप्रिय है तथा उसके माता-पिता भी सत्यवादी हैं। वह स्वयं भी सदैव सत्य ही बोलता है, इसीलिए सत्यवान के नाम से विख्यात है। उसे अश्व प्रिय हैं तथा वह मिट्टी के घोड़ों के साथ ही खेलता है। वह चित्र भी अश्व के ही काढ़ता हैं। इस कारण उसका एक नाम चित्राश्व भी है। वह सौन्दर्य एवं सद्गुणों से परिपूर्ण है तथा समस्त शास्त्रों का ज्ञाता है। उसके समान कोई मनुष्य नही है। रत्नों से महासागर के परिपूर्ण होने की भांति ही सत्यवान भी समस्त गुणों से सम्पन्न है। किन्तु उसका एक ही दोष उसके समस्त गुणों को न्यून कर देता है कि एक वर्ष में उसकी आयु क्षीण हो जायेगी तथा वह देह त्याग कर देगा। लेकिन यह जान और नारद एवं माता- पिता के उस शादी के लिए बहुत मना करने, अनुननी- विनय करने के बाद भी सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया। पति की मृत्यु की तिथि में कुछ दिन शेष रह जाने पर सावित्री ने घोर तपस्या आरंभ की।

सत्यवान की मृत्यु का समय आने पर सावित्री ने तीन दिन का उपवास रखा। सत्यवान की मृत्यु के दिन वह उसके साथ जंगल गई और सत्यवान की मृत्यु हो गई। सावित्री ने यमराज का पीछा किया और अपने दृढ़ निश्चय और प्रेम से प्रभावित करके यमराज से तीन वरदान प्राप्त किए। प्रथम वरदान में उसने अपने ससुराल वालों के राज्य की वापसी, द्वितीय में अपने पिता के लिए एक पुत्र, और तृतीय में अपने लिए संतान मांगी। यमराज ने वरदान स्वीकार किए और सत्यवान को जीवनदान दिया। सावित्री वट वृक्ष के पास लौट आई और सत्यवान जीवित हो गया। मान्यता है कि इस घटना के बाद से ही महिलाएं वट सावित्री व्रत रखती हैं, वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सावित्री- सत्यवान की कथा सुनती हैं, पति की दीर्घायु और सुखमय वैवाहिक जीवन की कामना करते हुए वट वृक्ष पर सूत के धागे लपेटती हैं।

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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