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27-05-2025 Vol 19

भारत की बिगड़ती कथा

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भारत को बड़े निवेश की जरूरत है। मगर यह तभी संभव है, जब यहां कारोबार का माहौल हो। ऐसा तब नहीं हो सकता, जहां बाजार सिकुड़ रहा हो, कथानकों पर तनाव हावी हो, और विकास का प्रश्न चर्चा में बहुत पिछड़ गया हो।

यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि 2024-25 में भारत में शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (नेट एफडीआई) में 96.5 प्रतिशत की गिरावट आई। नेट एफडीआई का अर्थ है देश में आए और देश से बाहर गए प्रत्यक्ष निवेश का अंतर। गुजरे वित्त वर्ष में नेट एफडीआई महज 35 करोड़ 30 लाख डॉलर का रहा, जबकि 2023-24 में यह 10 बिलियन डॉलर का था। भारतीय रिजर्व बैंक के मुताबिक इस गिरावट का कारण विदेशी कंपनियों का भारत से पैसा वापस ले जाना और भारतीय कंपनियों का विदेशों में अधिक निवेश करना रहा। विदेशी कंपनियां भारत से 49 बिलियन डॉलर से अधिक रकम निकाल ले गईं। उधर भारतीय कंपनियों ने 29 बिलियन डॉलर का निवेश विदेशी बाजारों में किया।

भारत में एफडीआई गिरावट का कारण

ह्यूंदै जैसी कई कंपनियों ने भारत में अपने शेयर बेचे और प्राप्त रकम बाहर ले गईं। वित्तीय, बैंकिंग, और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेवाओं से संबंधित कंपनियों ने भारतीय बाजारों से सबसे ज्यादा धन निकाला, मगर मैनुफैक्चरिंग, थोक एवं खुदरा व्यापार, रेस्तरां और होटल कारोबार में भी देशी और विदेशी कंपनियों ने विनिवेश किया। उधर प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपियल कंपनियां 26.7 बिलियन डॉलर की रकम बाहर ले गईं। कुल बाहर गई रकम की तुलना में भारत में आए निवेश में भारी गिरावट दर्ज हुई। बाहर गए धन में से ज्यादातर का निवेश सिंगापुर, अमेरिका, यूएई, मॉरिशस और नीदरलैंड में हुआ।

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इन आंकड़ों का संकेत है कि निवेशकों का भारत की उत्पादन एवं वितरण से संबंधित जमीनी अर्थव्यवस्था और वित्तीय कारोबार दोनों में भरोसा घटा है। उन्हें भारत में अब मुनाफे की गुंजाइश कम नजर आ रही है। नतीजतन, भारतीय पूंजीपति भी विदेशों में पैसा लगाने में फायदा देखने लगे हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है। भारत जैसे विकासशील देश को बड़े निवेश की जरूरत है। मगर यह तभी संभव है, जब यहां कारोबार का माहौल आकर्षक हो। मगर ऐसा वहां नहीं हो सकता, जहां बाजार सिकुड़ रहा हो, कथानकों पर तनाव हावी हो, और विकास एवं समृद्धि के प्रश्न चर्चा में बहुत पिछड़ गए हों। इन बातों का एक प्रमाण तो यही है कि नेट एफडीआई घटने की खबर भी आम जनमत को झकझोर नहीं पाई है।

NI Editorial

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