मैं भी जगदीप धनखड़ को 39 साल से जानता हूं। जब वे देवीलाल-चंद्रशेखर को छोड़ कर राजीव गांधी के साथ आए थे तो उन की सियासी-बुनकर प्रतिभा का मैं चश्मदीद रहा हूं। तभी कुछ लोग कहावत सुना रहे हैं कि ‘जाट मरा तब जानिए, जब तेरहीं हो जाए’। इसलिए आप को बता रहा हूं कि उन्हें सिरे से ख़ारिज़ करने की भूल मत कीजिए। …बंगाल के खुले जंगल में उन्हें ममता का शिकार करने भेजा गया था, इसलिए उछलकूद की पूरी छूट थी। दिल्ली तो दिए गए लक्ष्यों को साधने का काम एक पिंजड़े में सिमट कर बैठने के लिए था।
जगदीप धनखड़ के बारे में पिछले चार दिनों में चारों दिशाओं से हो रही कयासों की मूसलाधार आप ने, मैं ने, सब ने देखी। जितने मुंह, उतनी बातें। सर्वज्ञाता-भाव में पगे एक से बढ़ कर एक संवाददाताओं, विश्लेषकों, चिंतकों और दर्शनशास्त्रियों ने अपनी जानकारियों, सूचनाओं और कल्पनाओं की बौछारों से देश को भिगो-भिगो दिया। अख़बारों के पन्ने, टेलीविजन के पर्दे, ट्विटर के बरामदे, फेसबुक की दीवारें और यूट्यूब के झरने अपने पूरे उफ़ान पर हैं।
धनखड़ के इस्तीफ़े के पीछे गिनाए गए तरह-तरह के कारणों की एक बानगी देखिए। इन में से कुछ में आप को कुछ दम दिखाई दे सकता है और कुछ एकदम चंडूखाने से जन्मी लग सकती हैं।
एक, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के ख़िलाफ़ राज्यसभा में पेश विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव को सत्तापक्ष से सलाह किए बिना मंजूर कर लिया।
दो, उन्होंने राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को ऑपरेशन सिंदूर पर बोलने की इजाज़त दे दी।
तीन, वे इलाहाबाद हाइकोर्ट के एक न्यायाधीष के ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव को मंजूरी देने वाले थे।
चार, वे किसानों की दिक़्कतों को ले कर कुछ ज़्यादा ही मुखर थे।
पांच, वे न्यायपालिका को ले कर बार-बार ऐसी टिप्पणियां कर रहे थे, जिन से नरेंद्र भाई मोदी असहज होते जा रहे थे।
छह, पिछले छह महीने में धनखड़ को मंत्रिपरिषद के कुछ लठैत मंत्री अलग-अलग मसलों पर समय-समय पर घुड़की दे चुके थे और धनखड़ इसे ले कर तिलमिला रहे थे।
सात, इस्तीफ़े वाले दिन अपराह्न में और फिर सांझ ढले कुछ मंत्रियों और भाजपा नेताओं ने धनखड़ से ज़बरदस्त शाब्दिक दुर्व्यवहार किया था।
सात, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ़ बढ़ती उन की स्वतंत्र पींगें भारतीय जनता पार्टी और उस की सरकार के बहुत-से लोगों को नागवार गुज़र रही थीं।
आठ, वे अगला राष्ट्रपति बनने का ख़्वाब देखने लगे थे और इस के चलते विपक्षी दलों के प्रति नरम होते जा रहे थे ताकि सर्वसम्मत प्रत्याशी बन सकें। विपक्षी नेताओं से मिलने-जुलने में अतिरिक्त दिलचस्पी लेने लगे थे।
नौ, व्यावहारिक तौर पर कुछ भी हो, तकनीकी तौर पर तो उपराष्ट्रपति देश की दूसरी सब से बड़ी राजनीतिक हस्ती होते ही हैं। मगर धनखड़ इस अवधारणा को ले कर इतने गंभीर हो गए थे कि उन्होंने कई मौक़ों पर अनौपचारिक तौर यह ऐतराज़ जताया कि कार्यालयों, सभाकक्षों और विमानतलों के वीआईपी लाउंज जैसे स्थानों पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच उन की तस्वीर क्यों नहीं लगाई जाती है?
दस, इस साल 19 मई को दिल्ली के एक कार्यक्रम में धनखड़ ने भारत के प्रधान न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई के साथ महराष्ट्र यात्रा में हुई शिष्टाचार नियमों की अनदेखी का ज़िक्र करते हुए कहा कि मैं ख़ुद भी इसी तरह की अवहेलना का शिकार हूं। उन्होंने एक क़दम आगे बढ़ कर यह भी कहा कि जाने के पहले मैं सुनिश्चित करूंगा कि मेरे बाद के उपराष्ट्रपतियों को इस तरह के निरादर का सामना न करना पड़े। धनखड़ बोले कि यह व्यक्तिगत मसला नहीं है, पद की गरिमा की रक्षा का मामला है।
दस, धनखड़ को लगता था कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामलों में उन की भूमिका को जानबूझ कर सीमित किया जा रहा है और अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में उन्हें उतनी द्विपक्षीय विदेश यात्राओं पर नहीं भेजा जाता है। तीन साल में वे सिर्फ़ चार देशों में गए। जब कि उपराष्ट्रपति के तौर पर एम. वेंकैया नायडू अपने कार्यकाल में 13 देषों की यात्रा पर गए थे। इस पूरे साल में उन्हें किसी भी विदेशी दौरे पर भेजने का प्रस्ताव सरकार ने नहीं बनाया।
ग्यारह, धनखड़ ने यह ऐतराज़ भी ज़ाहिर किया था कि विदेशी मेहमानों के भारत आने की जानकारी उन्हें ठीक से नहीं दी जाती है। अमेरिकी उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस भारत आए तो उपराष्ट्रपति निवास को बताया तक नहीं गया। जब धनखड़ ने अनौपचारिक तौर पर इस की वज़ह जाननी चाही तो विदेश मंत्रालय ने उन से कह दिया कि अमेरिकी और भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में उपराष्ट्रपति के पद की संरचना भिन्न है और शिष्टाचार नियमों के तहत वेंस से उन की मुलाक़ात अपेक्षित नहीं है। अपनी इज्ज़त बचाना अपने हाथ, सो, धनखड़ वेंस की भारत यात्रा के दौरान 21 अप्रैल को जयपुर चले गए और और उन की विदाई के बाद 23 को लौटे। वे वेंस के सम्मान में आयोजित सरकारी भोज में भी नहीं गए।
बारह, धनखड़ के सचिवालय को एकाधिक बार यह अनौपचारिक सलाह दी गई कि वह उपराष्ट्रपति जी से मुलाक़ात का वक़्त मांगने और उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों में बुलाने का अनुरोध करने वालों की सूची फ़लां जगह भेजा करे और सिर्फ़ उन्हीं से मिलने और उन्हीं कार्यक्रमों में शिरक़त की स्वीकृति दे, जिन का अनुमोदन हो जाए। धनखड़ की जानकारी में यह आने पर वे बेहद विचलित थे। इस सलाह की अनदेखी सत्ता के द्वारपालों को अपना निरादर लगा।
मुझे नहीं मालूम कि इन तमाम कारणों में से कौन-कौन से सही हैं और कौन-कौन से नहीं। मैं नहीं कह सकता कि ये सब चंडूखाने की आकाशीय तरंगों से उपजी बतकहियां हैं या इन की कोई ज़मीन भी है। मैं इस की तफ़सील में नहीं जाऊंगा, मगर मुझे इतना ज़रूर मालूम है कि 2022 में स्वतंत्रता दिवस के चार दिन पहले उपराष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद सवा दो महीने भी नहीं बीते थे कि उस साल की दीवाली आते-आते धनखड़ अपनी संवैधानिक ज़िदगी के क़ुदरती सुरूर के आसमान को बेतरह सिमटता देख कर थोड़ी-थोड़ी व्याकुलता महसूस करने लगे थे।
जुलाई 2019 में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की शपथ लेने के बाद से धनखड़ बुलडोज़री झोंक में थे। यह उन का पहला संवैधानिक कार्यभार था। चूंकि वे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हर तरह से रौंदने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखे हुए थे, ज़ाहिर है कि ‘मोशा’-मंडली हुलस कर उन के पीछे खड़ी हो गई। बंगाल के कार्यकाल ने उन्हें ऐसी चरमपंथी-स्वायत्तता के अहसास से लबरेज़ कर दिया कि पूछिए मत। इसी हिलोर पर सवार हो कर वे उपराष्ट्रपति के सिंहासन पर बैठ गए, मगर यह नहीं समझ पाए कि बंगाल, बंगाल था और वहां उन की उपयोगिता के चलते उन्हें अपने हाथ-पैर फेंकने की जो आज़ादी मिली थी, वह परिस्थितिजन्य थी। हर तरह से निपुण होने के बावजूद धनखड़ यह अंदाज़ लगाने में चूक गए कि बंगाल के खुले जंगल में उन्हें ममता का शिकार करने भेजा गया था, इसलिए उछलकूद की पूरी छूट थी। दिल्ली तो दिए गए लक्ष्यों को साधने का काम एक पिंजड़े में सिमट कर करने के लिए बुलाया गया है। यहीं वे गच्चा खा गए। जैसे-जैसे वे अपनी स्वायत्तता के प्रति आग्रही होते गए, वैसे-वैसे नरेंद्र भाई के कनखजूरों की बिलबिलाहट बढ़ती गई। फिर जो होना था, हो गया।
अब क्या? क्या धनखड़ इतिहास के कूड़ेदान में चले जाएंगे? या वे इतिहास का कूड़ा सड़क पर बिखेर देंगे? कुछ कहते हैं, वे पिछले चार-पांच बरस में तो पूरी तरह रीढ़विहीन हो चुके हैं, सो, अब सीधे खड़े हो ही नहीं सकते। कुछ कहावत सुना रहे हैं कि ‘जाट मरा तब जानिए, जब तेरहीं हो जाए’। मैं भी धनखड़ को 39 साल से जानता हूं। जब वे देवीलाल-चंद्रशेखर को छोड़ कर राजीव गांधी के साथ आए थे तो उन की सियासी-बुनकर प्रतिभा का मैं चश्मदीद रहा हूं। इसलिए आप को बता रहा हूं कि उन्हें सिरे से ख़ारिज़ करने की भूल मत कीजिए। उन के इस्तीफ़े की राख के नीचे बह रहा लावा ऐसे ही ठंडा होने वाला नहीं है।