मनुष्यों में ज्ञान का अपार भंडार है। मगर कुछ चीज़ें अब भी अपरिभाषित हैं। और शायद हमेशा रहेंगी। इनमें से एक है ख़ुशी। ख़ुशी किस चिड़िया का नाम है? क्या वह मनचाही नौकरी हासिल होने पर मिलती है? क्या वह मनचाहा जीवनसाथी पाने से मिलती है? या क्या ढ़ेर सारा पैसा और शोहरत हमें ख़ुशी देता है? या क्या सत्ता ही ख़ुशी है? क्या जो जितना ज्यादा शक्तिशाली है, वह उतना ही ज्यादा खुश है?
मेरा मानना है कि आनंद या खुशी एक मनोभाव है। कोई भी व्यक्ति यह ठीक-ठीक नहीं जानता कि उसे किस बात से खुशी हासिल होगी। खुशी एक व्यक्ति के लिए मनोवैज्ञानिक तो अन्यों के लिए दार्शनिक, भौतिक या आध्यात्मिक हो सकती है। मुझे लगता है ख़ुशी एक ऐसा मनोभाव है जो आपको, और ख़ुशी देता है। आप यह जान कर खुश होते हैं, कि आप खुश हैं।
इन दिनों मेरे आसपास का हर व्यक्ति अपनी नौकरी से दुखी है, अपनी आमदनी से दुःखी है और यह सोचकर नाराज है कि जिंदगी ने उसके साथ बेवफाई की है। उन्हें ट्यूलिप में रंग नज़र नहीं आते और ना ही उन्हें वसंत की साफ और ताजी हवा महसूस होती है। निराशा और आक्रोश उनके काफी के प्यालों और नाश्ते की प्लेटों से तक झांकता है। कुछ लोग मानते हैं कि उनके बॉस विलेन हैं, कुछ को अपना काम करने में न तो मजा आता है और ना ही वह उन्हें चुनौतीपूर्ण लगता है न उत्साहजनक। कुछ अपनी आमदनी न बढ़ने से दुःखी हैं। जिनकी अच्छी-खासी आमदनी है वे इससे परेशान है कि उनके हाथों में अब पहले से कम शक्तियां हैं। और करीब-करीब सभी इससे दुखी हैं कि मुट्ठीभर लोग कुबेरपति बन गए हैं और उनके हाथों में असीमित सत्ता है। वे कहते हैं, ‘‘मैं डिप्रेस्ड हूं‘‘। और मैं आह भरते हुए उनकी उदास आंखों की ओर देखती हूं।
भारत में खुशी लोगों के हाथों से उसी तरह से फिसलती जा रही है जैसे मुट्ठी में भरी रेत फिसलती है। जैसे सूर्य अपनी चमक खोता है, वैसा ही हाल हमारे मन का है। कोई उत्साह नहीं है, खुश होने की कोई वजह नहीं है। और हर साल विश्व प्रसन्नता रपट में यह हकीकत और पुख्ता ढंग से दिखती है। फिर इस साल भी इस रपट में भारत 147 देशों की सूची में 118वें स्थान पर है। अब विश्व प्रसन्नता रपट में प्रसन्नता का पैमाना मुस्कराहट या हंसी नहीं गै वरन् जीवन से संतुष्टि है। यही वजह है कि मुझे यह जान कर धक्का नहीं लगा कि भारत अधिकाधिक अप्रसन्न होता जा रहा है। और यह वैश्विक आंकलन गलत नहीं है। मुझे हर जगह निराशा और दुःख हाथ में हाथ डाले चलते हुए नजर आते हैं। सबको ऐसा लगता है कि उनका जीवन निरर्थक है। आज के दौर में प्रसन्नता एक दुर्लभ पक्षी की तरह हो गई है जिसे धुंध भरे आसमान में देख पाना बहुत मुश्किल होता है।
अब बात वापिस हैप्पीनेस रिपोर्ट की। इसमें फिर नोर्डिक देश (अर्थात डेनमार्क, फिनलैंड, आईसलैंड और नार्वे) खुशी के मामले में अव्वल हैं। मगर नोर्डिक देशों के लोग बहुत खुश दिखलाई तो नहीं देते। जब वे आपको घूरते हैं तो उनकी आंखों में एक तरह का ठंडापन होता है। मगर वे कई सालों से दुनिया के सबसे खुश लोग बने हुए हैं। सबसे ताजा सर्वेक्षण के अनुसार खुशियों के इंडेक्स में उनके नंबर दस में से 7.7 हैं जो कि वैश्विक औसत 5.6 से काफी ज्यादा है। आप कह सकते हैं कि वे सबसे खुश इसलिए हैं क्योंकि उनके पास ढ़ेर सारा धन है, उनके देशों में भरपूर प्राकृतिक सौंदर्य है और हवा ताजा और साफसुथरी है। ये कारक महत्वपूर्ण हैं परंतु ये उनकी खुशी का कारण नहीं हैं। गैलप, जिसने यह सर्वेक्षण किया था, के सीईओ जॉन क्लिपटन बताते हैं कि ‘‘खुशी का धन और प्रगति से लेनादेना नहीं है। खुशी मिलती है एक दूसरे पर भरोसे से, एक दूसरे के साथ संबंधों से और यह जानने से कि आपकी मदद करने के लिए लोग हैं।‘‘ आपको लगता है कि आपका मित्र आपकी मदद करेगा, आपका बचाव करेगा और आप भी उसकी सहायता करेंगे। बल्कि बात तो यहां से शुरू होती है कि क्या आपके मित्र हैं भी? क्या आप अपने आपको एक समुदाय के सदस्य के रूप में देखते हैं या नहीं? क्या आपका अपने उस पड़ोसी से कोई जुड़ाव है जो आपका इसलिए तिरस्कार करता है क्योंकि आप कुंभ नहीं गए या आपकी छत पर राम का झंडा नहीं फहरा रहा है? क्या आप अपने रिश्तेदारों के साथ बिना तनाव के भोजन कर सकते हैं और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि सियासी चर्चा मूड का सत्यानाश न कर दे? आप में से कितनों ने अपनी बुआ या मौसा से इसलिए बात करना बंद कर दिया है क्योंक वे मोदी समर्थक हैं और आप नहीं हैं?
खुशी का धन-संपत्ति से संबंध नहीं है, यह इससे भी साबित है कि लैटिन अमेरिकी देशों के निवासी – जिनकी आमदनी जाहिर है कि बहुत अधिक नहीं होगी- भी बहुत खुश हैं। उनकी खुशी का कारण है दूसरों के साथ मिल-बैठकर भोजन करना, अकेले नहीं। शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ‘ऑल इज वेल’ का भाव पैदा करने के लिए एक साथ बैठकर रोटी खाना बहुत महत्वपूर्ण है। और इसके साथ ही यह विश्वास भी कि बुरे वक्त में आपका साथ देने के लिए लोग हैं। लातिनी अमेरिकी देश एक साथ मिलकर भोजन करने के मामले में दुनिया में सबसे आगे हैं। इस क्षेत्र में हर हफ्ते करीब नौ बार लोग अपने मित्रों या परिवार के साथ भोजन करते हैं। जबकि दक्षिण एशिया के मामले में यह आंकड़ा आधा है।
और फिर भी हम भारतीय इस बात पर कितना गर्व करते हैं कि हमारी संस्कृति परिवार पर आधारित है, हम रोटी बांटकर खाते हैं, हम खुशियां और गम एक दूसरे से साझा करते हैं और हम एक दूसरे की भावनाओं की क़द्र करना जानते हैं। मगर सोचिए हम कितने तिरस्कार भाव से कहते हैं कि हम धन में, क्रिकेट में और राजनैतिक स्थिरता के मामले में पाकिस्तान से कहीं आगे हैं। पाकिस्तान ढेर सारी आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों से मुकाबिल है। मगर हैप्पीनेस इंडेक्स में वह भारत से ऊपर 109वें स्थान पर है। इसका कारण यह बताया जाता है कि वहां के नागरिकों को ऐसा लगता है कि उन्हें उनके आसपास के लोगों और समाज का सहयोग और समर्थन हासिल है। और इस दावे में दम है। चाहे आर्थिक स्थिति कितनी ही खराब क्यों न हो मगर मुसलमानों में सामुदायिकता, भाईचारे और एकजुटता और परस्पर मदद करने का भाव दूसरे समुदायों की तुलना में कहीं ज्यादा है। वे एक दूसरे के लिए खड़े होते हैं, एक दूसरे की इज्जत करते हैं और उनमें भाईचारे का भाव होता है। इसके विपरीत हमारे देश और हमारे समुदाय में हम दिन-रात एक दूसरे की टांग खींचने में व्यस्त रहते हैं, एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं और हमारी आपसी चर्चाओं में अनुपस्थित व्यक्तियों के बारे में कोई न कोई निंदात्मक चीज अवश्य शामिल रहती है।
मगर फिर भी, भला भारत खुशी से आखिर महरूम कैसे हो सकता है? क्या हम सब नहीं जानते कि हमारी अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत है और सबसे तेजी से आगे बढ रही है और हमारे प्रधानमंत्री दुनिया के एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो दो हफ्तों के अंतर से यूक्रेन और रूस दोनों के राष्ट्रपतियों को गले लगा सकते हैं और दोनों जगह उनका स्वागत होता है। हम वर्ल्ड कप जीत रहे हैं और हम छावा जैसी फिल्में भी बनाते हैं। अब जब यह सब है तो ऐसे में हमें खुशियां क्यों नहीं मनानी चाहिए? क्या हमें खुशी से सड़कों पर नाचना और गाना नहीं चाहिए? आखिरकार ऊपर जिन कारकों को गिनाया गया है वे हमें खुशियां देने में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं। भारत प्रगति के हाईवे पर जगुआर रेसिंग कार की गति से दौड़ रहा है। क्या हमें खुश नहीं होना चाहिए? अगर हमारे खर्चे हमारी आमदनी से ज्यादा है तो भी क्या? क्या हम विश्वगुरू नहीं हैं? ऐसे में हम आखिर अपनी जिंदगी से नाखुश कैसे हो सकते हैं? या जैसा कि मेरे एक साथी ने कहा इस तरह के बेवकूफाना सर्वेक्षणों की परवाह ही नहीं की जानी चाहिए। उनके अनुसार भारत खुशी से महरूम नहीं है। जो लोग मोदी विरोधी हैं वे नाखुश हैं।
फिनलैंड में एक कहावत है कि ‘‘खुशी आपको बहुत कम और बहुत ज्यादा के बीच कहीं मिलेगी‘‘। ऐसा बताया जाता है कि जो भी उनके पास है, फिनलैंड निवासी उसमें ही खुश रहते हैं। जो भी उनके पास है उसके लिए उनके मन में कृतज्ञता का भाव है। कुल मिलाकर हम खुशी के पीछे क्यों दौड़ें? क्या संतोष काफी नहीं है? जिंदगी से आपकी उम्मीदें जितनी कम होंगीं आपकी निराशाएं भी उतनी ही कम होंगीं और आप संतुष्ट महसूस करेंगे। अक्सर संतोष खुशी की तुलना में ज्यादा आसानी से हासिल किया जा सकता है और वह खुशी की तुलना में अधिक स्थाई होता है।
पर मैंने तो यह स्वीकार कर लिया है कि भारत अभागों का देश है। जब लोग कहते हैं कि वे खुश नहीं हैं। मैं उसे स्वीकार कर लेती हूं। क्योंकि राजनीति और अर्थव्यवस्था खुशी का मानक नहीं हो सकतीं। मैं छोटी-छोटी चीजों में खुशियां ढूंढने की कोशिश करती हूं। बढ़िया काफी का एक कप, साफ हवा, मेरी बालकनी में खिले फूल और छोटी-छोटी नेकियां, चाहे वे मैं करूं या मेरे साथ की जाएं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)