अब चूंकि 94 लाख परिवार अति गरीबी की अवस्था में हैं, तो बिहार के मुख्यमंत्री ने उनमें से हर परिवार को दो लाख रुपए देने की घोषणा की है। मगर इससे बिहार की स्थायी आर्थिक और शैक्षिक समस्याओं का समाधान कैसे निकलेगा, यह उन्होंने नहीं बताया है।
बिहार में सत्ताधारी महागठबंधन ने जातीय सर्वेक्षण करवा कर आने वाले चुनावों के लिए जो कथानक तैयार करना चाहा था, सर्वे से सामने आए आंकड़ों ने उसे पूरी तरह पलट दिया है। पहले तो बिहार की सामाजिक (यानी जातीय) संचरना के जो आंकड़े बीते दो अक्टूबर को जारी हुए, उनसे इस बारे में पहले से मौजूद धारणा में नाटकीय बदलाव का कोई स्रोत नहीं मिला। अब जो जाति-वार आर्थिक आंकड़े जारी हुए हैं, उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि असल में पूरा बिहार ही अपेक्षाकृत गरीब और पिछड़ा है। राज्य में मासिक छह हजार रुपए से कम पर गुजारा चलाने वाले परिवारों के लिहाज से देखें, तो सवर्ण और ओबीसी परिवारों की संख्या में फासला सिर्फ सात प्रतिशत का है। अगर 20 हजार रुपए से कम पर गुजारा चलाने वाले परिवारों पर गौर करें, तो यह फासला सिर्फ 3-4 प्रतिशत का रह जाता है। दूसरी तरफ बिहार में कुल सरकारी नौकरियां तकरीबन 16 लाख हैं, जिनमें से लगभग 10लाख पहले से ही ओबीसी, दलित और आदिवासी समुदायों के पास हैं।
ऐसे में इन समुदायों के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ा कर 65 प्रतिशत करने का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एलान महज प्रतीकात्मक बन कर रह जाता है। अब चूंकि 94 लाख परिवार अति गरीबी की अवस्था में हैं, तो मुख्यमंत्री ने उनमें से हर परिवार को दो लाख रुपये देने की घोषणा की है। मगर इससे बिहार की स्थायी आर्थिक और शैक्षिक समस्याओं का समाधान कैसे निकलेगा, यह उन्होंने नहीं बताया है। जाहिर है, यह रकम अन्य कल्याणकारी योजनाओं के बजट में कटौती करके ही जुटाई जाएगी। इस तरह दीर्घकालिक विकास में निवेश की कीमत पर अल्पकालिक राजनीतिक लाभ दिलाने वाले कदम पर अमल किया जाएगा। यह कितना सही नजरिया है, इस पर बहस की गुंजाइश है। बहरहाल, अब यह प्रमुख सवाल उठा है कि बिहार की इस हालत के लिए जिम्मेदार कौन है? महागठबंधन में शामिल दल इस जवाबदेही से बच नहीं सकते। आखिर मंडलवादी दौर आने के बाद से बिहार की सत्ता उनके हाथ में ही रही है। और वे केंद्र की सत्ता में भी ज्यादातर समय तक भागीदार रहे हैँ।