Wednesday

30-04-2025 Vol 19

जर्मन रुझान के सबक

यह आम अनुभव है कि मुख्यधारा वाले यानी मध्यमार्गी लोग जो सामान्यतः खुद को किसी चरमपंथ या किसी खास विचारधारा से संबंधित नहीं मानते, अगर वे दक्षिणपंथी चरमपंथी नजरिया अपनाने लगें, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है।

मुश्किलों भरे वक्त में लोग राजनीतिक रूप से सक्रिय हो जाते हैं और नया रुख अख्तियार करते हैं। उस समय लोगों को धुर दक्षिणपंथ यानी नफरत के एजेंडे की तरफ खींचा जा सकता है। यह तो आम अनुभव है कि मुख्यधारा वाले यानी मध्यमार्गी लोग जो सामान्यतः खुद को किसी चरमपंथ या किसी खास विचारधारा से संबंधित नहीं मानते, अगर वे दक्षिणपंथी चरमपंथी नजरिया अपनाने लगें, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है- यह बात जर्मनी में हुए एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन से जुड़े रहे विशेषज्ञों ने कही है। इस अध्ययन से सामने आया कि आज जर्मनी में तकरीबन आठ प्रतिशत लोग धुर दक्षिणपंथी विचारों का समर्थन कर रहे हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ऐसे लोगों की यह सबसे बड़ी संख्या है। उपरोक्त अध्ययन फ्रीडरिष एबर्ट फाउंडेशन ने कराया। ए बीलेफेल्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन को अंजाम दिया। फ्रीडरिष एबर्ट फाउंडेशन राजनीतिक रूप से जर्मनी की सेंटर-लेफ्ट सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी से जुड़ा है। जर्मन समाज का रुझान समझने के लिए यह शोध हर दो साल पर किया जाता है। ऐसा 2002 से किया जा रहा है।

ताजा सर्वे जनवरी और फरवरी 2023 में किया गया। इसमें 18 से 90 वर्ष के करीब 2,000 लोग शामिल हुए। रिसर्चरों के मुताबिक पहले हुए शोधों में धुर दक्षिणपंथ के समर्थक लोगों की संख्या दो से तीन फीसदी के बीच रहती थी। अब यह आठ प्रतिशत हो चुकी है। शोध का नेतृ्त्व करने वाले आंद्रेयास त्सिक के मुताबिक लोगों की आमदनी जितनी घटती है, उनमें दक्षिणपंथी चरमपंथ वाला व्यवहार उतना ज्यादा बढ़ता है। पश्चिमी देशों में लोगों की आर्थिक मुसीबतें बढ़ी हैं। इसके बीच धुर दक्षिणपंथी विचारों के प्रसार को कैसे रोका जाए, इस पर गंभीरता से विचार-विमर्श की जरूरत दुनिया भर में महसूस की जा रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक हम ऐसे वक्त में जी रहे हैं, जहां बेहतर समाज कल्याण की नीतियां और असंतोष को दूर करने के प्रयास ही किसी समाधान की तरफ ले जा सकते हैं। आज जर्मनी में जैसे हालात हैं, कुछ वैसे ही हालात पहले विश्व युद्ध से पहले जर्मनी में पनप रहे थे। इसलिए आज दिख रहा ट्रेंड चिंता की बात है।

NI Editorial

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