अब भविष्य सिर्फ उन शक्तियों का है, जो राजनीति की नई समझ और परिभाषा अपना सकें। जो राजनीति की ऐसी समझ अपना सकें, जिसमें चुनाव लड़ना ही एकमात्र गतिविधि ना हो। जिसमें उद्देश्य आधारित संगठन, संघर्ष, और रचनात्मक कार्यक्रम समान रूप से महत्त्वपूर्ण हों। दरअसल, ऐसी राजनीति जो करेगा, दीर्घकाल में उसके लिए ऐसा जन समर्थन अपने-आप तैयार होगा, जिससे उसे चुनावी सफलता मिले।
किसी राज्य में चुनाव हो, तो इस दौर में वहां मंच सज्जा में कई समान पहलू मौजूद रहते हैं और ऐसा बिहार में भी था। बाकी बातें स्थानीय समीकरणों और परिस्थितियों से तय होती हैं, हालांकि उनमें भी कुछ समानताएं ढूंढी जा सकती हैं। तो कुल मिलाकर बिहार में जो चुनाव नतीजा सामने आया, वह पहले से जारी ट्रेंड के काफी कुछ अनुरूप है। साथ ही इन नतीजों ने उस रुझान को और आगे बढ़ाने में अपने तईं कुछ खास योगदान किया है।
ये रुझान भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान एवं भविष्य के बारे में कुछ ठोस संकेत देते हैं-
आइए, इसकी विस्तार से चर्चा करते हैं।
मंच के नेपथ्य में जो बातें आज हर जगह मौजूद रहती हैं, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है चुनाव प्रणाली को लेकर पैदा हुए संदेह। बिहार का चुनाव आते-आते यह पहलू अत्यधिक गंभीर हो गया। इसमें बड़ा योगदान इस चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) कराने के निर्वाचन आयोग के फैसले का रहा। कई ऐसे कारण हैं, जो सघन होकर अब चुनाव की पूरी प्रक्रिया पर संदेह का साया डाल रहे हैं। उनमें प्रमुख हैः
- मतदाता सूची, जिसमें शामिल और निकाले गए नामों को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है।
- मतदान के दिन आखिरी घंटों में असामान्य रूप से अधिक मतदान की शिकायत लगातार आ रही है।
- कई जगहों पर कुछ, खासकर अल्पसंख्यक समुदाय के मतदाताओं के मतदान की राह में जानबूझ कर रुकावट खड़ा करने की कथित कोशिशों के इल्जाम लगते हैं।
- इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में हेरफेर की चर्चाएं हर बार गर्म होती हैं। विपक्ष की मांग के मुताबिक वीवीपैट पर्चियों की गिनती ना करने के निर्वाचन आयोग के फैसले से विपक्षी खेमों में यह संदेह और गहराया है।
- मतगणना के दौरान जहां हार-जीत का अंतर कम हो, वहां प्रशासनिक हेरफेर से परिणाम को प्रभावित करने के आरोप कई चुनावों में लगे हैं। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल ने ऐसे संगीन आरोप लगाए थे। बाद में उत्तर प्रदेश में भी ऐसे मामले चर्चित हुए।
- चुनाव कार्यक्रम तय करने में निर्वाचन आयोग की भूमिका संदिग्ध होती गई है। विपक्षी दलों का इल्जाम है कि चुनाव कार्यक्रम केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की सुविधा से तय किए जाते हैं।
- आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू करने में कथित भेदभाव की शिकायतें आती हैं। ऐसे मामले चर्चित हुए हैं, जब एक जैसे मामलों में सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं पर आचार संहिता लागू में निर्वाचन आयोग ने अलग पैमाने अपनाए।
- निर्वाचन आयोग का भेदभाव बिहार के ताजा चुनाव में एक अलग मुकाम पर पहुंचा, जब महिलाओं के खाते में दस हजार रुपये ट्रांसफर करने की प्रक्रिया चुनाव के दौरान भी चलती रही। पहले कई चुनावों में निर्वाचन आयोग ने आचार संहिता लागू होने के दौरान ऐसी योजनाओं के अमल पर रोक लगा दी थी, लेकिन बिहार में इसे पहले से चल रही योजना बता कर जारी रहने दिया गया।
ये वो बातें हैं, जो मंच पर घटती दिखती हैं। लेकिन पृष्ठभूमि में कम-से-कम दो और पहलू हैं, जिनसे चुनावी मुकाबले का धरालत सत्ता पक्ष के हक में झुकता चला गया है। इनमें एक तो उसके पास धन की अकूत उपलब्धता है, जो पूंजीपति वर्ग के समर्थन से उसे प्राप्त हुआ है। दूसरी बात का संबंध भी इस वर्ग के समर्थन से जुड़ा है। चूंकि मेनस्ट्रीम मीडिया का स्वामित्व पूंजीपतियों के हाथ में ही है, इसलिए मीडिया का अनवरत समर्थन सत्ता पक्ष को मिला रहता है। शिकायत है कि चुनाव हों या नहीं, हर वक्त मेनस्ट्रीम मीडिया सत्ता पक्ष के नजरिए से नैरेटिव प्रचारित करने में जुटा रहता है। फिर सोशल मीडिया पर भी सत्ता पक्ष का बेहिसाब प्रभाव है।
इन तमाम वो पहलू हैं, जिनकी वजह से भारत में चुनावी धरालत समान नहीं रह गया है। चुनाव कोई भी हो, उसमें ये धरातल भाजपा के पक्ष में पहले से झुका रहता है। उस धरातल पर जब दूसरी पार्टियां मुकाबले के लिए उतरती हैं, तो उनके सामने एक और चुनौती सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बने माहौल से निपटने की होती है। यह ध्रुवीकरण नफरत भरी सांप्रदायिक ध्वनियों के लगातार गूंजते रहने से बनी हुई है। भाजपा और उसके साथी संगठन चुनावों के वक्त पर इन ध्वनियों का वॉल्यूम कुछ और तेज कर देते हैं।
एक समय विपक्षी पार्टियों को लगता था कि जातीय ध्रुवीकरण से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मुकाबला कर लेंगी। लेकिन अब उनका यह हथियार भी भोथरा हो चुका है। इसकी वजह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ/ भाजपा की कथित सोशल इंजीनियरिंग है, जिसके तहत उन्होंने बहुजन, ओबीसी या दलित पहचान को खंडित कर दिया है। इन समूहों के अंदरूनी अंतर्विरोधों को बढ़ाते हुए अलग-अलग जातियों को प्रतिनिधित्व देकर उन्होंने जातीय पहचान की राजनीति को अपनी थाती बना लिया है। परिवार केंद्रित हो जाने और कुछ जातियों के ध्रुवीकरण पर निर्भरता बढ़ाते जाने के कारण आरजेडी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी आदि जैसे दल अब इस मुकाबले में भाजपा से पिछड़ चुके हैं।
इसकी मिसाल बिहार में भी देखने को मिली। इन आंकड़ों पर ध्यान दीजिएः
- यादव जाति के अलावा बाकी ओबीसी जातियों ने भारी बहुमत से एनडीए का समर्थन किया। कुर्मी-कोयरी जातियों के 71 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन उसे मिला।
- अति पिछड़ी जातियों के 68 फीसदी मतदाताओं ने एनडीए को वोट दिया।
- 60 प्रतिशत दलितों का वोट भी एनडीए के पक्ष में गया।
- सवर्ण जातियां तो 1990 के दशक से भाजपा का पारंपरिक वोटर हैं। इस बार इन जातियों का 67 फीसदी वोट एनडीए के पक्ष में गया।
- इस तरह सिर्फ यादव और मुस्लिम ही ऐसे समुदाय रहे, जिनके अधिकतर वोट महागठबंधन को मिले। मुस्लिम वोटों में भी इस बार नौ फीसदी हिस्सा एआईएमआईएम ने झटक लिए।
ये आंकड़े हमने चुनाव सर्वे विशेषज्ञ संजय कुमार के अंग्रेजी अखबार द हिंदू में लिखे लेख से लिए हैं। उन्होंने पोलमैप सर्वे आंकड़ों के आधार पर यह भी बताया है कि सबसे गरीब मतदाताओं के वोट एनडीए और महागठबंधन में लगभग बराबर (तकरीबन 38 प्रतिशत) बंटे, लेकिन निम्न आय वर्ग, मध्य वर्ग एवं उच्च आय वर्ग के ज्यादातर मतदाताओं ने एनडीए को अपनी पसंद बनाया। निम्न आय वर्ग के 44 फीसदी वोट एनडीए को गए, जबकि महागठबंधन को 41 प्रतिशत मत मिले। मध्य एवं उच्च आय वर्ग का 58 प्रतिशत समर्थन एनडीए को गया।
इन आंकड़ों पर ध्यान देने के बाद बिहार में जो नतीजा आया, उस पर शायद ही किसी को आश्चर्य होगा। तो दो बातें साफ हैः
- एक बात जो पृष्ठभूमि में रहती है- यानी यह कि पिछले एक दशक में सत्ता तंत्र पर भाजपा के कसे शिकंजे के कारण चुनावी धरातल उसके पक्ष में झुकता चला गया है।
- दूसरी बात वो जो परदे पर नजर आती है- यानी यह कि भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण एवं कथित सोशल इंजीनियरिंग के जरिए जातीय समीकरण को अपने पक्ष में ढालने में कामयाब हो चुकी है। सर्वण और समृद्ध उसका बुनियादी समर्थन आधार हैं। ऊपर से न्यू वेल्फेयरिज्म- यानी सीधे नकदी (या अन्य लाभ) ट्रांसफर करने की योजनाओं के जरिए उसने निम्न आय वर्ग एवं गरीब तबकों के बीच में भी गहरी पैठ बना ली है।
इन दोनों पहलुओं को ध्यान में रखें, तो चाहे हरियाणा हो या महाराष्ट्र या अब बिहार- वहां भाजपा (या उसके गठबंधन) को मिली भारी जीत को आसानी से समझा जा सकता है। इसीलिए जो लोग इन पहलुओं से वाकिफ हैं, उन्हें बिहार के चुनाव नतीजे अपेक्षित दिशा में ही नजर आए। इससे आश्चर्य सिर्फ उन लोगो को हुआ, जिनकी निगाहों से 2014 के बाद भारतीय राजनीति के संदर्भ बिंदु में आया मूलभूत परिवर्तन ओझल बना हुआ है। या फिर इससे उन लोगों को हैरत हुई, जो उन यू-ट्यूबर्स या सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर्स की बातों पर सचमुच यकीन करते हैं, जो हर चुनाव में कड़ा मुकाबला इसलिए दिखाते हैं, ताकि उन्हें व्यूज या हिट मिलें। तीखे सामाजिक ध्रुवीकरण के कारण इन लोगों को अपने कंटेन्ट का बाजार मिला है।
ध्रुवीकरण इंसान के विवेक को इस रूप में प्रभावित करता है कि वह सच देखने या सुनने के बजाय वह देखना या सुनना पसंद करने लगता है, जो उसकी इच्छा के मुताबिक हो। मोदी भक्त और विरोधियों के ध्रुवीकरण के बीच ऐसा एक बड़ा तबका है, जो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की हार या उसके अपमान को देखने के लिए बेसब्र रहता है। यू-ट्यूबर्स और सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर्स के लिए यह तबका अपना माल बेचने का बाजार है- जहां वे वह बेचते हैं, जिसे खरीदने के लिए लोग वहां तैयार हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि राजनीतिक विमर्श के लिहाज से यही मीडिया माहौल आज निर्णायक बना हुआ है। इसका असर मीडिया के उन हिस्सों पर भी दिखता है, जहां कथित रूप से गंभीर कंटेन्ट पेश किया जाता है। और यही माहौल राजनेताओं एवं राजनीतिक दलों को भी प्रभावित करने लगा है। वरना, महागठबंधन में शामिल दल किस बिना पर जीत की उम्मीद पाले हुए थे, यह समझना कठिन है।
- एक तो महागठबंधन में तालमेल, उद्देश्य की समानता, और किसी बड़े मकसद के लिए चुनाव मैदान में होने के भाव का सख्त अभाव आरंभ से दिखा। यहां तक कि ये दल आपस में सीटों का दोषमुक्त बंटवारा भी नहीं कर पाए। यहां तक कि आखिरी वक्त में जा कर कांग्रेस ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा माना। इस बीच घटक दलों के बीच खासी बदमजगी हो चुकी थी।
- उससे भी बड़ा सवाल है कि भाजपा की कथित सोशल इंजीनियरिंग और न्यू वेल्फेयरिज्म का महागठबंधन के पास क्या जवाब था? यह बात सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है। हकीकत यह है कि आज चुनाव चाहे कहीं हो, मतदाताओं के पास चुनने के लिए ऐसी कोई पार्टी नहीं होती, जिसका राजनीतिक व्याकरण उससे अलग हो, जिससे 1990 के दशक में भारतीय राजनीति (खासकर उत्तर भारत में) के कथानक बदल गए थे।
- इन कथानकों को तीन शब्दों- मार्केट, मंदिर और मंडल से निरूपित किया जा सकता है। आज इन परिघटनाओं की सबसे मजबूत नुमाइंदगी भाजपा कर रही है। न्यू वेल्फेयरिज्म मार्केट यानी नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है, जिसे भाजपा ने इस रूप में लागू किया है, जिससे उसका राजनीतिक लाभ वह तुरंत और सीधे उठा सके। कांग्रेस भले आज भी इस आर्थिक दिशा में देश को ले जाने का श्रेय लेती हो, लेकिन मार्केट की शक्तियां काफी पहले भाजपा पर अपना पूरा दांव लगा चुकी हैं।
- मंदिर- यानी हिंदुत्व आधारित सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की मूल वाहक तो भाजपा ही थी। मंडल यानी दलित-पिछड़ी जातियों के ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाने का काम तब अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दलों ने किया था। लेकिन, जैसाकि हमने ऊपर उल्लेख किया, कुछ अपने तुच्छ स्वार्थ और काफी हद तक भाजपा की कथित सोशल इंजीनियरिंग के कारण आज भाजपा मंडलवादी सियासत की मुख्य वारिस नजर आती है।
इन परिस्थितियों में विपक्षी दलों के लिए अवसर सिकुड़ते चले जा रहे हैं। ये दल आत्म-निरीक्षण करें, तो पाएंगे कि अपने इस हाल के लिए काफी हद तक वे खुद जिम्मेदार हैं। उन्होंने राजनीति के बदले संदर्भ बिंदु और उचित या अनुचित तरीकों से सत्ता तंत्र पर भाजपा के कसते गए शिकंजे को समझने और उसके मुताबिक अपनी अलग राजनीति विकसित करने का कोई प्रयास उन्होंने नहीं किया है।
जब मौजूद सियासी व्याकरण अपनी पहुंच से निकल जाए, तो जरूरत नया व्याकरण गढ़ने की होती है। आवश्यकता ऐसा नया कथानक तैयार करने की होती है, जो मतदाताओं में नई आस जगा सके। मगर विपक्षी खेमे के एक प्रमुख दल कांग्रेस में तो यह हुआ है कि राहुल गांधी की अगुआई में वह पीछे लौटी है और 1990 के दशक की शब्दावली को गले लगा लिया है! जाहिर है, यह दांव हर चुनाव में मुंह के बल गिरता नजर आया है।
विपक्ष के लिए यह गहरे आत्म-मंथन का विषय है कि अगर धनी और गरीब दोनों तबकों का ज्यादातर हिस्सा भाजपा को वोट दे रहा हो, तो उनके लिए क्या बचता है! सवर्ण एवं दलित- अति पिछड़ों के अधिकांश हिस्सों की पसंदीदा पार्टी भाजपा बन गई हो, तो फिर विपक्ष किसके वोट से जीतेगा? बिहार में एआईएमआईएम की सफलता संकेत दे रही है कि मुसलमानों का भी इन दलों से भरोसा उठ रहा है।
तो यह साफ है कि अगर विपक्षी दल राजनीति के बदले स्वरूप और सत्ता तंत्र पर भाजपा के बने नियंत्रण से बेखबर रहते हुए एंटी-इन्कबैंसी के भरोसे चुनाव जीतने के गुमान में रहे, तो क्रमिक रूप से वे अपनी प्रासंगिकता गंवाते चले जाएंगे। हर परिवार में एक नौकरी जैसे अविश्वसनीय वादों के सहारे अपनी नैया पार लगाने की उम्मीद जोड़े रहे, तो फिर उनका शायद ही कोई भविष्य है।
अब भविष्य सिर्फ उन शक्तियों का है, जो राजनीति की नई समझ और परिभाषा अपना सकें। जो राजनीति की ऐसी समझ अपना सकें, जिसमें चुनाव लड़ना ही एकमात्र गतिविधि ना हो। जिसमें उद्देश्य आधारित संगठन, संघर्ष, और रचनात्मक कार्यक्रम समान रूप से महत्त्वपूर्ण हों। दरअसल, ऐसी राजनीति जो करेगा, दीर्घकाल में उसके लिए ऐसा जन समर्थन अपने-आप तैयार होगा, जिससे उसे चुनावी सफलता मिले। यह (संविधान या कुछ अन्य) बचाओ के बजाय कुछ (नया) बनाओ की राजनीति होगी, जिसके लिए जमीन लगातार तैयार हो रही है।


