जातिगत जनगणना के केंद्र सरकार के फैसले के अलग अलग पहलुओं पर विचार करने से पहले एक पंक्ति का यह निष्कर्ष बता देना जरूरी है कि यह एक दूरदर्शी फैसला है, जिसे पर्याप्त विचार विमर्श के बाद देशहित को ध्यान में रख कर किया गया है। यह भी समझ लेना चाहिए कि यह कोई तात्कालिक फैसला नहीं है और राजनीतिक लाभ हानि अपनी जगह है परंतु इसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है। ऐसा नहीं है कि राजनीति को ध्यान में रख कर या किसी विपक्षी पार्टी का एजेंडा छीन लेने या किसी बड़ी घटना से ध्यान भटकाने के लिए यह फैसला हुआ है। यह एक सोचा समझा फैसला है, जो देश के पिछड़े, दलित, आदिवासी और वंचित समूहों के उत्थान के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिबद्धता और उनके संकल्प को प्रतीकित करता है।
सर्वप्रथम इस बात पर विचार करें कि इस निर्णय की क्या आवश्यकता थी। वास्तविकता यह है कि दशकों तक देश में सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी ने इस आवश्यकता की अनदेखी की थी। ध्यान रहे जितने आवश्यक कार्यों की अनदेखी कांग्रेस सरकारों ने की है उनको पूरा करने की ऐतिहासिक भूमिका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निभानी है। चूंकि कांग्रेस की सरकारों ने समय पर यह फैसला नहीं किया इसलिए सरकार ने आगे बढ़ कर यह फैसला किया है। सरकार पिछड़े और वंचित समूहों के उत्थान के लिए अनेक योजनाएं चला रही है लेकिन ज्यादातर योजनाओं को लेकर नीतियां अनुमानों के आधार पर बनी हैं। किसी को पता नहीं है कि वास्तव में किस जातीय समूह की कितनी आबादी है। न तो जातियों की वास्तविक संख्या पता है और न उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थिति का पता है।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2011 की जनगणना में सामाजिक, आर्थिक गणना के जरिए जातियों और उनकी आर्थिक स्थिति के आंकड़े जुटाए थे। लेकिन पता नहीं किस दबाव या किस तुष्टिकऱण की सोच में उसने आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए। आज कांग्रेस के शहजादे राहुल गांधी पिछड़ी जातियों के हितों की बात कर रहे हैं लेकिन उनकी सरकार ने 2011 में जुटाए जातियों के आंकड़े क्यों नहीं सार्वजनिक किए या उन आंकड़ों के आधार पर नीतिगत फैसले क्यों नहीं किए इसका कोई जवाब उनके पास नहीं है। असल में यह कांग्रेस की सोच का दोहरापन है। आखिर कांग्रेस की सरकारों ने ही 10 साल तक मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू होने से रोके रखा और उसके बाद जब जाति गणना कराई तो उसके आंकड़े नहीं जारी किए। इसका अर्थ है कि कांग्रेस को कभी भी पिछड़ी जातियों, दलित व आदिवासी समुदाओं और वंचित समूहों का भला करना ही नहीं था। उसको सिर्फ वोट बैंक की राजनीति करनी थी।
जातियों के आंकड़े नहीं होने और आर्थिक स्थिति की ठोस जानकारी नहीं होने की वजह से सभी जातियों का आरक्षण अनुमानित आधार पर दिया गया है। अब जातिगण गणना होगी और सरकार के सामने वास्तविक आंकड़े होंगे तो उनके आधार पर आरक्षण का फैसला होगा। मिसाल के तौर पर अंग्रेजों के जमाने में 1931 में हुई जनगणना के मुताबिक बिहार में पिछड़ी जातियों की आबादी 52 फीसदी थी, लेकिन बिहार सरकार ने जनगणना कराई तो पिछड़ी जातियों की आबादी 63 फीसदी निकली। सौ साल पुराने आंकड़े और ताजा आंकड़े में 11 फीसदी का अंतर है। जाहिर है राष्ट्रीय स्तर पर भी अलग अलग जातियों की संख्या में अंतर होगा। संख्या कम हुई होगी या ज्यादा हुई होगी। अगर वास्तविक आंकड़ा सामने होगा तो उस आधार पर आरक्षण दिया जाएगा। ऐसे ही आरक्षण के प्रावधान में क्रीमी लेयर का प्रावधान किया गया है।
यह सीमा तय की गई है कि आठ लाख रुपए से ज्यादा की सालाना आय वाली पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। यह सीमा पिछड़ी जातियों की आर्थिक स्थिति के वास्तविक आंकड़ों के बगैर तय की गई है। अब सामाजिक, आर्थिक गणना में उनकी आर्थिक स्थिति की वास्तविकता सामने आएगी तो उस आधार पर क्रीमी लेयर की सीमा भी तय होगी। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ पिछड़ी या दलित जातियों के लिए होगा, बल्कि सामान्य वर्ग की जातियों को भी 10 फीसदी आरक्षण मिल रहा है। उनके लिए भी आठ लाख रुपए की सालाना आय की सीमा तय की गई है। उनकी आबादी और उनकी आर्थिक स्थिति के आंकड़े सामने आएंगे तो आरक्षण का प्रतिशत और क्रीमी लेयर के बारे में फैसला वैज्ञानिक तरीके से किया जा सकेगा।
जातिगत जनगणना से जाति की संख्या और उसकी आर्थिक स्थिति की जानकारी तो मिलेगी ही साथ ही यह भी पता चलेगा कि अभी तक की आरक्षण की व्यवस्था का लाभ किन जातियों को कितना मिला है। उन आंकड़ों के आधार पर यह पता चल पाएगा कि कौन सी जाति आरक्षण की व्यवस्था से ज्यादा सशक्त हुई है और कौन सी जातियां आरक्षण की व्यवस्था का लाभ लेने से वंचित रह गई हैं। वास्तविक आंकड़ों के आधार पर ज्यादा जरूरतमंदों के लिए अतिरिक्त आरक्षण की व्यवस्था की जा सकेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेलंगाना विधानसभा चुनाव के दौरान अनुसूचित जाति के आरक्षण में वर्गीकरण का वादा किया था। इस वादे को पूरा करने का काम भी शुरू हो गया है।
इससे उन जातियों की पहचान होगी, जिनको आरक्षण की ज्यादा जरुरत है। चूंकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े हर जनगणना में जुटाए जाते हैं इसलिए उनके वर्गीकरण का एक ठोस आधार है। कांग्रेस की सरकारों की अनदेखी के कारण पिछड़ी जातियों के बारे में ऐसी कोई ठोस जानकारी नहीं है। जातिगत गणना के आंकड़े आने के बाद सरकार अपेक्षाकृत ज्यादा कमजोर जातियों को सशक्त बनाने का फैसला वैज्ञानिक तरीके से कर पाएगी। इसलिए यह समझ लेने की जरुरत है कि यह कोई मामूली फैसला नहीं है। यह बहुत बड़ा, ऐतिहासिक, दूरदर्शी और देश के करोड़ों करोड़ लोगों के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लाने वाला निर्णय है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह निर्णय किया है तो निश्चित रूप से इसके सभी पहलुओं और आयामों पर विचार करने के उपरांत ही यह निर्णय किया है। उनकी सोच के अनुरूप इस निर्णय के अनुपालन से देश में बहुत सी चीजें बदल सकती हैं। सरकार अगली जनगणना के साथ ही जातियों की गिनती भी कराएगी। उसके साथ ही वर्षों से लंबित राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनआरसी की परियोजना को भी लागू कर देना चाहिए। जब सरकारी कर्मचारी नागरिकों की गिनती करेंगे, उनकी जाति व धर्म पूछेंगे, उनके रोजगार, काम धंधे, संपत्ति की जानकारी जुटाएंगे, उनके घरों की गिनती करेंगे तो साथ साथ कुछ और जानकारी जुटाई जा सकती है।
उनके और उनके पूर्वजों के जन्मस्थान की जानकारी भी पूछी जा सकती है ताकि देश के अलग अलग हिस्सों में रह रहे बाहरी नागरिकों की पहचान की जा सके। ध्यान रहे यह भारत की एक बड़ी समस्या है। जम्मू कश्मीर के पहलगाम में आतंकवादी हमले के बाद जब पाकिस्तानी नागरिकों की पहचान शुरू की गई है तो पता चल रहा है कि हजारों विदेशी लोग किसी न किसी तरीके से भारत में रह रहे हैं। अगली जनगणना में पाकिस्तानियों के साथ साथ बांग्लादेश और म्यांमार के घुसपैठियों की भी पहचान सुनिश्चित करनी चाहिए ताकि उन्हें देश से निकाला जा सके। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे प्राथमिक आवश्यकता है। इसके साथ ही सरकार सबकी पहचान के लिए एक नागरिकता नंबर का नियम भी बना सकती है। आधार, पैन और इपिक यानी वोटर आई कार्ड के अलग अलग नंबर की जगह एक नंबर नागरिकों को दिया जाना चाहिए और उसके साथ उसकी पूरी बायोमीट्रिक डिटेल्स होनी चाहिए। ऐसा कर दिया गया तो देश के अंदर के तमाम स्लीपर सेल्स को खत्म किया जा सकेगा और देश की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी।
जहां तक राजनीति की बात है तो वह इस निर्णय की प्राथमिकता नहीं है। यह अलग बात है कि कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी पार्टियां इसे राजनीतिक नजरिए से ही देख रही हैं क्योंकि उनकी आदत है हर चीज में राजनीति करने की। वे देश की सुरक्षा के मामले में जब राजनीति कर सकते हैं तो उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है! जातिगत गणना को राजनीति के नजरिए से देखने वालों को शायद पता नहीं है कि मतदान के दौरान देश की पिछड़ी जातियों की पहली पसंद भाजपा ही है। पिछले लोकसभा चुनाव में यानी 2024 में भाजपा को पिछड़ी जाति के 43 फीसदी मतदाताओं ने वोट किया, जबकि कांग्रेस को सिर्फ 19 फीसदी ओबीसी वोट मिला। देश की 43 फीसदी पिछड़ी आबादी ने भाजपा को इसलिए वोट दिया क्योंकि उनको प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा है कि वे उनके उत्थान में प्राण पण से जुटे हैं। उन्होंने ऐसे काम किए, जो आजादी के बाद सात दशक में नहीं हुए थे। प्रधानमंत्री ने पिछड़ी जाति आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया। सबसे बड़ी संख्या में पिछड़ी जातियों के मंत्री बनाए। सैनिक स्कूलों में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराया और यहां तक की मेडिकल के दाखिले के लिए होने वाली नीट की परीक्षा में केंद्र सरकार का जो कोटा होता है उसमें भी ओबीसी आरक्षण का प्रावधान किया। ये ऐसे काम हैं, जिनका लाभ पिछड़ी जातियों को मिल रहा है। इसलिए वे भाजपा के साथ जुड़ रही हैं। दूसरी ओर कांग्रेस हो या दूसरी प्रादेशिक पार्टियां वे एक परिवार की बेहतरी के लिए काम कर रही हैं। तभी पिछड़ी जातियों का उनके ऊपर भरोसा नहीं बन रहा है। (लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशेष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)


