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22-06-2025 Vol 19

जब तक राहुल तब तक कांग्रेस संकट में

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लगता है कि राहुल अपनी पिछली गलतियों से सीखना नहीं चाहते। वे प्रधानमंत्री मोदी का विरोध करते-करते भारतीय सैन्य पराक्रम (ऑपरेशन सिंदूर सहित) के खिलाफ ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लग गए है, जो पाकिस्तान को बहुत रास आते है और उन्हें पाकिस्तान अपने नैरेटिव के लिए उपयोग भी करता है। राहुल, मोदी सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों का सकारात्मक विकल्प भी प्रस्तुत नहीं कर पा रहे है। लगता है कि जबतक कांग्रेस राहुल गांधी के आभामंडल में रहेगी, उसका संकट ऐसे ही जारी रहेगा।

‘नाच न जाने, आंगन टेढ़ा’— यह कहावत शीर्ष कांग्रेसी नेता और लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी के हालिया बयानों पर पूर्णतः चरितार्थ होती है। उनके अनुसार, “बिहार में महाराष्ट्र जैसी ‘मैच फिक्सिंग’ होगी”। अर्थात् उन्होंने आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पराजित होने की भविष्यवाणी कर दी है, जो शायद ठीक भी है। परंतु इसके लिए जो कारण राहुल ने गिनाए हैं, वे उनकी राजनीतिक अपरिक्वता और उनके वंशवादी दर्प का परिणाम है। यदि एक मिनट के लिए उनके कथन को जस का तस स्वीकार भी कर लें, तो कांग्रेस पिछले तीन दशकों से बिहार सहित कई राज्यों की राजनीति में हाशिए पर है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है— कांग्रेस नेतृत्व और उसकी नीतियां या फिर तथाकथित ‘मैच फिक्सिंग’?

बिहार के कई चुनावों में कांग्रेस का मतप्रतिशत दहाई आंकड़े में नहीं पहुंच पाया है। वर्ष 1995 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का मतप्रतिशत 1990 के 24.78% से घटकर 16.27% पर आ गया। तब केंद्र में कांग्रेस नीत सरकार थी और बिहार में लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे। वर्ष 2000 में कांग्रेस का मतप्रतिशत और गिरकर 11% पर पहुंच गया। 2005 में राजद का सहयोगी बनकर कांग्रेस का मतप्रतिशत और अधिक घटकर 6% पर आ गया। 2010 में कांग्रेस ने बिहार में अकेले चुनाव लड़ा, तब उसका मतप्रतिशत 8.37% ही रहा, जबकि केंद्र में उसके नेतृत्व वाली संप्रग-2 सरकार थी। 2015 और 2020 में वह राजद के साथ गठबंधन में थी, तब उसका मतप्रतिशत क्रमशः 6.7% और 9.48% ही रहा। यदि 1999-2014 के बीच हुए छह लोकसभा चुनावों की बात करें, तो बिहार में कांग्रेस का औसत मतप्रतिशत केवल 8% रहा।

स्वतंत्रता के बाद देश पर कांग्रेस का 50 वर्षों तक प्रत्यक्ष-परोक्ष शासन रहा है। इस दौरान उसका राजनीतिक पतन केवल बिहार तक सीमित नहीं रहा। कांग्रेस तमिलनाडु में 1967, पं।बंगाल में 1977, उत्तर प्रदेश में 1989, गुजरात में 1990, महाराष्ट्र में 1995, ओडिशा में 2000, गोवा में 2012 और दिल्ली में 2013 से अपने अकेले दम पर सत्ता में नहीं लौटी है। इसमें पार्टी दिल्ली (2015, 2020 और 2025) और प।बंगाल (2021) के विधानसभा चुनावों में खाता तक नहीं खोल पाई थी। महाराष्ट्र के पिछले चार विधानसभा चुनावों (2009-24) में उसका मतप्रतिशत 21% से घटकर 12% पर आ गया है। इस ह्रास के लिए राहुल किसे जिम्मेदार ठहराएंगे?

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह परास्त हुई थी। इसमें पिछले आम चुनाव की तुलना में उसकी सीटें 206 से घटकर 44 पर आ गई थी, तो मतप्रतिशत 28.5% से घटकर 19.3% पर आ गया था। इस दौरान पिछले दस वर्षों तक केंद्र में कांग्रेस नीत संप्रग गठबंधन की सरकार थी। तब चुनाव आयोग पर भाजपा के किसी तथाकथित प्रभाव होने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। क्या राहुल तब भी अपनी इस करारी के लिए किसी ‘मैच-फिक्सिंग’ का आरोप लगाएंगे?

तब कांग्रेस की पराजय— अपार भ्रष्टाचार, नीतिगत पंगुता, बार-बार होते जिहादी हमले, मनगढ़ंत ‘भगवा आतंकवाद’ का नैरेटिव गढ़ने और बहुसंख्यक हिंदुओं के प्रति एकतरफा सांप्रदायिक दृष्टिकोण अपनाने का परिणाम था। यह असंतोष जब चेतना में परिणत हुआ, तब 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को ऐतिहासिक विजय मिली। तीन दशक बाद किसी एक पार्टी को पहली बार स्पष्ट पूर्ण बहुमत मिला। भाजपा के प्रति जनसमर्थन 2019 में और प्रबल हुआ और उसने पहले से अधिक सीटों के साथ फिर बहुमत प्राप्त किया। सत्ता-विरोधी लहर, विपक्षी एकजुटता, भारत-विरोधी शक्तियों के प्रपंचों और नकारात्मक प्रचार के बावजूद 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार जनमत पाने में सफल रहे।

कांग्रेस बार-बार इस बात को समझने से चूक रही है कि भाजपा को मिल रहा जनसमर्थन, मोदी सरकार के निर्णायक नेतृत्व, पारदर्शी प्रशासन, वादों के जमीनी क्रियान्वयन, आर्थिक प्रगति और विश्व में भारत की बढ़ती धाक के कारण है। यदि भाजपा से किसी को नाराजगी भी है, तो वह कांग्रेस के बजाय अन्य विकल्पों की ओर देखता है। उदाहरणस्वरूप, पंजाब के साथ दिल्ली में ‘आम आदमी पार्टी’ के अधिकांश मतदाता कांग्रेस के परंपरागत समर्थक थे। यह दिलचस्प है कि कांग्रेस के अधिकतर सहयोगी— सपा, द्रमुक, राकांपा, राजद, तृणमूल आदि दलों ने भी अपना विस्तार कांग्रेस की सियासी जमीन में सेंधमारी करके किया है।

कांग्रेस वर्ष 1971 से ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देती रही, किंतु विडंबना यह रही कि उसी अवधि में देश में निर्धनों की संख्या निरंतर बढ़ती गई। इसका मूल कारण था— व्यवस्था में गहराई तक समाया भ्रष्टाचार, व्यापक कालाबाजारी और सरकार के शीर्ष स्तर पर जनकल्याणकारी योजनाओं हेतु आवंटित संसाधनों की बेशर्मी से की गई लूट-खसोट। विश्व बैंक की नवीनतम रिपोर्ट पुष्टि करती है कि मोदी सरकार की आवासीय, उज्ज्वला, जनधन और आयुष्मान जैसी जनकल्याणकारी योजनाओं ने भारत में अत्यधिक गरीबी को अभूतपूर्व रूप से घटाया है और उनका जीवनस्तर ऊपर उठाया है। रिपोर्ट के अनुसार, विगत 11 वर्षों में लगभग 27 करोड़ भारतीय अत्यंत निर्धनता से बाहर आए हैं। वर्ष 2011-12 में देश की 27.1% आबादी इस वर्ग में आती थी, जो 2022-23 तक घटकर मात्र 5.3% रह गई। यह परिवर्तन इस बात का प्रमाण है कि जब नीतियां लक्ष्य-सापेक्ष, पारदर्शिता और भ्रष्टाचार मुक्त राजनीतिक ईमानदारी से संचालित हो, तो वह समाज के सबसे वंचित वर्ग तक धरातली लाभ पहुंचा सकती हैं।

समेकित विकास की ओर बढ़ते कदमों के कारण ही भारत आज विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। जम्मू-कश्मीर और पंजाब को छोड़कर देश के किसी भूभाग— चाहे वह दिल्ली हो या मुंबई— वहां पिछले 11 वर्षों में कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ है। धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण से सीमापार घुसपैठ और आतंकवादी गतिविधियों में उल्लेखनीय गिरावट आई है। वामपंथ प्रेरित नक्सलवाद अंतिम सांसें गिन रहा है। भारतीय सेना अब किसी भी दुस्साहस का सटीक और कठोर प्रतिकार करने को स्वतंत्र है। दो सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान के खिलाफ किया गया ऐतिहासिक ‘ऑपरेशन सिंदूर’— भारत की नई सामरिक नीति का प्रतिबिंब है। मोदी सरकार ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रवाद को भी पुनर्स्थापित किया है। अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर और उज्जैन में महाकाल लोक का पुनर्निर्माण और योग की वैश्विक मान्यता आदि— इसका जीवंत प्रमाण है।

लगता है कि जैसे राहुल गांधी भारतीय राजनीति के लिए बने ही नहीं है। पिछले दो दशकों से वे जिस पदवी पर है, वह उन्हें अनुभव, क्षमता या बुद्धिमत्ता के कारण नहीं, केवल वंशवादी दंभ और स्वयं को ‘विशेष’ समझने की वजह से मिला है। इसका एक प्रमाण वर्ष 2013 में तब देखने को मिला, जब राहुल ने अपनी सरकार के एक अध्यादेश को फाड़कर कड़ेदान में फेंकने की बात कही थी, जिसके चलते उनकी सरकार ने आनन-फानन में वह अध्यादेश वापस ले लिया। उनकी इसी अपरिपक्वता ने वर्ष 2023 में उन्हें एक मामले में दोषी सिद्ध होने पर अयोग्य भी ठहरा दिया था। इस प्रकार के अनेकों उदाहरण है।

ऐसा प्रतीत होता है कि राहुल अपनी पिछली गलतियों से सीखना नहीं चाहते। वे प्रधानमंत्री मोदी का विरोध करते-करते भारतीय सैन्य पराक्रम (ऑपरेशन सिंदूर सहित) के खिलाफ ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लग गए है, जो पाकिस्तान को बहुत रास आते है और उन्हें पाकिस्तान अपने नैरेटिव के लिए उपयोग भी करता है। राहुल, मोदी सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों का सकारात्मक विकल्प भी प्रस्तुत नहीं कर पा रहे है। लगता है कि जबतक कांग्रेस राहुल गांधी के आभामंडल में रहेगी, उसका संकट ऐसे ही जारी रहेगा।

बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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