“भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश है और साथ ही सबसे ज्यादा विषम भी। हमारे ताजा पेपर (शोध पत्र) के मुताबिक पिछले एक दशक में आबादी के टॉप एक फीसदी हिस्से का धन तेजी से बढ़ा है, जबकि नीचे की आधी आबादी का हिस्सा बेहद कम बना हुआ है। अच्छे दिन आए हैं, लेकिन अधिकांशतः ऐसा धनी लोगों के लिए ही हुआ है।”।।।।“(नरेंद्र) मोदी ने भारत में गैर-बराबरी बढ़ने की रफ्तार तेज कर दी है। साथ ही उन्होंने लोकतांत्रिक पड़ताल के लिए आवश्यक डेटा को खत्म कर दिया है। अब हम फिर से टुकड़ों को जोड़ कर ये कहानी सामने रख रहे हैं।”
भारत के मेनस्ट्रीम मीडिया ने हाल के वर्षों में वैसे भी कम बदनामियां नहीं कमाई हैं, लेकिन इस क्रम में एक नया अध्याय जुड़ा, जब भारत में गरीबी और गैर-बराबरी से संबंधित विश्व बैंक की एक संक्षिप्त रिपोर्ट के निष्कर्षों को लगभग हर बड़े अखबार ने संदर्भ से काट कर मोटी सुर्खियों के साथ छापा। हजारों करोड़ रुपये का कारोबार करने वाले और सैकड़ों कर्मचारियों के साथ काम करने वाले इन अखबारों ने प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) की विज्ञप्ति से प्राप्त हुई सूचना को हू-ब-हू छाप दिया। किसी एक एक अखाबर के संपादकीय विभाग में संभवतः ये सवाल नहीं उठा कि जिस दौर में हर गंभीर अध्ययन भारत में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी में रिकॉर्ड बढ़ोतरी के निष्कर्ष पर पहुंचा है, तो विश्व बैंक बिल्कुल उसके बिल्कुल उलट कहानी कैसे बता सकता है!
असल कहानी क्या है, उसकी चर्चा से पहले आइए, अंग्रेजी अखबारों में छपी सुर्खियों पर गौर करेः-
India’s Gini Index score stands at 25।5, with only Slovak Republic, Slovenia and Belarus faring better
(The Hindu)
Top 10 most equal countries in the world and India’s rank in it
(Indian express)
India beats US, China, G7 & G20 nations to become one of the world’s most equal societies: Here’s what World Bank says
(Economist times)
India now 4th most equal country globally, says World Bank
(Money Control)
India Becomes 4th ‘Most Equal’ Country In World, Leaves Behind US, China: World Bank Report
(News18)
India Becomes Fourth “Most Equal” Country Globally: World Bank Report
(ndtv)
ये प्रतिनिधि सुर्खियां हैं। मीडिया के व्यापक रूप से फैले हुए दायरे में बीते छह और सात जुलाई को इसी लाइन पर हेडलाइन्स दिखीं। अब आइए, हकीकत पर गौर करते हैं। यानी इस पर ध्यान देते हैं कि विश्व बैंक ने आखिर कहा क्या थाः
“भारत में उपभोग आधारित जिनी इंडेक्स 2011-12 के 28।8 से बेहतर होकर 2022-23 में 25।5 हो गया, हालांकि यह संभव है कि आंकड़ों से संबंधित सीमाओं के कारण यहां गैर-बराबरी का आकलन कम हो पाया हो। वर्ल्ड इनइक्वालिटी डेटाबेस से इसके विपरीत तस्वीर उभरती है। इसके मुताबिक जिनी इंडेक्स पर (भारत में) 2004 में आय विषमता 52 थी, जो 2023 में 62 पर पहुंच गई। वेतन संबंधी गैर-बराबरी की दर ऊंची बनी हुई है। टॉप 10 फीसदी आदमनी की औसत आय निम्नतम 10 प्रतिशत आबादी की तुलना में 13 गुना ज्यादा है।”
(https://documents1।worldbank।org/curated/en/099722104222534584/pdf/IDU-25f34333-d3a3-44ae-8268-86830e3bc5a5।pdf?utm_source=chatgpt।com)
यह पूरा पैराग्राफ पढ़ा जाए, तो क्या उपरोक्त हेडलाइन्स का किसी भी कोण से तनिक भी औचित्य बनता है? बेशक, उपरोक्त पैराग्राफ में उपभोग गैर-बराबरी में गिरावट की बात कही गई है, मगर साथ ही “आंकड़ों से संबंधित सीमाओं” को लेकर आगाह भी कर दिया गया है। विश्व बैंक ने भारत में आय संबंधी गैर-बराबरी बढ़ने का उल्लेख किया है, हालांकि इसमें धन संबंधी गैर-बराबरी की कोई चर्चा नहीं हुई है।
विश्व बैंक ने वर्ल्ड इनइक्वालिटी डेटाबेस का उल्लेख किया है। ये डेटाबेस मशहूर अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी और उनके सहयोगियों ने स्थापित किया है। पिकेटी और उनके साथियों ने वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब नाम की संस्था पेरिस में बनाई है। इस संस्था ने पिछले साल लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भारत के बारे में एक विशेष रिपोर्ट जारी की थी। रिपोर्ट फ्रांस के मशहूर अर्थशास्त्री लुकस चांसेल ने तैयार की। उसमें उन्होंने कहा थाः
“भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश है और साथ ही सबसे ज्यादा विषम भी। हमारे ताजा पेपर (शोध पत्र) के मुताबिक पिछले एक दशक में आबादी के टॉप एक फीसदी हिस्से का धन तेजी से बढ़ा है, जबकि नीचे की आधी आबादी का हिस्सा बेहद कम बना हुआ है। अच्छे दिन आए हैं, लेकिन अधिकांशतः ऐसा धनी लोगों के लिए ही हुआ है।”
“हमारे ताजा पेपर के मुताबिक टॉप की एक फीसदी आबादी का धन रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। दरअसल, अरबपति राज का आगमन हो चुका है।”
“(नरेंद्र) मोदी ने भारत में गैर-बराबरी बढ़ने की रफ्तार तेज कर दी है। साथ ही उन्होंने लोकतांत्रिक पड़ताल के लिए आवश्यक डेटा को खत्म कर दिया है। अब हम फिर से टुकड़ों को जोड़ कर ये कहानी सामने रख रहे हैं।”
(https://wid।world/news-article/inequality-in-india-the-billionaire-raj-is-now-more-unequal-than-the-british-colonial-raj/)
इस रिपोर्ट में बताया गया था कि 2015 से 2023 तक विषमता के मोर्चे पर क्या हुआ। इसके मुताबिक,
- धन संकेंद्रण के लिहाज से 2014-15 और 2022-23 के बीच गैर-बराबरी में हुई वृद्धि खास ध्यान खींचती है। 2022-23 तक देश की कुल आमदनी और धन का क्रमशः 22।6 प्रतिशत और 40।1 प्रतिशत हिस्सा टॉप एक फीसदी आबादी के हिस्से में चला गया।
- सबसे धनी एक फीसदी आबादी के पास देश की आय एवं धन के संकेद्रण का यह सबसे ऊंचा स्तर है।
- भारत दुनिया के उन देशों में पहुंच गया है, जहां टॉप एक फीसदी आबादी की आमदनी का स्तर सबसे ऊंचा है। इस मामले में भारत ने दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील और अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है। (यानी भारत में उन देशों की तुलना में भी अधिक गैर-बराबरी हो चुकी है।)
- शोध पत्र में इस बात पर जोर दिया गया कि भारत में आर्थिक डेटा की गुणवत्ता खराब है। इसमें हाल के वर्षों में और गिरावट आई है। पत्र में कहा गया- “अतः यह संभव है कि ये नए अनुमान गैर-बराबरी की स्थिति को उससे कहीं कम बता रहे हों, जितनी यह असल में है।”
(https://janchowk।com/what-is-the-future-of-india-drowning-in-the-sea-of-inequality/)
अभी हाल में अर्थशास्त्री सुरभि केसर ने लिखा कि 1990 के दशक से भारत में गैर-बराबरी लगातार बढ़ रही है, जिससे यह दुनिया के सबसे विषम देशों में पहुंच गया है। उन्होंने 2019 में आय जिनी इंडेक्स पर भारत की स्थिति का जिक्र करते हुए कहा कि इसके आधार पर 216 देशों की सूची में भारत 176वें नंबर पर था। जबकि 2009 में इस इंडेक्स पर भारत 115वें स्थान पर था। जहां तक धन (wealth) विषमता की बात है कि जिनी इंडेक्स पर 2023 में भारत 75वें स्थान था, जो 2019 की तुलना में एक पायदान नीचे है।
(https://thewire।in/economy/india-inequality-pib-fact-check)
जिनी को-इफिशिएंट गैर-बराबरी मापने का एक सूचकांक है। जिनी इंडेक्स को कोराडो जिनी (Corrado Gini) नामक इतालवी सांख्यिकीविद् और समाजशास्त्री ने विकसित किया था। उन्होंने इसे 1912 में प्रकाशित अपने शोध में इसे प्रस्तुत किया। बाद में विभिन्न समाजों में गैर-बराबरी को मापने का यह एक सामान्य मानदंड बन गया। इसमें 0 और 1 के पैमाने पर देखा जाता है कि किसी समाज में धन या आय किन तबकों के हाथ में जा रहा है। 0 पूर्ण समानता का सूचक है, जबकि 1 पूर्ण असमानता का। यानी इस पैमाने पर जितने अधिक अंक मिलें, उस समाज में उतनी अधिक गैर-बराबरी होगी।
इस सिलसिले में सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा विश्वसनीय आंकड़ों की मौजूदगी है। भारत में आंकड़ों को गढ़ने और सुविधाजनक आंकड़ों को चुनने का ऐसा चलन गुजरे 11 साल में चला है कि आज सरकारी आंकड़ों के आधार पर असल सूरत पर रोशनी डाल पाना बेहद कठिन हो चुका है। इसके अलावा गरीबी या गैर-बराबरी मापने के पैमानों को बदल देना एक आम चलन बना दिया गया है। जाहिर है, इन सबके पीछे मकसद यथार्थ के विपरीत अच्छी तस्वीर उभारना होता है।
अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, जिनमें संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के अलावा विश्व बैंक और आईएमएफ आदि भी शामिल हैं, अपनी रिपोर्ट्स का आधार सरकारी आंकड़ों को ही बनाती हैं। यानी अगर आंकड़ों का स्रोत ही विवादास्पद हो, तो उन एजेंसियों की रिपोर्ट से भी वैसी ही तस्वीर सामने आएगी। तो अब उन संस्थाओं को अपनी साख की चिंता सताने लगी है। नतीजतन, भारत से संबंधित अपनी रिपोर्ट के साथ-साथ उचित स्पष्टीकरण एवं चेतावनी जारी करना भी वे जरूरी समझने लगी हैं।
अभी हाल में चरम गरीबी की अवस्था में जी रही आबादी के बारे में एक रिपोर्ट आई, जिसके आधार पर मेनस्ट्रीम मीडिया में खबर छपी कि भारत में अब सिर्फ 5।3 प्रतिशत आबादी इस अवस्था में है, जबकि 2011-12 में 27।1 फीसदी आबादी चरम गरीबी की अवस्था में जी रही थी। (https://www।ndtv।com/india-news/extreme-poverty-rate-drops-to-5-3-from-27-1-in-india-world-bank-report-8608895)। जब इस खबर पर भारत के शासक तबकों और उनके नियंत्रित मीडिया में उल्लास मनाया जा रहा था, तभी विश्व बैंक ने इस बारे में स्पष्टीकरण देने की जरूरत महसूस की।
विश्व बैंक के प्रवक्ता ने कहा कि एक चौथाई भारतीय आज भी सामान्य जीवन स्तर के लिए जरूरी न्यूनतम सुविधाओं से वंचित हैं। यानी 35 करोड़ से अधिक भारतीय अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। प्रवक्ता ने कहा- ‘इस बात के साक्ष्य उपलब्ध हैं कि भारत में घरेलू कल्याण (household welfare) की स्थिति में सुधार हुआ है। इसके तहत बहु-आयामी गरीबी में गिरावट, सामाजिक हस्तांतरण में वृद्धि और प्रति व्यक्ति जीडीपी में बढ़ोतरी शामिल हैं। मगर उसके साथ ही यह ध्यान में रखना चाहिए कि 2022-23 के पारिवारिक सर्वे के दौरान 2011-12 की तुलना में प्रश्नावली डिजाइन एवं सर्वेक्षण विधि में कई परिवर्तन किए गए। इनकी वजह से यह संभव है कि पारिवारिक खर्च की गणना में वृद्धि हो गई हो।’ गौरतलब है कि विश्व बैंक गरीबी का आकलन प्रति दिन प्रति व्यक्ति खर्च क्षमता के आधार पर ही करता है।
अतः प्रवक्ता ने आंकड़ा संग्रहण की बदली विधि के प्रति आगाह किया और कहा कि इस कारण गरीबी के पुराने आंकड़ों की तुलना नए आंकड़ों से करना ठीक नहीं है। विश्व बैंक ने कहा कि चुनौती लोगों को गरीबी की बुनियादी रेखा के ऊपर लाने भर तक की नहीं है, बल्कि इस बात को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता है कि गरीबी का अर्थ क्या है? (https://www।indiatoday।in/business/story/exclusive-world-bank-poverty-in-india-measurement-metrics-one-in-four-below-minimum-standard-of-living-2750607-2025-07-04)
अर्थ का यह प्रश्न इस बहस में सबसे महत्त्वपूर्ण है। लेकिन भारत सरकार, शासक वर्ग और कॉरपोरेट मीडिया का सारा प्रयास ही यह है कि चर्चा इस बिंदु तक ना पहुंचे। इसलिए कि चर्चा वहां पहुंची, तो यह साफ होगा कि गरीबी के मोर्चे पर प्रगति दिखाने के लिए किस तरह की हेरफेर की गई है। गरीबी मापने का मूलभूत पैमाना प्रति दिन कैलोरी ग्रहण कर सकने की क्षमता था। इस पैमाने पर असल कहानी अवनति की है। (https://www।newsclick।in/most-india-not-getting-adequate-nutrition-govt-report)। और बात सिर्फ कैलोरी इनटेक की नहीं है। नव-उदारवादी दौर में प्रति दिन खर्च क्षमता के जो पैमाने वर्ल्ड बैंक- आईएमएफ ने प्रचलित किए, उस पर भी तस्वीर बेहतर नहीं है। (https://thewire।in/economy/the-hoax-of-decline-in-poverty-in-india)।
इस बारे में अनेक अध्ययन मौजूद हैं कि नव-उदारवादी दौर में जन मानस के बीच निजीकरण- उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों का औचित्य साबित करने के प्रयास में कैसे Washington Consensus (वॉशिंगटन आम सहमति) से जुड़ी संस्थाओं (विश्व बैंक, आईएमएफ, डब्लूटीओ, आदि) ने प्रगति एवं विकास के नए पैमाने दुनिया में फैलाए। इसके पहले पूंजीवादी विकास प्रक्रिया का औचित्य ठहराने के लिए उन्होंने ही (तब डब्लूटीओ नहीं था) खुशहाल मध्य वर्ग की नई धारणा दुनिया में फैलाई थी। बहरहाल, अब वो दौर आ गया है, जब इन पैमानों पर भी प्रगति या विकास को चिह्नित कर पाना कठिन होता जा रहा है। यही कारण है कि इस दौर में खुद Washington Consensus से जुड़ी संस्थाओं को भारत जैसे देश के आंकड़ों को लेकर आगाह करना पड़ रहा है।
मगर ये चेतावनियां आम लोगों तक नहीं पहुंचती। प्रचारित वो हेडलाइन्स होती हैं, जिन्हें उन संस्थाओं की रिपोर्टों में शामिल सरकारी आंकड़ों के आधार पर तैयार किया जाता है। वे हेडलाइन्स समाज के एक हिस्से में यह आश्वासन भरती हैं कि सब कुछ ठीक दिशा में चल रहा है। ये मोटे तौर पर समाज का वह हिस्सा है, जो पढ़ा-लिखा है, और जिसकी आवाज सुनी जाती है। बाकी विशाल आबादी उन पीड़ित तबकों की है, जिनके ऊपर गरीबी, बेरोजगारी और गैर-बराबरी की मार तेज होती चली गई है। लेकिन इन तबकों के पास वर्गीय चेतना और अपनी बात को कह सकने के मंचों का अभाव है। फिलहाल ऐसी राजनीतिक ताकतों की भी लगभग पूरी अनुपस्थिति है, जो वंचित तबकों की आवाज को संगठित करते थे। ये ताकतें आज पूरी तरह से जाति, धर्म और अन्य सांस्कृतिक प्रश्नों में उलझ चुकी हैं। इसीलिए ये शक्तियां शासक वर्ग की तरफ से आंकड़ों को तोड़-मरोड़ कर पेश किए जाने वाले नैरेटिव्स का मुकाबला करने में अक्षम हो गई हैं।
जबकि ना तो ठोस अध्ययनों पर आधारित आंकड़ों की कमी है, ना ही रोजाना आम लोगों को हो रहे तल्ख तजुर्बों की। हर रोज का तजुर्बा K आकार की अर्थव्यवस्था (K-shaped economy) के लगातार अधिक विकराल रूप ग्रहण करने की पुष्टि करता है। अंग्रेजी के K अक्षर की ऊपरी रेखा और ऊपर जा रही है। ये रेखा कॉरपोरेट्स, पूंजीपतियों, जायदाद मालिकों, टेक क्षेत्र से जुड़े संपन्न लोगों आदि की है। नीचे की तरफ जा रही रेखा वेतन भोगी लोगों, किराया चुकाने वाले समूहों, कृषि एवं असंगठित क्षेत्र पर निर्भर आबादी, विस्थापित मजदूरों, कर्ज से दबे मध्य वर्ग आदि की है। इन दोनों रेखाओं के बीच जो फर्क है, अब उसे महज विषमता कहना अब संभवतः सही अभिव्यक्ति नहीं है। अब स्थिति दो अलग हकीकतों में जी रहे समूहों के बीच पूर्ण विलगाव -divergence- की है।
पूंजीवाद के पक्ष में कभी दलील दी जाती थी कि जब धन पैदा होता है, तो रिस कर सब तक पहुंचता है। मगर आज का प्रत्यक्ष यथार्थ यह है कि छोटे से समूह के पास धन का संकेंद्रण विशाल आबादी की कीमत पर हो रहा है। ऐसे में खुशहाली के संकेत ढूंढना लगातार कठिन होता जा रहा है। ऐसे में शासक वर्गीय मीडिया अगर एकांगी सूचनाओं के आधार पर खुद हेडलाइन्स गढ़ने लगा है, तो उसकी मजबूरी समझी जा सकती है।