भारत के लिए नेपाल का घटनाक्रम बहुत बड़ा खतरा है। किसी और देश श्रीलंका, बांग्लादेश के साथ हमारी उतनी समानता नहीं है जितनी नेपाल के साथ। सब की यही दुआ प्रार्थना है कि हमारे यहां ऐसा हिंसक आन्दोलन कभी न हो। भारत के लोकतंत्र ने हमेशा इस तरह की आशंका को फेल किया है। मगर वह तब था जब लोकतंत्र वास्तविक अर्थों में था। चुनाव के जरिए परिवर्तन हो सकता था। होता था। लेकिन अब चुनाव की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़ा हो गया है।… अभी तीन पूर्व चुनाव आयुक्तों ने कहा कि चुनाव आयोग संदेह के घेरे में है।
नेपाल के आन्दोलनकारी युवाओं ने अपने फेसबुक पेजों पर लिखा है कि हम आखिरी पीढ़ी हैं जिसे आपने बेवकूफ बना लिया। और यही बात नेपाल के आंदोलन, घटनाओं का सार है।
यों बहुत सारे विश्लेषण हुए हैं और होते रहेंगे। मगर जो असली बात है वह यह है कि युवाओं के सब्र का बांध टूटने का समय आ गया है। इसे ऐसे समझिए कि युवा के पास समय कम होता जा रहा है। अच्छी और सस्ती शिक्षा और नौकरी दोनों की उम्मीद दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही। युवा अवस्था बीत जाएगी फिर क्या?
नौकरी की उम्र खत्म। ओवर एज जो गाली की तरह हो गया है उसे लगातार सुनने का डर!
समाज शास्त्र में मनोविज्ञान में एक हैप्पीनेस फार्मूला होता है। इसमें बताया जाता है कि खुशी का जो सबसे बड़ा दौर होता है वह युवा अवस्था में ही होता है। 20 साल की उम्र उसका सर्वोच्च पाइंट माना गया है। टीनएज से निकलते ही। ग्रेजुएशन पूरा हो जाता है। या कोई प्रोफेशनल कोर्स है तो वह पूरा होने वाला होता है। करियर के सपने उन्हें पूरा करने की तैयारियों का दौर।
मगर करियर, नौकरी, संभावनाएं सब खत्म हो जाए तो फिर गुस्सा है। अंदर ही अंदर खौलता आक्रोश है।
जनरेशन जी जिसे कहा जा रहा है वह अब अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। उसी का आन्दोलन है। 16 – 18 साल से लेकर 28 साल तक की उम्र के चेहरे दिखलाई दिए है।
गौर कीजिएगा उन्हीं देशों में हो रहा है जहां सरकारें काम नहीं केवल बातें कर रही हैं। झूठे वादे, घोषणाएं, राष्ट्रवाद, युवाओं को केवल कर्तव्य याद दिलाने के काम हो रहे हैं। नेपाल, बांग्ला देश, श्रीलंका, अफगानिस्तान कहीं काम नहीं था। हुआ चीन में भी। बहुत भारी दमन हुआ। थ्येनमन चौक। मगर फिर काम दिया।
नेपाल में कारण बहुत सारे हैं। एक तात्कालिक कारण सोशल मीडिया को बहुत हाईलाइट किया जा रहा है। धारणा इसी को कहते हैं। नरेटिव। सिस्टम को सूट करता है। अगर सोशल मीडिया बेन करना था तो वह तो फिर खोलना बहुत आसान था। खोल भी दिया था। सोमवार 8 सितम्बर को ही। जहां से हमने पढ़ कर लिखा है अब अगली पीढ़ी को हम बेवकूफ नहीं बनाने देंगे।
मगर उसके बाद लडके मंगलवार 9 सितम्बर को संसद में घुसे। आग लगाई। एक पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी को जिन्दा जला दिया। वर्तमान प्रधानमंत्री ओली का घर घेर लिया। हैलिकाप्टर से किसी तरह जान बचाकर निकले। सबसे घटना प्रधान दिन सोशल मीडिया से बेन हटाने के बाद ही हुआ।
युवा का अंधकारमय भविष्य मुख्य कारण है। जैसा कि हमने बताया कि खुशी, उंमग के जो सबसे अच्छे दिन होते हैं 18 साल से शुरू होकर 24 -25 साल तक के वह सबसे अनिश्चितता के दिन बन गए। वह निश्चित और सुरक्षित भविष्य चाहता है। जिसकी दूर दूर तक कोई संभावना नजर नहीं आती। आक्रोश वहीं से फूटता है।
भारत के लिए नेपाल का घटनाक्रम बहुत बड़ा खतरा है। किसी और देश श्रीलंका, बांग्लादेश के साथ हमारी उतनी समानता नहीं है जितनी नेपाल के साथ। सब की यही दुआ प्रार्थना है कि हमारे यहां ऐसा हिंसक आन्दोलन कभी न हो। भारत के लोकतंत्र ने हमेशा इस तरह की आशंका को फेल किया है। मगर वह तब था जब
लोकतंत्र वास्तविक अर्थों में था। चुनाव के जरिए परिवर्तन हो सकता था। होता था। लेकिन अब चुनाव की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़ा हो गया है। क्या चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र हो रहे हैं? यह सवाल हर तरफ है। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक के एक लोकसभा क्षेत्र सेन्ट्रल बंगलुरू की एक विधानसभा महादेवपुरा के आंकड़ें सामने रखकर बता दिया कि वोट चोरी किस तरह हो रही है। कह रहे हैं कि इससे भी बड़ा सबूत उनके पास है जिसे वे जल्दी ही उजागर करने वाले हैं।
बिहार में जिस तरह विषेश गहन पुनरीक्षण के नाम पर वोट काटे गए हैं उसने चुनावों की विश्वसनीयता पर और ज्यादा सवाल खड़े कर दिए हैं। चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानने तक को तैयार नहीं है कि आधार को वोट बनाने के लिए एक दस्तावेज मानो।
यह सब अच्छे संकेत नहीं हैं। हिंसा हमारे यहां कभी भी आन्दोलन का रूप नहीं रही। इसीलिए बार बार गांधी का नाम लिया जाता है। मगर पिछले 11 सालों में गांधी की अहिंसा पर ही सवाल किए जाने लगे। नाथुराम गोडसे का खुले आम समर्थन किया जाने लगा। हत्या को वध कहा जाने लगा। मारे जाने के कारण बताए जाने लगे। जिसका मतलब होता है ह्त्या को जस्टिफाई करना। वध का मतलब भी यही होता है सही ठहराना।
शायद अब समझ में आ जाए कि गांधी की अहिंसा क्यों जरूरी है? अहिसंक आन्दोलन कमजोरी नहीं होता बल्कि ज्यादा ताकत की मांग करता है। आत्मिक ताकत। लोकतंत्र की सबसे बड़ी जरूरत। उन्हें आंदोलनजीवी कहकर मजाक उड़ाने के गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं। इसी तरह चुनाव पर विश्वास उठने के भी।
देश में पहला सत्ता परिवर्तन 1977 में हुआ था। जिन इन्दिरा गांधी को तानाशाह कहते नहीं थकते, हर साल इमरजेन्सी की याद करके उन्हें कोसते हैं उन्होंने आराम से सत्ता सौंप दी थी। दूसरी बार 1989 में राजीव गांधी ने। दोनों बार 1977 और 1989 में चुनाव स्वतंत्र, निष्पक्ष, पारदर्शी तरीके से करवाए। और सत्ता हस्तातंरण भी शांति के साथ। खिलाड़ी भावना से।
क्या आज देश में पहली बात कोई चुनाव उतने स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से हो जाने की गारंटी देने को तैयार है? अभी तीन पूर्व चुनाव आयुक्तों ने कहा कि चुनाव आयोग संदेह के घेरे में है। दूसरी बात सत्ता हस्तातंरण की। जब सत्ता पक्ष दस साल बीस साल पचास साल सरकार में रहने की बात कर रहा हो तो क्या कोई सोच सकता है कि यह आसानी से सत्ता छोड़ेंगे! राहुल गांधी ने अभी अपनी सफल बिहार यात्रा में बड़ा सवाल उठाया कि अमित शाह कहते हैं 40 – 50 साल सत्ता में रहेंगे। उन्हें कैसे मालूम। कोई कैसे कह सकता है? राहुल ने इसका जवाब दिया वोट चोरी से।
यह वोट चोरी बड़ा सवाल बन गया है। नेपाल में भी यही गूंजा। वहां की हालत भी बिल्कुल ऐसी ही है। बड़ी बड़ी बातें। काम कुछ नहीं। दूसरों को भ्रष्टाचारी कहना और खुद पूरी सरकार पर आरोप ही आरोप। मगर हम तो दूध के धुले हैं। देश में अच्छी शिक्षा नहीं, सरकारी शिक्षा बंद प्राइवेट महंगी। सारे अच्छे विश्वविध्यालयों को बदनाम करना। और अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ाना। भाजपा के बड़े नेताओं के बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं यहां कहते हैं कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं हिन्दी और संस्कृत होना चाहिए। मध्य प्रदेश में मेडिकल की शिक्षा हिन्दी माध्यम से शुरू कर दी। इसी प्रचार के लिए। करोड़ों रुपए खर्च किए। एक बच्चा नहीं पढ़ा।
एक और बड़ी समस्या। जो भारत में सबसे ज्यादा है। गोदी मीडिया की। मोदी सरकार की हर बात सही ठहराने में लग जाती है। यहां तक कि मोदी के युवाओं को पकौड़े तलने की सलाह को भी। और साथ में नाले की गैस से चाय बनाकर डबल मुनाफा कमाने की स्कीम को भी। नेपाल में वहां के सबसे बड़े अख़बार कांतिपुर के दफ्तर में आग लगा दी गई। इसकी जितनी निंदा की जाए कम है। मगर उसी में लेख लिखकर प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली बताते थे कि नेपाल कैसे तरक्की कर रहा है और युवा कैसे उनके साथ हैं।
हमारे यहां भी मीडिया यही करता है। मीडिया एक माध्यम होता है युवा की इच्छाओं, आकांक्षाओं को स्वर देने का। यहां 11 साल से युवाओं को केवल कर्तव्य का पाठ पढ़ाया जा रहा है। शिक्षा रोजगार पर कोई चर्चा नहीं। नेहरू पर आरोप लगते हैं। हिन्दू मुसलमान होता है। सब वह सवाल उठते हैं जिससे युवा को भ्रमित किया जा सके। मगर जैसा कि हमने शुरू में लिखा कि आज का युवा कहने लगा है। जेन जी कि हमसे बाद आने वाली जनरेशन को भ्रमित नहीं करने देंगे। हमें बना लिया बेवकूफ! बस अब और नहीं ! और लास्ट कि परिवर्तन में कोई बुराई नहीं। मगर परिवर्तन के माध्यम लोकतंत्र चुनाव को खराब मत करो। युवा का विश्वास चुनाव पर रहने दो।
इसलिए आन्दोलनजीवी शब्द को वापस लो। नए नए नामाकरण युवा के मन में प्रतिक्रिया पैदा करते हैं। युवाओं के बारे में आईटी सेल से नहीं समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, शिक्षकों और खुद उनसे पूछो। सरकारें आएंगी, जाएंगी। 50 साल और सौ सालों की बातें मत करो।
दक्षिण एशिया में केवल भारत बचा है। यहां के लोकतंत्र, असली लोकतंत्र, केवल बातों वाला नहीं के दम पर। युवा को विश्वास होना चाहिए कि अगर परिवर्तन चाहता है तो किसी हिंसक आंदोलन की जरूरत नहीं चुनाव से हो जाएगा।
 
								 
								
								


 
												 
												 
												 
												 
												 
																	 
																	 
																	 
																	 
																	 
																	 
																	