आमिर ख़ान के बारे में मुझे दो बातें बहुत पसंद आती हैं। पहली बात ये कि वो अपनी फ़िल्मो में सुपरस्टार आमिर ख़ान नहीं रहते, बल्कि कहानी के किरदार बन जाते हैं। इस फ़िल्म में भी ऐसा ही महसूस हुआ। उन्होंने गुलशन के किरदार के साथ ज़बरदस्त इंसाफ़ किया है। आत्माभिमानी, आत्मकेंद्रित और चिड़चिड़ा गुलशन का एक केयरिंग और भावनात्मक कोच में बदलने की यात्रा को उन्होंने बखूबी निभाया है।
सिने- सोहबत
सिने-सोहबत में इस बार चर्चा एक बेहद ज़रूरी फ़िल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ के इर्द गिर्द, जो कि एक स्पैनिश फिल्म ‘कैम्पियॉन्स (चैंपियंस)’ की आधिकारिक हिंदी रीमेक है। इस संवेदनशील फ़िल्म के लेखक हैं दिव्य निधि शर्मा और निर्देशन किया है आरएस प्रसन्ना ने। आमिर ख़ान ने मुख्य भूमिका तो निभाई ही है, साथ ही वे और अपर्णा पुरोहित इस संवेदनशील फ़िल्म के निर्माता भी हैं।
फ़िल्म का फ़लसफ़ा बिलकुल साफ़ है, ‘सबका अपना-अपना नॉर्मल होता है’। बस, यही बात फ़िल्म की आत्मा है। ‘सितारे ज़मीन पर’ एक कोशिश है समाज में उन लोगों के साथ समानुभूति (एम्पैथी) बढ़ाने की, जिन्हें अक्सर ‘अबनॉर्मल’ कह कर खारिज़ कर दिया जाता है। फ़िल्म इस बात को बख़ूबी रेखांकित करती है कि न्यूरो-डायवर्जेंट लोगों का दिमाग दुनिया को एक अलग नज़रिये से देखता है। फ़िल्म न सिर्फ़ हमें मनोरंजन देती है, बल्कि ये सोचने पर मजबूर भी करती है कि असली अबनॉर्मेलिटी शायद हमारे नज़रिए में ही है। फ़िल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ ये बखूबी साबित करती है कि सिनेमा केवल पर्दे पर मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज में व्याप्त किसी नकारात्मक सोच को दुरुस्त करने के लिए एक प्रभावशाली टूल भी हो सकता है।
ग़ौरतलब है कि 2007 में आमिर ख़ान की ही फ़िल्म ‘तारे जमीन पर’ ने डिस्लेक्सिया जैसे जटिल लेकिन बेहद अहम् मुद्दे को एक संवेदनशील नज़रिए से सामने रखा था। अब ‘सितारे जमीन पर’ इंसानियत का असली मतलब समझने के लिए झकझोरती है।
अगर ‘सितारे ज़मीन पर’ की कहानी की बात करें तो जूनियर बास्केटबॉल कोच गुलशन अरोड़ा (आमिर खान) छोटा कद, बड़ी हठ और अहम से भरा है। अपनी मां (डॉली अहलूवालिया) के साथ रहता है, जबकि अभिनेत्री बनने का सपना अधूरा छोड़ चुकी पत्नी (जेनेलिया डिसूज़ा) से उसकी अनबन है। पर्सनल लाइफ़ की उदासी के साथ साथ प्रोफेशनल लाइफ़ में भी मायूसी ही है। खेल संस्थान से सस्पेंशन और एवरेज हाइट पर ताने उसके आत्मसम्मान को लगातार कुरेदते हैं। एक रात शराब पीकर गाड़ी चलाने और हाथापाई के बाद अदालत से जेल की बजाए कम्युनिटी सर्विस की सजा मिलती है, जिसमें उसे डाउन सिंड्रोम वाले युवा-वयस्कों की एक बास्केटबॉल टीम बनाकर उन्हें टूर्नामेंट-लायक तैयार करना है। टीम में हैं, सुनील (आशीष पेंडसे), सतबीर (आरुष दत्ता), लोटस (आयुष भंसाली) शर्मा जी (रिषि शहानी), गुड्डू (गोपी कृष्ण के वर्मा), राजू (ऋषभ जैन), बंटू (वेदांत शर्मा), गोलू (सिमरन मंगेशकर), करीम (संवित देसाई) और हरगोविंद (नमन मिश्रा)। शुरू में गुलशन इन्हें ‘अबनॉर्मल’ समझ क्रोध और झुंझलाहट से पेश आता है, पर मैदान, पसीना और छोटी-छोटी जीत, धीरे-धीरे न सिर्फ़ उसके भीतर की ज़िद तोड़ती है, बल्कि उसे एक संवेदनशील और एम्पैथी से भरा इंसान भी बनाती है। उसके भीतर के पूर्वाग्रह पिघलते हैं और वह समझने लगता है कि ‘नॉर्मल’ होने के हर किसी के पैमाने अलग होते हैं। पर क्या गुलशन इन खिलाड़ियों से वाकई दिल का रिश्ता जोड़ पाता है? क्या वह अपनी मानसिकता छोड़ टूर्नामेंट में उन्हें एकजुट कर सकेगा? क्या बच्चों को सिखाते सिखाते गुलशन खुद कुछ सीख पाएगा? गुलशन की इस यात्रा को बेहद मनोरंजक और इमोशनल तरीके से देखने के लिए आपको ये फ़िल्म देख लेनी चाहिए।
आईए, अब ज़रा इस फ़िल्म के निर्देशक और लेखक की बातें करते हैं। साउथ इंडियन सिनेमा में कई चर्चित फिल्में बना चुके निर्देशक आरएस प्रसन्ना हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए भी नए नहीं हैं। उन्होंने इसके पहले 2017 में ‘शुभ मंगल सावधान’ के ज़रिए ‘इरेक्टाइल डिस्फंक्शन’ जैसे संवेदनशील विषय को बेहद हल्के-फुल्के और मनोरंजक अंदाज़ में पेश किया था। इस बार ‘सितारे ज़मीन पर’ के माध्यम से वे न्यूरो-डायवर्जेंट (विशेष रूप से डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे) युवाओं की कहानी कह रहे हैं। हालांकि यह फिल्म स्पैनिश मूवी ‘चैंपियंस’ से अडैप्ट की गई है लेकिन फ़िल्म के लेखक दिव्य निधि शर्मा ने इसे बेहद सावधानी से भारतीय समाज की संवेदनाओं के अनुरूप, बारीकी से ढालने का सार्थक काम किया है। इसके पहले भी ‘लापता लेडीज़’ में उन्हें अपनी कलम का कुछ जादू बिखेरने का मौक़ा मिल चुका है। ‘सितारे ज़मीन पर’ के संवाद भी काफ़ी विचारोत्तेजक और मार्मिक हैं। ‘सबका अपना अपना नॉर्मल होता है’ के अलावा एक और संवाद जो मेरे मन में घर कर गया वो इन ख़ास बच्चों के बारे में है कि ‘ये बच्चे किसी भी घर को बूढ़ा होने नहीं देते’।
फ़िल्म की एक अहम् ख़ासियत है इसकी कास्टिंग, जिसमें असल ज़िन्दगी के डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे दस वयस्कों को बतौर कलाकार लिया गया है। उनसे अभिनय करवाना भी निर्देशक के लिए निःसंदेह एक टास्क ही रहा होगा। उनकी मासूमियत, नटखटपन और इंसानियत दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान छोड़ जाते हैं। फ़िल्म के असली सितारे तो वही हैं, जो भरपूर मनोरंजन करते हैं और इसे खास बनाते हैं। मां की भूमिका में डॉली अहलूवालिया और उनके मित्र की भूमिका में बृजेंद्र काला भी गुदगुदाते हैं। जेनेलिया डिसूजा ने कम स्क्रीन स्पेस के बावजूद अपनी भूमिका से ख़ासा प्रभाव छोड़ा है। कहानी का पहला हिस्सा थोड़ा स्लो लग सकता है लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म गहराई, मनोरंजन और भावनाओं का संतुलित अनुपात साध लेती है।
‘सितारे ज़मीन पर’ की एक दिलचस्प बात ये भी है कि इसमें बोरिंग तरीके से ज्ञान देने की बजाए इस फ़िल्म में हास्य की मदद से समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों और भेदभाव को तोड़ने की कोशिश बखूबी की गई है। साथ ही फ़िल्म के किरदारों के बीच ‘ह्यूमन कनेक्ट’ तो ऐसा है जो फिल्म की दुनिया को अपने दर्शकों से भी ऐसे जोड़ लेता है जैसे हो ‘जादू की झप्पी’।
फ़िल्म ने इस बात पर भी क्लियर स्टैंड लिया है कि डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे बच्चों को अबनॉर्मल या स्पेशल ट्रीटमेंट देने की बजाय सामान्य तरीके से ट्रीट किया जाए। फ़िल्म का एक और दिलचस्प पहलू है गुलशन की मां का सबप्लॉट, जो कहानी में मनोरंजन जोड़ता है। राम संपत का बैकग्राउंड स्कोर विषय के मूड से मेल खाता है, जबकि शंकर-एहसान-लॉय की धुनों में ‘गुड फॉर नथिंग’ गाना बेहद ख़ूबसूरत बन पड़ा है।
आमिर ख़ान के बारे में मुझे दो बातें बहुत पसंद आती हैं। पहली बात ये कि वो अपनी फ़िल्मो में सुपरस्टार आमिर ख़ान नहीं रहते, बल्कि कहानी के किरदार बन जाते हैं। इस फ़िल्म में भी ऐसा ही महसूस हुआ। उन्होंने गुलशन के किरदार के साथ ज़बरदस्त इंसाफ़ किया है। आत्माभिमानी, आत्मकेंद्रित और चिड़चिड़ा गुलशन का एक केयरिंग और भावनात्मक कोच में बदलने की यात्रा को उन्होंने बखूबी निभाया है।
दूसरी ज़बरदस्त बात है उनकी निर्भीकता, उनकी हिम्मत। आज के दौर में जब बड़े से बड़े निर्माता, बड़े बड़े सितारों के साथ सैकड़ों करोड़ की फिल्में बना कर भी थिएट्रिकल रिलीज़ से भाग रहे हैं और अपने रसूख का दबाव बना कर अपनी फ़िल्मों को ‘डायरेक्ट टू डिजिटल’ के नाम पर किसी न किसी ओटीटी प्लेटफॉर्म को चिपकाने में लगे हैं, ऐसे में आमिर ने एक स्टैंड लिया है। अपनी फ़िल्म के कॉन्टेंट के दम पर वो फ़िल्म को सिनेमाघरों में लेकर आए हैं ताकि सिनेमाघरों के जादू को बरक़रार रखा जा सके। लोगबाग अपने अपने घरों से बाहर निकलकर बड़े पर्दे पर सिनेमा के जादू को अनुभूत कर सकें और फ़िल्म उद्योग की उदासी को मुस्कान में तब्दील करने की दिशा में भी सार्थक प्रयास हो। बेमिसाल। आपके नज़दीकी सिनेमाघर में लगी है। ज़रूऱ देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर पॉप कल्चर कहानीकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, ‘स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़ ‘ के होस्ट हैं।)