राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

ग़ज़ब के हैं पौराणिक शिव

शिव रौद्र भी हैं और सौम्य भी। त्रिदेवों में वे संहार के देवता हैं — लेकिन संहार उनके लिए अंत नहीं, नए आरंभ की भूमिका है। वे समय के पार हैं — महाकाल। उनके गले में सर्प, जटाओं में गंगा, मस्तक पर चंद्रमा, हाथ में त्रिशूल और डमरू — यह सब विरोधी प्रतीकों का एक साथ होना उन्हें विशिष्ट बनाता है। वे अर्द्धनारीश्वर हैं, पर कामजित भी। गृहस्थ भी हैं, लेकिन श्मशानवासी।

वेदों में ईश्वर एक ही है — निराकार, सर्वशक्तिमान और अनगिनत गुणों से भरा। इन गुणों के कारण उसे कई नाम दिए गए, उन्हीं में एक है ‘शिव’। ऋग्वेद में रुद्र का उल्लेख है, जो आगे चलकर शिव कहलाए। वेदों में उनका निराकार रूप दिखता है — जिसकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना ही श्रेष्ठ मानी गई। लेकिन पौराणिक परंपरा ने शिव को एक ऐसे योगी के रूप में देखा, जो स्वयं ईश्वर के उपासक थे — ओम् के साधक।

राजा भी थे, संन्यासी भी।

शिव को कैलाशपति कहा गया — एक ऐसे राजा, जिनकी राजधानी कैलाश थी और जिनका राज्य हरिद्वार से लेकर तिब्बत तक फैला हुआ था। वे भले ही शासक थे, लेकिन उनका जीवन वैराग्य से भरा था। पार्वती उनकी पत्नी थीं, राजा दक्ष की कन्या। उन्होंने भी उत्तराखंड के गौरीकुंड में तपस्या की थी। उनके दो पुत्र — गणपति और कार्तिकेय — और एक पुत्री अशोक सुंदरी मानी जाती हैं। उनका परिवार और राज्य इतना समरस और संतुलित था कि लोगों ने उन्हें कालांतर में स्वयं ईश्वर मान लिया — शिव।

नाम अनेक, रूप विविध।

पौराणिक ग्रंथों में शिव को त्रिदेवों में एक माना गया है — उन्हें भोलेनाथ, महेश, शंकर, रुद्र, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, पशुपतिनाथ जैसे दर्जनों नामों से जाना गया। शिव पुराण और शिव महापुराण में उनकी लीलाओं और रूपों का विस्तृत वर्णन है। समुद्र मंथन में विषपान करने पर उन्हें ‘नीलकंठ’ कहा गया। तंत्र साधना में वे भैरव माने गए। उनकी अर्धांगिनी पार्वती शक्ति की प्रतीक हैं — और यही शक्ति शैव मत की मूलधारा है, जहाँ शिव और शक्ति को एकसाथ पूजित माना गया।

सह-अस्तित्व का देवता।

शिव रौद्र भी हैं और सौम्य भी। त्रिदेवों में वे संहार के देवता हैं — लेकिन संहार उनके लिए अंत नहीं, नए आरंभ की भूमिका है। वे समय के पार हैं — महाकाल। उनके गले में सर्प, जटाओं में गंगा, मस्तक पर चंद्रमा, हाथ में त्रिशूल और डमरू — यह सब विरोधी प्रतीकों का एक साथ होना उन्हें विशिष्ट बनाता है। वे अर्द्धनारीश्वर हैं, पर कामजित भी। गृहस्थ भी हैं, लेकिन श्मशानवासी। उनके परिवार में नंदी, सिंह, मयूर, सर्प, मूषक, भूत-प्रेत — सभी के लिए समान जगह है। यह शिव की समदर्शिता है।

नामों में दर्शन छिपा है।

शिव को अलग-अलग नामों से बुलाए जाने के पीछे हर एक नाम में एक अर्थ है। जो दुष्टों को दंड देते हैं, वे रुद्र हैं। पशुओं और प्राणियों के स्वामी — पशुपतिनाथ। शक्ति के साथ एकाकार होने पर — अर्द्धनारीश्वर। सहजता से प्रसन्न हो जाने वाले — भोलेनाथ। ब्रह्मांड के प्रतीक — लिंग रूप में पूज्य। तांडव करते हैं तो नटराज। समय के नियंता — महाकाल। ‘शिव’ शब्द का अर्थ ही होता है — शुभ, कल्याणकारी, दयालु, मित्रवत। व्युत्पत्ति कहती है — ‘शि’ यानी जिसमें सब कुछ समाया है, ‘व’ यानी अनुग्रह का भाव।

शिव: केवल देवता नहीं, जीवन की दृष्टि हैं।

ऋग्वेद में ‘शिव’ शब्द प्रत्यक्ष रूप में नहीं आता, लेकिन ‘रुद्र’ विशेषण के रूप में ईश्वर को संबोधित करता है। यही रुद्र बाद में शिव के रूप में लोकप्रिय हुए। वाल्मीकि रामायण, महाभारत, पुराणों में वे धीरे-धीरे एक विशिष्ट देवता के रूप में उभरे — जो सृजन, संहार और परिवर्तन — तीनों के प्रतीक हैं। महाकाल, आदिदेव, त्रयंबक, मृत्युंजय, नीलकंठ, उमापति, नागनाथ — ये सारे नाम एक व्यापक सांस्कृतिक स्मृति में उनकी उपस्थिति को गहराते हैं।

रुद्र से शिव की यात्रा।

रुद्राष्टाध्यायी में शिव को स्थावर–जंगम, पशु–वनस्पति, देव–मानव — हर रूप में देखा गया है। वे सबके भीतर व्याप्त हैं, अंतर्यामी हैं। शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार, अन्न, जल, वृक्ष, सूर्य, वायु — सब शिव रूप हैं। जो शुभ करते हैं, वही संकट भी लाते हैं — यह द्वैत से परे दृष्टि है। अच्छे कर्म वालों के लिए वे वर्षा, अन्न और कल्याण हैं; और दुर्बुद्धि वालों के लिए दुःख, मृत्यु और कठिनाई। इसीलिए वे शिव भी हैं और रुद्र भी।

शिव: आदि और अंत के पार।

शिव अनादि हैं — जब कुछ नहीं था, तब भी शिव थे; जब कुछ नहीं रहेगा, तब भी शिव होंगे। वे समय नहीं, समय के भी पार हैं। उनकी चेतना से ही जीवन की शुरुआत है — और इसी से अंत की तैयारी भी। पूरे ब्रह्मांड की गति, उसकी उष्मा, उसकी गति का स्रोत — शिव। परमात्मा ने शिव के माध्यम से ही वेदों का ज्ञान मानव को दिया, और यह ज्ञान मनुष्य को आत्मबोध की ओर ले गया। इसी बोध से रुद्र से शिव की यात्रा संभव होती है — और यही उनका सबसे बड़ा रहस्य है।

Tags :

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *