जी-20 के जोहान्सबर्ग शिखर सम्मेलन से साफ जाहिर हुआल है कि अमेरिका की गैर-हाजिरी से वहां ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। जी-20 तो वैसे भी दुनिया की नई कथा से मामूली रूप से ही जुड़ा हुआ है। यह कथा लिखने के प्रमुख मंच ब्रिक्स+, यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन, शंघाई सहयोग संगठन आदि जैसे संगठन हैं, और वहां तो अमेरिका उपस्थिति ही नहीं है।
‘संकट के समय जन्मा, लेकिन वर्षों तक अपने सदस्यों के तनाव से ग्रस्त रहे जी-20 समूह में पिछले सप्ताहांत बहु-पक्षीयता (multilateralism) की एक बड़ी जीत हुई, जब यह अपने सबसे शक्तिशाली सदस्य अमेरिका के बहिष्कार एवं आपत्तियों से उबरने में सफल हुआ। जी-20 के इस साल का अध्यक्ष दक्षिण अफ्रीका अमेरिका और अर्जेंटीना को छोड़ कर बाकी सभी सदस्य देशों को साझा वक्तव्य के लिए एकजुट करने में कामयाब रहा। यह वक्तव्य अमेरिका की धमकियों को नजरअंदाज करते हुए जारी हुआ और इससे फिलहाल जी-20 के भविष्य को लेकर उठे सवालों पर विराम लग गया है। जलवायु परिवर्तन और बाहरी ऋण से निपटने में गरीब देशों की मदद की बात तो दूर, अनेक हलकों में इसको लेकर भी संदेह था कि क्या दक्षिण अफ्रीका साझा बयान जारी करवा पाएगा।
इस परिणाम से जी-20 का अगला मेजबान अमेरिका नाराज हुआ है। ह्वाइट हाउस ने आरोप लगाया कि दक्षिण अफ्रीका अपनी अध्यक्षता का दुरुपयोग कर जी-20 के सर्व-सम्मति के आधारभूत सिद्धांत की अवहेलना कर रहा है। ह्वाइट हाउस ने कहा कि अगले वर्ष मेजबानी करते हुए राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप इस मंच की वैधता (legitimacy) को बहाल करेंगे।
जोहान्सबर्ग में जारी घोषणापत्र में भी अगले शिखर सम्मेलनों को लेकर शब्दों का चयन सावधानी से किया गया। दक्षिण अफ्रीका के प्रतिनिधि के मुताबिक वक्तव्य में ब्रिटेन और दक्षिण कोरिया में जी-20 शिखर सम्मेलनों को लेकर प्रतिबद्धता जताई गई, जबकि अमेरिकी अध्यक्षता के तहत साथ मिलकर काम करने की बात भर उसमें कही गई है।’
उपरोक्त पंक्तियां जोहान्सबर्ग शिखर सम्मेलन की समाप्ति के बाद ब्रिटिश-कैनेडियन न्यूज एजेंसी रॉयटर्स की जारी एक रिपोर्ट से ली गई हैँ। ये पंक्तियां जोहान्सबर्ग शिखर सम्मेलन का सार हैं। साझा घोषणापत्र में क्या कहा गया या वहां पहुंचे 19 देशों (सबसे नए सदस्य अफ्रीकन यूनियन के साथ जी-20 के 21 सदस्य हैं। अमेरिका और अर्जेंटीना ने जोहान्सबर्ग सम्मेलन का बहिष्कार किया) के नेताओं ने क्या कहा, यह ज्यादा अहम नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि अमेरिका के बहिष्कार के बावजूद यह सम्मेलन हुआ और मौजूद देशों ने साझा घोषणापत्र जारी किया। संदेश साफ है। अब दुनिया उस मुकाम है, जहां अमेरिका के अपरिहार्य होने की हैसियत खत्म हो चुकी है। यहां तक कि अमेरिका के पिछलग्गू माने जाने वाले यूरोपीय एवं जापान जैसे देशों ने भी उस बयान पर दस्तखत किया, जिसको लेकर अमेरिका ने खुलेआम नाराजगी जताई थी।
जोहान्सबर्ग में जो हुआ, उससे ट्रंप इतने नाराज हुए कि उन्होंने अगले शिखर सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीका को ना आमंत्रित करने की घोषणा की है। अपने सोशल मीडिया पोस्ट में उन्होंने कहा- ‘दक्षिण अफ्रीका ने दिखा दिया है कि वह इस समूह का सदस्य बने रहने के काबिल नहीं है। हम अविलंब उसे मिलने वाली तमाम सब्सिडी और भुगतान रोकने जा रहे हैं।’
जी-20 का गठन अमेरिका केंद्रित विश्व अर्थव्यवस्था को संभालने और आम सहमति से उसके संचालन के लिए हुआ था।
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- 1997–98 के एशियाई वित्तीय संकट (Asian Financial Crisis) के बाद वैश्विक आर्थिक स्थिरता पर चर्चा के लिए एक नए मंच की आवश्यकता महसूस हुई। इसी संदर्भ में 1999 में जी-20 का गठन हुआ।
- शुरुआत में यह केवल वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों का अनौपचारिक मंच था। उद्देश्य था: धनी और बड़े विकासशील देशों को एक साथ लाकर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और वित्तीय स्थिरता कायम करना।
- 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद जी-20 नेताओं के शिखर सम्मेलन का आयोजन शुरू किया गया। मकसद लड़खड़ाती विश्व अर्थव्यवस्था को साझा प्रयास से संभालना था।
यहां अर्थव्यवस्था से तात्पर्य नव-उदारवादी ढांचे से है, जिसका स्वरूप ‘वॉशिंगटन आम-सहमति’ के तहत तय किया गया। सोवियत संघ के विघटन के बाद बनी कथित एक-ध्रुवीय दुनिया के आर्थिक एजेंडे के रूप में ‘वॉशिंगटन आम-सहमति’ तैयार हुई थी। उसे अमेरिकी वित्त मंत्रालय, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, और विश्व बैंक ने आपसी सहमति से तैयार किया। फिर इसे- खासकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के जरिए- सारी दुनिया पर थोपा गया। जाहिर है, पूरी परियोजना में नेतृत्वकारी भूमिका अमेरिका की बनी रही। लाजिम था कि जब इन नीतियों के कारण तबाहियां आईं, तो हालात संभालने के लिए जी-20 की स्थापना में भी अमेरिका का ही सबसे प्रमुख योगदान रहा।
अब उसी अमेरिका के बहिष्कार के बावजूद जी-20 शिखर सम्मेलन हुआ और उसकी आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए इस मंच ने वैश्विक समस्याओं पर बात की है, तो उसका अर्थ स्वयं स्पष्ट है।
बहरहाल, प्रतीकात्मक रूप में इस घटनाक्रम का चाहे जो महत्त्व हो, मगर इससे जी-20 की प्रासंगिकता पर गहराते गए सवालों का जवाब नहीं मिला है। दुनिया में नए शक्ति-संतुलन और नए उभरे समीकरणों के बीच जी-20 पहले से अपनी प्रासंगिक खोता चला गया है। फरवरी 2022 में यूक्रेन में रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू होने के बाद तो इस मंच की भूमिका एक टॉक शो जैसी रह गई है। उसके बाद से किसी जी-20 शिखर सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने भाग नहीं लिया है, जबकि 2022 में बाली शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी इसमें जाने की जरूरत नहीं समझी है। इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है।
उपरोक्त विवरण से साफ है कि जी-20 को उस नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए गठित किया गया था, जिसके बारे में तब माना जाता था कि उसका ‘कोई विकल्प नहीं है’। लेकिन आज कहानी बदल चुकी है। आज वह ढांचा गहरे संकट से ग्रस्त है। आम जन के लिए उन नीतियों के परिणाम इस हद तक हानिकारक साबित हुए कि अब उनके सूत्रधार देशों में ही उन्हें तीखी चुनौतियां मिल रही हैं। अमेरिका में जिस मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) आंदोलन का नेतृत्व डॉनल्ड ट्रंप कर रहे हैं, उसकी भी यह समझ है कि उन नीतियों ने इस आर्थिक महाशक्ति की जड़ों को खोखला कर दिया है।
व्यक्तित्व संबंधी खामियों और तमाम नीतिगत अस्थिरताओं के बावजूद यह मानने का आधार है कि डॉनल्ड ट्रंप ने इस हकीकत को अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों की तुलना में बेहतर ढंग से समझा है। उन्हें अहसास है कि अमेरिका दुनिया पर अपनी मनमानी थोपने की हैसियत में अब नहीं है। सैन्य ताकत से वह विनाश जरूर कर सकता है, लेकिन खुशहाली का सपना बेचने की उसकी क्षमता क्षीण हो चुकी है। इस कारण विश्व मंचों पर अमेरिका का पहले जैसा एकछत्र राज नहीं बचा। वहां कम-से-कम चीन और रूस के नेता समान हैसियत के साथ खड़े नजर आते हैँ। अगर बात सिर्फ आर्थिक क्षेत्र की हो, तो वहां चीन की हैसियत अमेरिका से ऊपर ही नजर आती है।
ट्रंप ने जी-20 सम्मेलन का बहिष्कार दक्षिण अफ्रीका में श्वेत समुदाय पर अत्याचार का फर्जी आरोप लगाते हुए किया। मगर, यह अकेला बहुपक्षीय मंच नहीं है, जिससे उन्होंने अपने देश को अलग किया है। संयुक्त राष्ट्र की तमाम एजेंसियों से भी उन्होंने अमेरिका का सहयोग तोड़ लिया है। इसके पीछे उनकी क्या सोच है, इसका एक संकेत अर्जेंटीना के राष्ट्रपति हैवियर मिलेय ने दिया। ध्यानार्थ है- मिलेय खुद को अराजक पूंजीवादी (Anarcho-capitalist) कहते हैं। यह libertarian विचार ट्रंप की सोच का प्रतिबिंब है। इसीलिए बीते अक्टूबर में अर्जेंटीना में हुए चुनाव के दौरान ट्रंप ने मिलेय की भरसक मदद की। उन्होंने एलान किया कि मिलेय की पार्टी जीती, तो अमेरिका 40 बिलियन डॉलर की सहायता अर्जेंटीना को उपलब्ध कराएगा। चुनाव नतीजा तय करने में ट्रंप का यह हस्तक्षेप निर्णायक साबित हुआ।
तो मिलेय ने कहा- ‘दुनिया अब अलग स्वरूप ग्रहण कर रही है। इसमें तीन समूह होंगे, जिनका नेतृत्व अमेरिका, रूस, और चीन के हाथ में होगा। अमेरिका ने इस बात को समझा है कि उसका प्रभाव क्षेत्र लैटिन अमेरिका में है। निसंदेह अर्जेंटीना यहां अमेरिका का सबसे बड़ा रणनीतिक सहयोगी है।’ मिलेय ने यह बात अर्जेंटीना के चुनाव में ट्रंप के हस्तक्षेप को उचित ठहराने के क्रम में कही। इस समझ को ध्यान में रखें, तो सत्ता में आते ही ट्रंप ने पनामा पर जो दबाव बनाया और फिलहाल वेनेजुएला के खिलाफ युद्ध की जैसी मोर्चाबंदी अमेरिका ने कर रखी है, उसके पीछे की सोच को आसानी से समझा जा सकता है। साथ ही रूस की शर्तों पर यूक्रेन युद्ध खत्म कराने और चीन के साथ समानता के स्तर पर व्यापार समझौता कर लेने के ट्रंप प्रशासन के रुख को भी बेहतर समझा जा सकता है।
जब कभी ट्रंप के व्यापार युद्ध का इतिहास लिखा जाएगा, वहां इसे अमेरिकी वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने की एक नाकाम कोशिश के रूप में दर्ज किया जाएगा। इस नाकामी के पीछे जो कारण दर्ज होगा, वह है आर्थिक महाशक्ति के रूप में चीन का अभूतपूर्व उदय। अमेरिकी इतिहासकार इस पर अफसोस जताते नजर आएंगे कि चीन के उदय को रोकने के प्रयास में अमेरिका ने बहुत देर कर दी। जब यह कोशिश शुरू की गई, तब तक खुद अमेरिकी अर्थव्यवस्था चीन की उत्पादक क्षमता पर इतनी निर्भर हो चुकी थी कि राष्ट्रपति ट्रंप को कदम वापस खींचने पड़े!
रेयर अर्थ खनिजों, रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुओं आदि के मामले में चीन का दबदबा कायम होने की कहानियां बहुचर्चित हो चुकी हैं। अब इसमें नया पहलू वित्तीय क्षेत्र में जुड़ा है। अभी हाल में अमेरिकी एजेंसी एडडेटा ने यह खुलासा किया कि पिछले 25 वर्षों में अमेरिकी कारोबारी घरानों ने चीनी संस्थानों से 200 बिलियन डॉलर के कर्ज लिए हैं, तो उससे सनसनी फैल गई। ऐडडेटा की रिपोर्ट में बताया गया कि पिछले दो दशकों में दुनिया के 80 फीसदी देशों ने चीनी संस्थानों से ऋण लिए हैँ। दरअसल, यह सूचना नई नहीं है कि चीन दुनिया में सबसे बड़ा कर्जदाता देश बन गया है, जिस बात से सनसनी फैली वो यह है कि चीन के कर्ज लेने वालों में दुनिया के सबसे धनी देश भी शामिल हो गए हैँ।
(https://fortune.com/2025/11/18/secret-china-loans-to-us-business-200-billion-over-25-years-shell-companies/)
विकासशील दुनिया में चीन के कर्ज का प्रसार उसकी महत्त्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना के साथ हुआ है। एडडेटा ने कहा- जो 140 से अधिक देश इस परियोजना से जुड़े हैं, वहां चीन की तकनीक, सामग्रियों, और ऋण से बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य हुए हैं, यह ज्ञात तथ्य है। लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया था कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड्स, पुर्तगाल आदि जैसे देशों ने भी चीनी संस्थानों से बड़े पैमाने पर ऋण लिए हैँ।
जब यह तस्वीर हो, तो लाजिमी है कि ग्लोबल साउथ में चीन का प्रभाव तेजी से बढ़ा है। जी-7 को छोड़ दें, तो बाकी कोई भी विश्व मंच हो, वहां बहुतायत विकासशील देशों की ही होती है। ये देश कभी पश्चिमी सहायता पर बुरी तरह निर्भर होते थे। लेकिन चीन के उदय और उसकी वैश्विक रणनीति ने वह निर्भरता काफी हद तक खत्म कर दी है। यह बात लैटिन अमेरिका पर भी उतनी ही लागू होती है। इसलिए वहां भी अमेरिकी वर्चस्व को पुनर्स्थापित करना ट्रंप प्रशासन के लिए आसान नहीं होगा। इस तथ्य पर गौर करेः
-33 CELAC (Community of Latin American and Caribbean States) देशों में 24 बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा हैं
-ब्राजील, चिली और पेरू सहित कई अनेक CELAC देशों का सबसे बड़ा व्यापार सहभागी चीन है।
-चीनी कंपनियों को वहां विभिन्न देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण, 5-जी नेटवर्क संचालन, कृषि योजनाओं, प्रमुख खनिजों और इलेक्ट्रिक वाहनों के निर्माण का ठेका मिला हुआ है।
जाहिर है, वहां से चीन को बेदखल करना या उसके प्रभाव से उस क्षेत्र को मुक्त करा लेना अमेरिका के लिए आसान नहीं है। सवाल यही उठेगा कि क्या उन देशों में या दुनिया के दूसरे हिस्सों में निर्माण, तकनीक एवं सेवा संबंधी उपरोक्त भूमिका बना सकने की स्थिति में अमेरिका है? अगर वह इन मामलों में बेहतर और किफायती विकल्प नहीं दे सकता, तो इस होड़ में वह कैसे विजयी हो सकता है?
इस बिंदु पर आकर आर्थिक विकास के मॉडल पर चर्चा प्रासंगिक हो जाती है। दुनिया के सामने सवाल यह है कि आखिर अमेरिका ने आर्थिक महाशक्ति की हैसियत क्यों गवां दी और चीन किस मॉडल को अपनाते हुए इस हैसियत तक पहुंच गया। वो हैसियत क्या है, इसका उल्लेख ब्रिटिश-अमेरिकन आर्थिक इतिहासकार एडम टूज ने हाल में एक पॉडकास्ट में किया। उन्होंने कहा- ‘चीन सिर्फ विश्लेषण संबंधी मुद्दा नहीं है। यह आज आधुनिकता को समझने की मुख्य कुंजी (master key) है। यह संगठित आधुनिकीकरण की सबसे बड़ी प्रयोगशाला है। यह एक ऐसी जगह है, जहां पश्चिम का औद्योगिक इतिहास किसी बड़ी कहानी का प्राक्कथन मालूम पड़ने लगता है।’ (Adam Tooze Climbs the China Learning Curve)
चाइनीज मूल के अमेरिकी लेखक, संगीतकार और पॉडकास्टर काइसर कुओ के मुताबिक इसी प्रयोग का असर है कि दुनिया आज अस्थिरता से ग्रस्त नजर आ रही है। आधुनिक युग के जाने-पहचाने प्रमुख स्थल अब धुंधले पड़ रहे हैं, चीजें वहां से फिसलती नजर आ रही हैं और प्रगति एवं शक्ति की जो कहानियां हमें सुनाई जाती थीं, वे आज के मानचित्र को समझा पाने में विफल हो रही हैं। (The Great Reckoning – The Ideas Letter)
जी-20 के जोहान्सबर्ग शिखर सम्मेलन में जो जाहिर हुआ, वह इसी कथा का एक प्रसंग है। अमेरिका की गैर-हाजिरी से वहां ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। जी-20 तो वैसे भी दुनिया की नई कथा से मामूली रूप से ही जुड़ा हुआ है। यह कथा लिखने के प्रमुख मंच ब्रिक्स+, यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन, शंघाई सहयोग संगठन आदि जैसे संगठन हैं, और वहां तो अमेरिका उपस्थिति ही नहीं है।


