हो सकता है मैं गलत हूं, फिर भी मेरा मानना है बिहार मोदी-शाह की गोद में है। तेजस्वी, राहुल गांधी, प्रशांत किशोर किसी का कोई अर्थ नहीं। इन सबकी याकि विपक्ष की दिक्कत है जो नहीं समझते कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह चौबीस घंटे सत्ता की भूख में जीते हैं। कैसे भी हो सत्ता में रहना है। सोचें, ईस्ट इंडिया कंपनी के बनिया अंग्रेज और मोदी-शाह में क्या समानता है? फूट डालो, राज करो और खरीदो! त्रासद है उस इतिहास को याद कराना। पर तथ्य याद करें कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में पलासी और 1764 में बक्सर के युद्ध को जीता था तो उसमें तब बिहार भी था। पता है क्लाइव की सेना में कुल तीन हजार सैनिक थे! इसमें गोरे सैनिक केवल आठ सौ थे! जबकि हिंदुस्तानी सेना में पचास हजार सैनिक थे। मगर क्लाइव ने स्थानीय जगत सेठों के पैसे का इस्तेमाल किया। मीर जाफर और उनके सैनिकों को खरीद लिया। सो, अंग्रेज बनिया जीते और फिर दो सौ साल बंगाल, बिहार और उड़ीसा को लूटा। सो, बांटना, जीतना, लूटना अंग्रेजों का बताया मंत्र है।
भला मोदी-शाह की ईस्ट इंडिया कंपनी याकि क्रोनी जगत सेठों के हिस्सेदारी वाली कंपनी क्यों चूके? ध्यान रहे बिहार को मोदी-शाह की टीम ही चला रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जनता दल यू पूरी तरह मोदी-शाह की राजनीति, प्रबंधकीय व्यवस्थाओं, वोट पकाने की असेंबली लाइन से निर्देशित हैं। मैंने 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद विश्लेषण किया था कि चुनाव का मतदान अब मोदी-शाह की असेंबली लाइन में धड़ाधड़ वोटों का उत्पादन है। इसलिए क्योंकि दोनों की गणित में ए टू जेड के सभी विकल्प हैं, जुमले हैं, प्रबंधकीय व्यवस्थाएं हैं। और यह सत्य लगातार साबित हुआ है। बिहार के मामले में अपने को इसलिए दिलचस्पी थी क्योंकि प्रशांत किशोर बिहार और मोदी-शाह को गहराई से जानते-समझते हैं तो वे कुछ ऐसा नया, अनहोना करेंगे जिससे कुछ उलटफेर हो।
पर वे भी फेल होते लगते हैं। इसलिए क्योंकि उन्हें यह अनुमान नहीं रहा होगा कि चुनाव से ऐन पहले लगभग पूरी आबादी को अलग-अलग टुकड़ों में बांट, उनके अलग-अलग प्रतिनिधि ग्रुप बनाकर सीधे खातों में इतनी नकदी पहुंचा दी जाएगी कि घर-परिवार के लोग बाकी सब भुला देंगे। मेरा मानना है महिलाओं के खातों में दस हजार रुपए की नकदी पहुंचाना निर्णायक है। जिस प्रदेश में कुछ सौ रुपए, हजार-दो हजार रुपए के लिए लाठी चले, जान चली जाए वहां दस-दस हजार रुपए महिला के खाते में पहुंचे और उस पैसे से छठ का त्योहार मने तो वह तो उनके लिए अमृतकाल ही होगा!
कहते हैं इतनी स्कीमों, इतने बहानों की आड़ में सरकार से बिहार में पैसा बंटा है कि कोई हिसाब नहीं लग सकता। तभी ईवीएम से कथित धांधली या चुनाव आयोग की हेराफेरी या हिंदू बनाम मुस्लिम की बिहार में जरूरत नहीं होगी। बिहार का यह चुनाव सरकारी पैसे से जीता जाएगा। चुनाव में वादों से पहले ही जब पैसा बंट गया है, लोगों को खरीद लिया है तो चुनाव में भी वादों व खैरात के अलग नैरेटिव और जमीनी प्रबंध होंगे। इसलिए भाजपा-जनता दल यू की छप्पर फाड़ जीत तय है।
तभी तेजस्वी यादव, राहुल गांधी, इनके वामपंथी सहयोगी और प्रशांत किशोर धूल में लट्ठ मारते हुए हैं। प्रशांत किशोर की पहली उम्मीदवार लिस्ट में जातीय समीकरणों की चिंता है। मतलब लालू-तेजस्वी और राहुल गांधी की जातिवादी राजनीति की छाप। कोई भी नेता या पार्टी बिहार की दशा (35 साल की मंडल राजनीति में) के हवाले मतदाताओं में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी-बेगारी, असमानता, लूट-खसोट तथा कानून-व्यवस्था की स्थितियों, अपराध आदि का मसला-मुद्दा उभार नहीं पा रहा है। तेजस्वी ने पिछली बार रोजगार का हल्ला बनाया था, अभी भी हर घर में एक सरकारी नौकरी जैसी बात है पर इससे यादव नौजवानों का जनसभाओं में रैला भले बन जाए मगर मोदी-शाह ने पहले ही घर-घर अपने वोट पका लिए हैं। इसलिए बिहार का नतीजा वैसा ही होगा जैसे सौदेबाज-धंधेबाज अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1776 में लड़ाई जीती थी।