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23-06-2025 Vol 19

हर कोई मुखौटा बन अपने को बेच रहा है!

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सोचें, डोनाल्‍ड ट्रंप और इलॉन मस्क पर! एक दुनिया के सर्वोपरि देश का राष्ट्रपति और दूसरा विश्व का नंबर एक खरबपति! ट्रंप के मुखड़े पर अहंकार का यह मखौटा है कि, ‘मैं ही अमेरिका हूं’, वही इलॉन मस्क पर यह कि, ‘मैं ही कुबेर हूं’! दोनों के करोड़ों फॉलोवर होंगे। पर दोनों असलियत में मनोरंजन हैं! ये मुखौटा ओढ़े हुए वे जोकर हैं, जिन्हें भाग्य ने अवसर दिया, समय ने बनाया मगर ये अपने फटाफट में बेचने और बिकने के ब्रांड बन गए! गौर करें, ये दोनों अब कैसे नमूने लगते हैं। मगर अमेरिका में हिट भी हैं क्योंकि वहां भी तो वक्त मुखड़े पर मुखौटा चस्पा करने का है! अमेरिका ऐसा कैसे बना, यह अलग मसला है लेकिन फिलहाल इन दो से ‘अमेरिका’ और ‘कुबेर’ होने के मायने पर ही विचारें। ट्रंप उर्फ अमेरिका और मस्क उर्फ कुबेर का क्या बना है, इसकी असलियत पर भी अमेरिका में कोई गौर इसलिए नहीं कर सकता है क्योंकि सबको मजा भी चाहिए। तभी इंतजार होता है कि टीवी खोलो और आज की इनकी मसखरी देखों! सभी के लिए दोनों जोकर हो गए है।

डोनाल्ड ट्रंप ने यह रूटिन बना लिया है कि वे रोजाना कैमरे के आगे प्रेस कांफ्रेंस करेंगे, अपने बालों, चेहरे को लटकाते-झटकाते मुखड़े का ऐसा क्लोजअप देंगे मानों टेलीविज़न सेट पर टेप से चिपका हो। और फिर हर दिन ‘मैं महान’, ‘ग्रेट’, ‘ब्यूटीफुल’ का भोंड़ा राग। साथ में गर्वोक्ति कि देखों मैंने धंधे का रिमोट चलाया नहीं कि लड़ते-भिड़ते भारत और पाकिस्तान ने सीजफायर किया! मैंने पुतिन को खरी खरी सुनाई या चीन को दुरूस्त किया! जाहिर है डोनाल्ड ट्रंप चुटकियों में सब काम कर देते हैं। उनके हाथ में वह एक रिमोट है, जिससे चैनल बदल कर दुनिया के देशों को ठीक कर दे रहे हैं! और अमेरिका को तो खैर ग्रेट बना ही दे रहे हैं!

फिर जनाब मस्क हैं जो स्पेसएक्स उड़ाते-उड़ाते अपने छोटे बच्चे को लेकर राजनीति के नए मुखौटे की उछलकूद में ऐसे लंगूर बने कि कभी हाथ में उस्तरा, कैंची होती है तो कभी चेक के लहराते फोटो! इस सप्ताह गजब ही हुआ। मस्क ने अपने एक्स हैंडल से पोस्ट करके न केवल डोनाल्ड ट्रंप को महापापी करार दिया, बल्कि अमेरिका में नई पार्टी के गठन की जरूरत भी बताई!

सो, अमेरिका एक तमाशा हो गया है! इस तमाशे के प्रति अमेरिकियों में निश्चित ही दिवानगी है। अमेरिका उसी वायरस का मारा है, जिसने सत्य, बुद्धि को खा कर सर्वत्र चेहरों पर झूठ के मुखौटे उभार दिए हैं। सोचें, जिस शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान याकि हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों से अमेरिका बना, जिससे उसने 1901 से 2023 के मध्य में तमाम तरह के शोध, खोजों, उपलब्धियों में रिकॉर्ड तोड़ 423 नोबेल पुरस्कार पाए और जो दुनिया की सर्वोच्च उच्चस्तरीय ज्ञान की खदान हुआ तथा दुनिया का मददगार, पालनहार भी हुआ उस अमेरिका का पिछले सौ दिनों में ट्रंप और मस्क के हाथों क्या हुआ है? आगे क्या होगा?

डोनाल्ड ट्रंप की रावण से तुलना की जानी चाहिए। दशानन रावण अपने एक मुखड़े में जितने मुखौटे चिपकाए हुए था उससे ज्यादा डोनाल्ड ट्रंप के हैं! यह अलग बात है कि समय की लीला में मानवता ही जब मुखौटे के जतन में है तो वे क्या करें? अब इंसानों में यही तो होड़ है कि अपनी सेल्फी से अपने को बेचे, लोकप्रियता का जुगाड़ बने। इलॉन मस्क ने भला क्यों ट्विटर खरीदा? क्यों स्पेसएक्स से ज्यादा एक्स से अपने ब्रांड की भड़भड़ाहट बनाई है? इसकी वीडियो क्लिप के खातिर ही तो वे उछलते-कूदते और नाचते दिखते हैं!

जाहिर है समय की हवा में अब असल सभी तरफ मिटता हुआ है। ऐसे में डोनाल्ड ट्रंप या नरेंद्र मोदी आदि की यह मजबूरी समझ आती है जो वे अपना चेहरा चौबीसों घंटे स्क्रीन पर चिपकाए घूमते रहें। आखिर जो दिखता है वही बिकता है! और दिखाना तभी सार्थक याकि हिट है जब मुखड़े पर नए-नए मुखौटे लगते जाएं, नए-नए जुमले बोले जाते रहें, अभिनय होता रहे।

याद करें इलॉन मस्क ने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप के मंच पर आने से ले कर अब तक कितनी तरह की उछलकूद, एक्शन और फोटोशूट करवाए हैं? उन्होंने इसके लिए अपने बच्चे का उपयोग किया, व्हाइट हाउस, डोनाल्ड ट्रंप का उपयोग किया तो सरकार को कतरने की ताकत बताते हुए हाथ में कैंची का फोटोशूट भी कराया!

ट्रंप की संगत से पहले इलॉन मस्क उद्यमिता का एक जैविक मुखड़ा था। सहज, गंभीरता से अपनी कीर्ति बनाता हुआ। तब उनका चेहरा देख उनके नाम से जुड़ी उपलब्धियों का भान होता था। लेकिन अब? इस सवाल में मेरा नजरिया अलग है और संभव है कि मेरी सोच के विपरीत मस्क अब अमेरिकी लोगों की नब्ज बन गए हों। उनकी राजनीतिक उछलकूद, उनके डायलॉग, अभिनय वहां सुपरहिट बना हुआ हो। आखिर ट्रंप के भक्तों को भी आगे का विकल्प चाहिए!

अमेरिका में जो असल है वह अब जंग खाता हुआ है। हालांकि ऐसे फोटो देखे नहीं हैं कि नासा के वैज्ञानिक या अकादमिक शोधकर्ता, प्रोफेसर आदि भी अपने कर्म संग खड़े हो कर सेल्फी ले रहे हों और उसे नोबेल पुरस्कार कमेटी को भेज रहे हों। बावजूद इसके असली अमेरिका का खोखला और भटकना तयशुदा है। अमेरिका लोकतंत्र का पैमाना रहा है, विकास और विज्ञान को रचने की प्रयोगशाला और निर्माता था। लेकिन सत्ता और वोट की राजनीति से अमेरिकी समाज में वह विष घुला है जिसमें सब कुछ छिछला-उथला होना है।

धंधे और सौदेबाजी की जिस खूबी से डोनाल्ड ट्रंप कारोबार में सफल हुए तथा उसे जैसे उन्होंने राजनीति में अपनाया है उसका घर-घर में असर हुआ होगा। वहां भी राजनीति का व्याकरण बदल गया है। इसी कारण वे लोग और उसके वे साथी देश यह सोच परेशान हैं कि यह हो क्या रहा है!

मेरा मानना है यह पॉपुलिस्ट राजनीति नहीं है यह उस फास्ट, फटाफट समय की देन है, जिसकी गति में असल का तनिक ध्यान नहीं रहता। अमेरिकी आर्थिकी में विश्व व्यापार में घाटा एक सच्चाई थी और है लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ की दरों का फटाफट एक बोर्ड बना कर दुनिया में जैसा कोहराम बनाया है वह अमेरिका की बरबादी को ही न्योतना है। आखिर विश्व व्यापार संगठन और वैश्विक व्यवस्था तो अमेरिका की ही बनवाई हुई थी। उसके हितों को, उसे विश्व का चौधरी मानते हुए ही तो वह बनी थी। जैसे तब व्यवस्था बनाई थी वैसे ट्रंप अभी भी उन विश्व संगठनों से टैरिफ पुनर्गठित करा सकते थे। लेकिन तब उन्हें अपने प्रचार, अपनी सेल्फी, अपने रोजाना के शो का मौका नहीं था। तो एक व्यक्ति के अपने आपको बेचने की रीति-नीति में अमेरिका कुरबान हुआ। सोचें इससे अमेरिका की कुल सेहत पर क्या असर होगा? और अमेरिका के इस पतन का मौनी-अनुशासित सभ्यता वाला चीन, उसके मितभाषी राष्ट्रपति शी जिनफिंग कितनी बारीकी से फायदा उठाएंगे?

पर ट्रंप को अमेरिका की नहीं अपनी चिंता है। अमेरिका तो उनका मुखौटा भर है। वे अमेरिका के नाम पर अपने को बेच रहे हैं, अपना और अपने दोस्तों का धंधा बढ़ा रहे हैं (इलॉन मस्क का भी बढ़ा रहे थे)। सो, निष्कर्ष क्या है? अपने को बेचते-बेचते ट्रंप अमेरिका को भी बेच दे रहे हैं और अमेरिका को पता ही नहीं! जैसे दुनिया के कई पॉपुलिस्ट नेता अपने-अपने देश को बेच रहे हैं! उन्हें खोखला और बरबाद कर दे रहे हैं! क्या नहीं?

हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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