“वोट चोरी” के इल्जाम में दम है या नहीं- यह बहस का विषय है। मगर, यह भी सच है कि उन प्रश्नों से इस नैरेटिव को वजन मिला है, जो राहुल गांधी ने लोकसभा में उठाए। उनकी मांगों पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
चुनाव सुधार पर बहस के दौरान राहुल गांधी ने सरकार से तीन सवाल पूछे। ये वो सवाल हैं, जो सार्वजनिक दायरे में लगातार अहम बने रहे हैं। लोकसभा में विपक्ष के नेता ने पूछा कि निर्वाचन आयुक्तों की चयन समिति से भारत के प्रधान न्यायाधीश को क्यों हटाया गया? यह प्रावधान क्यों किया गया कि पद पर रहते हुए निर्वाचन आयुक्त जो भी कार्य करेंगे, उनको लेकर उन पर कोई वैधानिक कार्रवाई नहीं की जा सकेगी? यह कानूनी व्यवस्था क्यों की गई कि चुनाव के सिर्फ 45 दिन बाद निर्वाचन आयोग सीसीटीवी और उससे हासिल डेटा को नष्ट कर सकेगा?
केंद्र अगर चाहता है कि जनमत के एक बड़े हिस्से की निगाह में चुनावों की लगातार घट रही साख को बहाल किया जाए, तो उसे इन प्रश्नों के विश्वसनीय उत्तर जरूर देने चाहिए। दरअसल, गांधी ने जो चार मांगें रखीं, अगर उनके प्रति सरकार सकारात्मक रुख अपनाए, तो देश की चुनाव प्रक्रिया को और विवादित होने से बचाया जा सकेगा। ये मांगें हैः चुनाव से कम-से-कम एक महीना पहले मशीन-रीडेबल वोटर लिस्ट जारी हो, सीसीटीवी फुटेज मिटाने वाला कानून वापस लिया जाए, विपक्ष को ईवीएम तक पहुंच मिले और उसका आर्किटेक्चर सार्वजनिक हो, तथा चुनाव आयुक्तों को सज़ा से बचाने वाला कानून बदला जाए। किसी तर्क से नहीं कहा जा सकता कि ये मांगे नाजायज हैं।
चुनाव प्रक्रिया में सभी राजनीतिक दल समान हितधारक हैं। इसलिए इन मांगों का औचित्य स्वयंसिद्ध है। “वोट चोरी” के विपक्ष के इल्जाम में दम है या नहीं- यह अवश्य बहस का विषय है। निष्पक्ष नजरिए से इस दावे को स्वीकार करना कठिन है कि भाजपा की जीत सिर्फ “वोट मैनेजमेंट” से हो रही है। यह बात भी अपनी जगह सही हो सकती है कि कई दलों ने “वोट चोरी” की कहानी को अपनी नाकामियों को ढकने का बहाना बना लिया है। मगर, यह भी सच है कि उपरोक्त प्रश्नों से इस नैरेटिव को वजन मिला है। इसलिए लोगों के मन में तैर रहे संदेहों का निवारण किया जाना चाहिए। ऐसा ना होने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, जिनकी ओर नेता विपक्ष ने भी इशारा किया।


