जगदीप सर से मेरा रिश्ता ईटीवी के दिनों से बना। वे हमारे स्टेट हेड थे। हम सबकी किस्मत थी कि हमें ऐसा कप्तान मिला जो निडर, निष्पक्ष और हर हाल में अपनी टीम के साथ खड़े रहने वाला था। जब कोई रिपोर्टर सिस्टम के खिलाफ कोई कड़वी खबर चलाता, तब दूसरे लोग उसे दबाने, मैनेज करने की कोशिश करते — लेकिन सर हमेशा रिपोर्टर के पीछे दीवार बनकर खड़े रहते।
- दिव्या गोयल
पिछले साल जगदीप सर को एडवांस स्टेज के मेटास्टेटिक कैंसर का पता चला था, तभी नया इंडिया परिवार की जमीन हिल गई थी। मगर सर तो ठेठ ठाकुर साहब थे। हंसते हुए कहते — “मैं जगदीप सिंह बैस हूँ… मुझसे कैंसर टकराएगा?” डॉक्टरों ने स्पष्ट कह दिया था कि छह महीने से ज्यादा का वक्त नहीं है। लेकिन सर का जज़्बा ऐसा था कि उन्होंने पूरे एक साल इस भयावह बीमारी से मुकाबला किया। हम सब को भी यकीन होने लगा था कि शायद ये कैंसर भी सर की जिंदादिली के आगे हार मान जाएगा।
आखिरी दिनों में अस्पताल के बिस्तर पर भी जब हम मिलने जाते, तो थके शरीर से हाथ हिलाकर हमें हिम्मत देते रहते। लेकिन कहते हैं न — ऊपरवाले के फैसलों के आगे किसी का बस नहीं चलता। शायद उसे भी अब जगदीप सर की ज़रूरत ज्यादा थी।
जगदीप सर से मेरा रिश्ता ईटीवी के दिनों से बना। वे हमारे स्टेट हेड थे। हम सबकी किस्मत थी कि हमें ऐसा कप्तान मिला जो निडर, निष्पक्ष और हर हाल में अपनी टीम के साथ खड़े रहने वाला था। जब कोई रिपोर्टर सिस्टम के खिलाफ कोई कड़वी खबर चलाता, तब दूसरे लोग उसे दबाने, मैनेज करने की कोशिश करते — लेकिन सर हमेशा रिपोर्टर के पीछे दीवार बनकर खड़े रहते।
मुझे याद है — एक बार खेल विभाग के तत्कालीन डायरेक्टर के खिलाफ मैंने एक स्टोरी चलाई थी। प्रेशर था कि खबर हटा ली जाए। मगर सर ने उल्टा दिनभर वही खबर चलवाई। उसके बाद उसी विभाग से बड़ा विज्ञापन भी लिया और फिर सर ने मुझे ‘चक दे एमपी’ प्रोग्राम में एंकरिंग का मौका भी दिया। सर संकट में भी अवसर तलाशने वाले थे।
जगदीप सर जितने शांत दिखते थे, उतने ही भीतर से राजनीतिक चाणक्य भी थे। हमें तब हैरानी हुई जब लोकसभा के लिए जबलपुर सीट के संभावित पैनल में उनका नाम पढ़ा। बड़े-बड़े नेताओं, अधिकारियों से गहरी मित्रता थी लेकिन कभी तस्वीर खिंचवाने, सोशल मीडिया पर दिखावे का मोह उनमें कभी नहीं रहा।
ईटीवी में सत्ता परिवर्तन के दौरान जब नई व्यवस्था आई तो सर ने हर रिपोर्टर की नौकरी बचा ली। उनमें ठाकुरों वाली ठसक थी, पर चापलूसी उनके खून में नहीं थी। इसलिए एक दिन अचानक इस्तीफा देकर ईटीवी को अलविदा कह दिया। फिर हरिशंकर व्यास जी के नया इंडिया में नई इबारत लिखी। मध्यप्रदेश में नया इंडिया की नींव उन्हीं के हाथों रखी गई। एक-एक कर हम सब को जोड़कर उन्होंने इस परिवार को खड़ा किया।
नया इंडिया के फ्रंट पेज पर व्यास जी जितनी बेबाकी से लिखते हैं, वैसी ही निर्भीकता जगदीप सर के संपादन में भी झलकती थी। 18 साल साथ काम करते हुए मैंने कभी उन्हें समझौता करते नहीं देखा। मगर अपने किसी साथी के लिए जो भी मदद बन पड़े — कभी मना नहीं किया। साथी की पीड़ा में वे अपने से ज्यादा बेचैन हो जाते।
एक घटना आज भी याद है — जब ईटीवी के वरिष्ठ पत्रकार सुनील तिवारी को रात में ब्रेन हैमरेज हुआ। उनके परिजन घबराकर सर को फोन करते हैं, और आधी रात की कड़कड़ाती ठंड में सर तुरंत बंसल अस्पताल पहुंच जाते हैं। ऐसे न जाने कितने किस्से हैं जो उनके जाने के बाद स्मृतियों में कौंधते रहते हैं।
वे एक सच्चे पत्रकार के साथ-साथ बड़े दिल वाले इंसान थे। अक्सर कहते — “किसी की मदद करने से कोई छोटा नहीं होता।” उनके पास अभी बहुत से प्लान थे — अखबार के लिए भी, जीवन के लिए भी। लेकिन कौन टिक सका है इस जिंदगी के प्लान के आगे? वे अक्सर एक गीत गुनगुनाया करते थे। आज उनके न होने पर वही गीत दिल को भीगने पर मजबूर कर रहा है—
“जाने चले जाते हैं कहाँ
दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते हैं कहाँ।
कैसे ढूंढ़े कोई उनको, नहीं कदमों के भी निशां।
बनकर बादल काले-काले, जाने चले जाते हैं कहाँ…”
आज बस मन यही दोहरा रहा है —
“जिंदगी लंबी हो या ना हो, बड़ी होनी चाहिए बाबू मोशाय…”
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उसकी जीवटता लगातार बीमारी को चुनौती देती रही। ग़ज़ब का इंसान था मेरा दोस्त। उसकी इच्छा-शक्ति इतनी गहरी थी कि हम सबको पूरा यकीन था — एक दिन वह इस संकट से बाहर आ जाएगा। लेकिन नियति ने उसे हमसे दूर कर दिया।
उसकी जीवटता गजब थी!
“जगदीप… खुश रहो”
राजेश बैन
जब साँसें ही साथ छोड़ दें, तो तमाम जद्दोजहद के बावजूद जीवन की बाजी हारना तय हो जाता है। कुछ ऐसा ही खेल मेरे दोस्त जगदीप के साथ भी हो गया। आज वह अनंत यात्रा पर निकल पड़ा है।
मैं उसे हमेशा “मालगुजार” कहता था। और वह सचमुच मालगुजार ही था — एक फक्कड़ मालगुजार। सब कुछ लुटा देने वाला, सब पर सब कुछ खर्च कर देने वाला। उसके पास देने के लिए धन नहीं, दिल था। मैं उससे बहुत कुछ सीखने की कोशिश करता रहा — सोचिए, एक ऐसा मालगुजार, जो विनम्र था, यायावर था, और जिसे हर किसी के लिए कुछ भी न्योछावर कर देने में संकोच नहीं होता था। उसने तो जैसे नए संदर्भों में मालगुजार शब्द को परिभाषित ही कर दिया था।
पच्चीस-तीस साल का साथ रहा जगदीप के साथ। वह एकदम पत्रकार था, पर इस दौर की दुनियादारी में एकदम अनफिट। दुनियादारी उसे बस इतनी आती थी कि अपनी लेखनी से किसकी कितनी मदद कर सकता है। अखबार से टीवी और फिर वापस अखबार तक उसकी यात्रा रही। नया इंडिया में तो जैसे वह अखबार का पर्याय ही बन गया था। मुझे लगता है, हरीशंकर व्यास जी भी इस बात से सहमत होंगे कि नया इंडिया और जगदीप एक-दूसरे के पूरक बन चुके थे।
जगदीप ने कितनों को मंच दिया, कितनों को पहचान दिलाई। कमाई से उसका लेना-देना इतना था कि अपनी जमा पूँजी भी मित्रों पर लुटा देता। किसी को घर दे देता, किसी को कार। और बदले में? सिर्फ और सिर्फ सामने वाले के चेहरे पर मुस्कान। यही उसकी असली पूँजी थी।
उसके व्यक्तित्व से मैं कई अनकहे पाठ चुपचाप सीखता रहा — बड़ी से बड़ी खुशी को भीतर समेट लेना, बड़े से बड़े दुःख को हँसते हुए पी जाना। वो दोनों ही परिस्थितियों में सामान्य ही बना रहता। ग़ज़ब की शख्सियत थी। सच में बड़ा इंसान था — बहुत बड़ा। विनम्रता उसकी पहचान थी, और किसी भी समस्या को चुटकी में सुलझा देने की उसकी अनोखी कला।
यदि वह किसी और दौर में होता, तो शायद इस भौतिकतावादी जमाने के शोर में कहीं खो जाता। लेकिन उसका कद इन सब से बहुत ऊपर था। शहर में रहते हुए भी उसके भीतर गाँव बसता था — खेत, नदी, तालाब, चौपाल, पगडंडियां। उसके भोपाल के बड़े-से घर तक जाने वाला रास्ता भी आज तक कच्ची पगडंडी ही रहा। सरकारी कोशिशों के बावजूद भी। प्रकृति से उसका यही जीवंत जुड़ाव था।
पिछली गर्मियों में हम अक्सर बीएचईएल के जंगलों में 6-7 किलोमीटर सुबह-सुबह टहलते थे। दरअसल, वो बीमारी को हराने की अपनी रणनीति रच रहा था। शाम को भी भीषण गर्मी में एमपी नगर की सड़कों पर तेज़ कदमों से चलता। दिल्ली के बड़े अस्पताल में आखिरी जांच से ठीक पहले मेरे घर आया। चाय पीते हुए बोला — “कुछ नहीं है, फिर भी जांच करा लेते हैं।” उसे क्या पता था कि बस एक साल के भीतर ही ये ‘कुछ नहीं है’ अंतिम पड़ाव तक पहुँच जाएगा।
उसे यह ‘कुछ नहीं है’ कहना जैसे शक्ति देता था। दिल्ली के अस्पताल की छठी मंजिल तक लिफ्ट छोड़कर सीढ़ियों से चढ़ गया — बस यह दिखाने के लिए कि देखो, कुछ भी नहीं है। डॉक्टर को भी वही कहा — “बड़ा कुछ होता तो मैं सीढ़ियां कैसे चढ़ पाता?”
उसकी जीवटता लगातार बीमारी को चुनौती देती रही। बीमारी उसे छकाती रही। लेकिन अंततः बीमारी जीत गई और हम सबसे जगदीप को छीन लिया। ग़ज़ब का इंसान था मेरा दोस्त। उसकी इच्छा-शक्ति इतनी गहरी थी कि हम सबको पूरा यकीन था — एक दिन वह इस संकट से बाहर आ जाएगा। लेकिन नियति ने उसे हमसे दूर कर दिया।
कभी सोचा नहीं था कि उसके लिए सरकारी प्रेस नोट को एडिट करना पड़ेगा। पिछले इतवार उसने लगभग सभी दोस्तों को फोन किया। मुंबई में होने के कारण मैं कॉल नहीं ले सका, फिर खुद ही खेद व्यक्त करते हुए बोला
“अब देखो, जो होना है वह तो होगा। अपनी तरफ से तो सब कर ही रहे हैं।”
उसका भरोसा गहरा था — प्रार्थना में भी, जीवन में भी। पिछले सप्ताह से उसकी तबीयत ने जो अजीब करवटें लीं, वह विचलित करने वाली थीं। मैं मिलने जाना चाहता था, लेकिन विदा करना नहीं। इसलिए अस्पताल के दरवाजे तक जाकर भी लौट आया।