राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

‘गुस्ताख़ इश्क़’: पुराने ज़माने के प्रेम की नई दास्तान

पुरानी दिल्ली की गलियों में शूट किए गए दृश्य फ़िल्म को एक सपनों जैसा रंग देते हैं। ।।।।उल जलूल इश्क़”, “आप इस धूप में”, और शहर तेरेजैसे गीत केवल गाने नहीं, बल्कि कहानी की आत्मा हैं। संगीत का सुर और शब्दों की कोमलता फ़िल्म की नज़ाकत को और बढ़ा देती है। धुनें दिल में उतरने वाली हैं; वे नॉस्टैल्जिया और तड़प लेकर चलती हैं।

सिने-सोहबत

फ़िल्मों की दुनिया में प्रेम कहानियां हमेशा से सिनेमा की आत्मा रही हैं। लेकिन तेज़ कट्स, ऊंची आवाज़ों, और चमकदार रोमांस के इस दौर में एक ऐसी प्रेम कहानी का आना, जो ठहराव, खामोशी और पुरानी मोहब्बत की मासूमियत को फिर से जगा दे, अपने आप में साहसिक है। आज के ‘सिने-सोहबत’ में बिलकुल ताज़ा तरीन फ़िल्म “गुस्ताख़ इश्क़” पर चर्चा करते हैं जो कि मनीष मल्होत्रा का पहला प्रोडक्शन है। निर्देशन किया है है विभु पुरी ने। यह फ़िल्म बीते ज़माने की शायरी, नमी, सौंधी खुशबू और धड़कनों को बड़े परदे पर बारीक़ी से बुनती है।

फ़िल्म की कहानी दो दिलों के आसपास घूमती है, फ़ातिमा सना शेख और विजय वर्मा, जिनकी निगाहें, खामोशियां और अधूरे जज़्बात इस कथा की असल भाषा बन जाते हैं। संवाद कम हैं, भावनाएं ज़्यादा। कथानक तेज़ नहीं भागता; वह धीरे-धीरे परतें खोलता है। पुरानी दिल्ली की गलियां, नम रोशनियां, झरोखों से आती धूप और मिट्टी की महक, फिल्म को एक अलग ही दुनिया में ले जाती है, एक ऐसी दुनिया, जहां प्रेम बोलता नहीं, बल्कि महसूस होता है।

कहानी का मूल सरल है। एक मासूम, दिलकश प्रेम जो परिस्थितियों में उलझता है और पनपने की जद्दोजहद करता है। विभु पुरी का निर्देशन इसी सरलता को खूबसूरती में बदलने की कोशिश करता है। फिल्म जल्दबाज़ी नहीं करती; यह अपनी गति स्वयं तय करती है। कई दृश्य पेंटिंग जैसे लगते हैं- स्थिर, गहन और मन में उतरते हुए।

हालांकि यह भी उतना ही सच है कि कहानी अपने अंदर कोई अभूतपूर्व मोड़ या नाटकीयता नहीं रखती। इसकी आत्मा कथानक के नएपन में नहीं, बल्कि उसके अनुभव में है। यही कारण है कि दर्शक इससे तभी जुड़ पाएंगे, जब वे प्रेम की धीमी लहरों, लंबी ख़ामोशियों और अनकही पीड़ाओं के अनुभूति-जगत में उतरने को तैयार हों।

फातिमा सना शेख अपने किरदार मिनी को एक मासूम, संवेदनशील और सहज भावनात्मक स्त्री के रूप में उतारती हैं। बिना दस संवाद बोले भी वह अपनी आंखों से कहानी कह जाती हैं। उनके चेहरे पर उभरती दुविधा, शर्म, आकुलता और प्रेम की धड़कनें बेहद विश्वसनीय लगती हैं।

विजय वर्मा का अभिनय फिल्म की प्रमुख ताकतों में है। उनका व्यक्तित्व व्यवस्थित न होकर थोड़ा बिखरा, थोड़ा नर्म और थोड़ा उलझा हुआ है और यही उन्हें इस भूमिका के लिए परफ़ेक्ट बनाता है। उन्होंने रोमांस को ‘परफॉर्म’ नहीं किया; उसे जीया है। कई दृश्यों में उनका मौन ही सबसे प्रभावी संवाद साबित होता है।

नसीरुद्दीन शाह हमेशा की तरह अपने अनुभव का वजन लाते हैं। उनका किरदार अपेक्षाकृत सीमित होते हुए भी फिल्म को गहराई देता है। वे सिनेमा में वह एहसास भर देते हैं, जो सिर्फ़ मौजूद रहने से पैदा होता है। फ़िल्म का संगीत इसका असली धड़कता हुआ दिल है। गुलज़ार के शब्द और विशाल भारद्वाज के स्वरों ने इस प्रेम कथा को वह परवाज़ दी है, जो बहुत कम फिल्मों को मिलती है।

“उल जलूल इश्क़”, “आप इस धूप में”, और “शहर तेरे” जैसे गीत केवल गाने नहीं, बल्कि कहानी की आत्मा हैं। संगीत का सुर और शब्दों की कोमलता फ़िल्म की नज़ाकत को और बढ़ा देती है। धुनें दिल में उतरने वाली हैं; वे नॉस्टैल्जिया और तड़प लेकर चलती हैं। गानों का इस्तेमाल कहानी को सहारा देने के लिए किया गया है, न कि उसे रोकने या सजाने के लिए।

पुरानी दिल्ली की गलियों में शूट किए गए दृश्य फ़िल्म को एक सपनों जैसा रंग देते हैं। रोशनियां कभी हल्की धुंध में तैरती हैं, कभी धूप की नर्म परत में लिपटी हैं। सेट डिज़ाइन यह सुनिश्चित करता है कि दर्शक पूरी तरह उस दुनिया में प्रवेश कर सकें, जो वक्त की रफ़्तार से अलग चलती है।

हाफ-लाइट, लंबी सड़कों, बंद खिड़कियों, पुराने घरों और दिलकश गलियों के बीच कैमरा इस तरह से घूमता है कि लगता है जैसे प्रेम का कोई भटका हुआ गीत धीरे-धीरे अपने शब्द ढूंढ़ रहा हो।

फ़िल्म का सबसे बड़ा सौंदर्य, इसका धीमापन- ही उसकी सबसे बड़ी चुनौती है। सामान्य दर्शक या तेज़ सिनेमाई अनुभव के आदी लोग इसे कुछ हिस्सों में बोझिल, अत्यधिक खिंचा हुआ या अत्यधिक शांत पा सकते हैं।

कथानक पारंपरिक है। यह वह प्रेम कहानी है, जिसकी रूपरेखा कई दर्शकों ने पहले भी महसूस की है। यदि कोई अभूतपूर्व मोड़ की तलाश में हो, तो यह फ़िल्म उसे चौंकाती नहीं।

गुलज़ार के शब्द बेहतरीन हैं, पर लंबे संवाद और अत्यधिक काव्यात्मकता कुछ दर्शकों को ‘ओवर’ लग सकती है। आम दर्शक को यह शायरी-प्रधान भाषा और गहराई कभी-कभी दूरी भी पैदा कर सकती है।

कई जगह फ़िल्म की सुंदरता इतनी परिपूर्ण हो जाती है कि भावनाओं का कच्चापन थोड़ा दब जाता है। वास्तविकता और सौंदर्य के बीच संतुलन कहीं-कहीं टूटा महसूस होता है।

नसीरुद्दीन शाह जैसे मजबूत कलाकार का सीमित उपयोग एक मिस्ड चांस लगता है। कुछ अन्य किरदार भी सिर्फ़ कहानी बढ़ाने तक सीमित महसूस होते हैं। हालांकि शारीब हाशमी ने अपने छोटे मगर अहम् किरदार में अपने अभिनय की गहरी छाप छोड़ी है।

‘गुस्ताख़ इश्क़’ एक ऐसी फ़िल्म है जो दिल से बनी है और दिल वालों के लिए बनी है। यह फ़िल्म उन प्रेम कहानियों में से है, जिन्हें देखा नहीं, महसूस किया जाता है। इसमें चमक-दमक नहीं, पर गहराई है; इसमें शोर नहीं, पर धड़कन है; इसमें नाटकीयता नहीं, पर काव्य है।

अगर आप तेज़, आधुनिक, लगातार मोड़ देती कहानी चाहते हैं, तो यह फ़िल्म आपके लिए शायद बहुत शांत हो। लेकिन यदि आप प्रेम को उसकी परतों, उसकी बेचैनियों, उसकी ख़ामोशियों और उसकी मासूमियत के साथ महसूस करना चाहते हैं तो ‘गुस्ताख़ इश्क़’ आपके भीतर एक नर्म सा स्पर्श छोड़ जाएगी।

यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा के उस पुराने दौर की याद दिलाती है, जहां भावनाओं को शब्दों से ज़्यादा निगाहों से अभिव्यक्त किया जाता था। और यही इसकी खूबसूरती भी है और इसकी सीमा भी।

मिलाजुला कर देखें तो ‘गुस्ताख़ इश्क़’ एक संवेदनशील, कलात्मक, धीमे बहाव वाली प्रेम कहानी है जो उन दर्शकों के लिए बनी है जो सिनेमा में सुकून, नज़ाकत और दिल की धड़कनें ढूंढ़ते हैं।

आपके नज़दीकी सिनेमाघर में है। देख लीजिएगा।  (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरिज़” के होस्ट हैं।)

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *