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01-06-2025 Vol 19

हम चुने जन प्रतिनिधि, लेकिन तुम उम्मीदवार कैसे चुनो.!

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भोपाल। मध्य प्रदेश में 2023 के विधान सभा चुनावों में पार्टी के टिकट यानि की उम्मीदवारी का “बी” फार्म पाने के लिए जैसा घमासान मचा है, वैसा विगत चालीस सालों मंे नहीं देखा गया। यह बात मैं खुद के अनुभव से कह रहा हूँ। सवाल उठता है कि ऐसा क्यंू? कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियां इसमें फांसी हुई हैं, इन पार्टी के बड़े नेताओं को भरोसा है कि नाम वापसी तक सब ठीक कर लेंगे ! लेकिन जिले स्तर के जिन नेताओं को जनता में अपनी जमीन की पकड़ का भरोसा है, वे तो नामांकन भी दाखिल कर आए हैं। इसी उम्मीद में कि पार्टी का चुनाव चिन्ह पर वे ही चुनाव लड़ेंगे और अगर ऐसा नहीं हुआ तब वे आज़ाद उम्मीदवार बन कर मैदान में अपनी किस्मत आज़माएँगे।

अब नाम वापसी के पूर्व तक तो पिक्चर साफ होती नजर नहीं आती फिर भी दोनों पार्टी दिन – रात मशक्कत कर रही है। इस बगावत को काबू पाने के लिए इन दोनों पार्टियों को खतरा यह भी है कि इस राज्य में जहां सदैव से दो ही पार्टी चुनाव के खेल की खिलाड़ी रही है, उनका खेल बिगाड़ने के लिए राज्य के बाहर के दल भी मैदान में आ गए हैं। मसलन केजरीवाल की आप, मायावती की बसपा और अखिलेश की समाजवादी पार्टी और अब नीतीश कुमार की जदयू भी बगावती लोगों को टिकट दे कर उन्हंे राजनीति में औरस संतान का ओहदा दे रही है। अब यह बात अलग है कि जनता उनके इस हैसियत को कितना मानती है, यह तो उनको मिले समर्थन से पता चलेगा वैसे इन लोगो की जमात से कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही दलो को खतरा अपने वोट कटने का है मतलब लबो तक प्याला आने के पहले उसके छ्लक जाने का ह।ै 1977 से हरियाणा में भजन लाल द्वारा जिस आया राम – गया राम की परंपरा की शुरुआत हुई थी, वह अब खूब फल – फूल रही है अनेकों टिकतार्थी, जिनकी जन्म कुंडली बताती है कि वे एक से अधिक बार अपनी राजनीतिक निष्ठा बदल चुके हैं। इनमें काँग्रेस और बीजेपी दोनों के ही लोग है मजे की बात है कि आप और समाजवादी तथा बसपा ने जिन लोगों को अपने उम्मीदवार होने का ऐलान किया है उनमें से कितने लोगों पार्टी ‘बी’ फोरम देकर नवाजेगी, यह भी अनिश्चित है क्यूंकि इन टिकट अभिलाषियों को जिस धन की मदद की आशा है वह कितने हद्द तक पूरी होगी, यह कहना मुश्किल है।

बसपा के लिए तो यह आरोप भी लग चुका है कि वहां उम्मीदवारी खरीदी जाती है ! अब कितना सच या गलत है यह बहस का मुद्दा है, जो यहां पर नहीं है। रही बात इन पार्टियों के जन समर्थन की यानि कि इलाके में इनके कितने वोट है वह तो बहुत ही अनिश्चित है। मसलन केजरीवाल की आप पार्टी को राजनीतिक रूप से एक ही स्थान मिला हुआ है, वह है सिंगरौली के मेयर पद का परंतु उनके पंजाब के मुख्यमंत्री चंबल इलाके में प्रचार भी कर आए हैं बात इतनी सी है कि इस इलाके में विभाजन के बाद काफी लोग पाकिस्तान के पंजाब से यहां आकार बसे हंै उनमंे से एक नाम सुनहरे अक्षरों में लिखे जाने योग्य है आज़ाद हिन्द फौज के कर्नल ढिल्लन का। उन्होंने यही आकर किसानी शुरू की थी। उनका फार्म आज भी ग्वालियर के पास है। इस इलाके में इनकी बसाहट तो है, पर ये सिख कितना पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान की अपील का मान रखेंगे यह अनिश्चित है। रही बात समाजवादी और जदयू पार्टियों की तो उनका बेसिक आधार तो पिछड़ी जातियों के वोट माने जाते हंै परंतु क्या वे उम्मीदवार की जाति को देख कर वोट नहीं देंगी ! क्यूंकि ग्रामीण इलाके में जातियों की पंचायत का प्रभाव तो है क्यूंकि इन दलों की राजनीतिक विचारधारा तो उनके चुनाव घोषणा पत्र तक ही सीमित होते हंै बाकी सब जाति पर ही निर्भर करता है।

इन फुटकर राजनीतिक दलों की एक निर्णायक भूमिका से दोनों ही यानि की कॉंग्रेस और बीजेपी आशंकित रहते हैं, वह है इनकी वोट काटने की छमता ! क्यूंकि विगत चुनावों मे देखा गया है कि जिन सीटों पर हार – जीत का अंतर कुछ हजार का रहा है वहां इनको मिले वोट ही निर्णायक बने हैं विजयी उम्मीदवार के लिए यह खतरा काँग्रेस को ज्यादा हुआ है, बीजेपी को इस बात से कम ही नुकसान हुआ है क्यूंकि कमोबेश उनका वोट बैंक भी जातियों पर निर्भर है, परंतु उसके साथ ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थन से उनकी नैया पार हो जाती है परंतु इस बार संघ के कुछ पुराने स्वयं सेवकों ने अपनी मातर् संगठन के विरुद्ध मोर्चा खोल कर चकित कर दिया है। ऐसा मालवा क्षेत्र में हुआ है परंतु ऐसा भी कहा जा रहा है कि यह भी एक सुनियोजित रणनीति के तहत किया जा रहा है। मोदी के नौ साल के कार्यकाल में अनेकों बार संघ के लोगों को सत्ताधारी दल के कुछ फैसलों से गहरा असन्तोष हुआ है यह जमीनी स्तर तक महसूस किया गया है।

अपने इस समर्थन वोट को दूसरे दलों की झोली में जाने से बचाने के लिए अपनी दूसरी झोली में गिरने का प्रयास है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता, क्यूंकि संघ व्यक्ति से निजी स्तर पर जुड़ा होता हो दल बदल कर सरकार बनाने की मोदी –शाह की कोशिशों को काफी समर्थक नाराज़ है उनकी नजरों में जिस प्रकार व्यापारियों पर छापे मारे जा रहे वह भी उनकी नाराजगी का एक कारण है वे हिन्दू राष्ट्र के समर्थक है, परंतु मणिपुर क घटनाओं से उनमे बेचैनी है क्यूंकि उत्तर – पूर्व में व्यापारियों का वर्ग आखिर है तो उनका समर्थक परंतु स्थानीय आक्रोश का शिकार नहीं होना चाहते है परंतु मोदी जी नीति जमीन पर हिन्दुओं और खासकर व्यापारियों और उनके प्रतिस्थानों पर हमले उन्हें असुरक्षा ही दे रहे हैं।

खबर लिखे जाने तक काँग्रेस और इंडिया गठबंधन के आप – समाजवादी और जदयू से अण्डरस्टैंडिंग होने की खबर आई है जिसके परिणामस्वरूप ज्यादा खतरनाक उम्मीदवारों की जगह कुछ कमजोर उत्साही लोगों को उम्मीदवार बनाया गया है वहीं मोदी सरकार के संकट मोचक गृह मंत्री अमित शाह भी राज्य में बीजेपी की गंभीर हालत को देखते हुए असन्तुष्ट नेताओं से मुलाक़ात कर उनको आश्वासन देकर संतुष्ट कर रहे हैं उनकी समझाइश का असर भी हो रहा है अब चुनावी तस्वीर नाम वापसी के बाद ही साफ होगी तब तक इंतज़ार रहेगा।

सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का राम मंदिर का मोह और पाकिस्तान तथा मुस्लिम विरोध उनके चुनावी राग का संपुट समान है मोदी राग में काँग्रेस और पाकिस्तान तथा मुस्लिम एक ही सुर में लगते है वहीं राम मंदिर उनका लंबा आलाप सरीखा है जो गाहे – बगाहे पंचम सुर में गूँजता है अब चूंकि अयोध्या में राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की तिथि की घोषणा हो चुकी है – जो गणतन्त्र दिवस से पूर्व की है इसलिए बीजेपी इस मुद्दे को एक बार फिर भुनाने की कोशिश कर रही है। इस नुस्खे की आजमाइश इतनी बार हो चुकी है, कि अब इसके लाभ की गुंजाइश कम है परंतु फिर भी बीजेपी के लिए लोगों को धरम के नाम पर जोड़ने की कोशिश तो है ही इसीलिए बीजेपी चुनाव आचार संहिता लगने के बाद भी इस उद्घाटन के पोस्टर जगह – जगह लगा रही है वहीं बीजेपी उनके विरोध को राम का विरोध बता रही है। गनीमत है कि काशी की ज्ञानवापी मस्जिद को प्राचीन शिव मंदिर और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मे बनी मस्जिदों का मसला नहीं प्रचारित कर रही है क्यूंकि काशी वाले मसले को हाइकोर्ट के मुख्य न्यायधीश ने पूरी सुनवाई को ही रोक दिया है क्यूंकि जिन जज साहेबन ने इस मामले की सुनवाई की थी उनको यह मामला कोर्ट के रजिस्ट्रार की लिस्ट से आवंटित ही नहीं हुआ था अब यह तो गजब ही है कि जज साहब इस बेसिक बात की जांच किए बिना ही मुकदमा सुनने बैठ गए। दूसरी ओर मथुरा के मामले को भी आगे किसी भी कार्रवाई से सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया है। इसलिए बीजेपी डरती है कि अदालत की रोक के बाद अगर प्रचार हुआ तो मामला अदालत के पास पंहुच जाएगा और पार्टी का अनुभव इस मामले मे अच्छा नहीं रहा हैI

रही बात अयोध्या में राम मंदिर की तो उसको लेकर तो अमित शाह जी ने तीन दिवाली मनाने का सुझाव दिया है 1. कार्तिक मास की दीपावली 2. प्रदेश में बीजेपी की (शिवराज की नहीं) सरकार के गठन के समय और 3. अयोध्या मे राम मंदिर में मूर्ति स्थापना के दिन अब इन्हंे कौन समझाये की दशहरा -दीपावली तिथि पर मनाए जाते हंै। लंका विजय पर दशहरा और अयोध्या आगमन पर दीपावली होती है। सरकारों के बनने और बिगड़ने पर नहीं बनती है। यह कोई निजी समारोह नहीं है कि घर पर दिये जला लिए और बिजली के बल्ब लगा लिए उनको मालूम होना चाहिए कि जन विश्वास है कि पर्व की प्रतिस्था तिथि से है, ना की बीजेपी की जय – पराजय से दीपावली तो एक ही होगी। योगी जी चाहे तो अयोध्या में सरकारों खर्चे से दिये जलवा सकते हंै पर वह दीपावली तो नहीं होगी।

विजय तिवारी

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